14 मई 2025 का ज्ञानप्रसाद-सोर्स-अखंड ज्योति दिसंबर 1958
1958 के सहस्र कुंडीय यज्ञ पर आधारित लेख श्रृंखला के अंतर्गत गुरुदेव द्वारा चयनित महान विभूतिओं द्वारा इस महायज्ञ का दिव्य विवरण एक Live commentary की भांति दर्शाया जा रहा है, सभी साथी इस विवरण को एक धारावाहिक टीवी सीरियल की भांति न केवल देख रहे हैं बल्कि सीरियल की ही भांति अगले एपिसोड की उत्सुकता से प्रतीक्षा भी कर रहे हैं।
आज के ज्ञानप्रसाद लेख में “आदरणीय ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ जी” जो निम्नलिखित 12 विभूतिओं के 12वें स्थान को सुशोभित कर रहे हैं, महायज्ञ में जनता की सेवा भावना का बहुत ही संक्षिप्त सा विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं :
1.श्री सत्यनारायण सिंह, 2.श्री शंभूसिंह जी, 3.श्री सत्य प्रकाश शर्मा, 4.डॉ. चमनलाल, 5.श्री सीतारामजी राठी,बोरीवली,मुंबई, 6.श्री रामनारायण अग्रवाल, 7.श्री मार्कंडेय ‘ऋषि,’काशी, 8.श्री बालकृष्ण जी, 9.श्री अवधूत, गुप्त मंत्र विद्या विशारद, गोरेगाँव, मुंबई,10.श्री गिरिजा सिंह जी,11.श्री घनश्याम दासजी,इकौना,12. ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ।
योगेन्द्रनाथ जी का विवरण इतना संक्षिप्त सा है कि आज के लेख के दूसरे भाग में चार आत्मदानिओं की पात्रता की चर्चा करना उचित समझा गया है। लेख के तीसरे भाग में महायज्ञ के समापन पर प्रस्थान कर रहे याज्ञिकों को गुरुदेव के निर्देश बताये गए हैं।
कल वाले लेख में श्री शंभूसिंह जी,डॉ चमनलाल जी,श्री गिरिजा सिंह जी और श्री बालकृष्ण जी के बारे में बताया जायेगा, 1958 के महायज्ञ में यही चार विभूतियाँ थी जिन्हें आत्मदानि होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हमारे साथी अनेकों अन्य आत्मदानिओं/जीवनदानिओं से परिचित होंगें जिनसे गायत्री परिवार सुशोभित हो रहा है।
इसी भूमिका के साथ गुरुचरणों में समर्पित होकर आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ करते हैं। आइये विश्वशांति की कामना करें, संकल्प लें कि हम अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर, त्याग करके संसार में व्याप्त दुष्प्रवृतियों का नाश करने में सहयोग देंगे।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!
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भाग 1
महायज्ञ में जनता की सेवा-भावना, प्रस्तुतकर्ता ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ
यज्ञ का अर्थ है त्याग एवं उदारता। जहाँ नित्य कर्मकाण्ड में हवन को स्थान देकर हम प्राणीमात्र के लिये सेवा और परोपकार की भावनाओं को अपने में धारण करते हैं, वहाँ महायज्ञों में हम अकेले ही नहीं सामूहिक रूप से गुणों को अपनाने की प्रतिज्ञा करते हैं।
अभी दो सप्ताह पहले इन्हीं भावनाओं की बाढ़ जन-समाज में स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। क्या बच्चे क्या बूढ़े, क्या स्त्री, क्या पुरुष, सभी यह अभिलाषा करते दिखाई देते थे कि महायज्ञ में हम भी कुछ सेवा कर सकें। महायज्ञ से कुछ दिन पूर्व जब हम यज्ञ-सम्बन्धी कुछ वस्तुएँ खरीदने बाजार में जाते थे तो दुकानदार लोगों के मुँह से अन्त में यह बात निकल ही पड़ती थी कि
“ब्रह्मचारी जी, क्या यज्ञ में हमें भी सेवा करने का कुछ सुअवसर मिल सकता है? हम किस प्रकार की सेवा कर सकते हैं?
इस प्रकार के प्रश्न करने वालों में बड़े-बड़े धनी मानी, सेठ साहूकार, डॉक्टर, वैद्य, पंडित सभी श्रेणी के लोग हुआ करते थे। हमारा एक ही उत्तर होता था कि
“महायज्ञ में सैंकड़ों लोगों के चौबीस घण्टा सहयोग की आवश्यकता है। आप जिस प्रकार चाहें और जो समय निकाल सकें उसी में सेवा कर सकते हैं।”
महायज्ञ से पूर्व नवरात्रि से ही गायत्री परिवार के जो सदस्य आये थे वे भी प्रबंधकों की आज्ञानुसार धूप और सर्दी-गर्मी की परवाह न करते हुए पूर्ण उत्साह, लगन के साथ श्रमदान में लगे रहते थे। जिस समय वे फावड़ा, कुदाल कंधों पर रख कर “विश्व को बनावें स्वर्ग अपने से यही एक प्रार्थना हमारी भगवान से” का गायन करते हुए चलते थे उस समय एक बार मुर्दा, कायर हृदय भी धर्मक्षेत्र में कूद पड़ने को तड़फ उठता था।
यही दशा स्वेच्छा सहयोग के सम्बन्ध में थी। लोग बड़ी ही भक्ति और श्रद्धा से अपनी शक्ति के अनुसार थोड़ी बहुत यज्ञ-सामग्री लाते थे और अत्यन्त आग्रह से उसे यज्ञ-भंडार में जमा कराते थे। वे बार-बार अपनी वस्तुओं के विशुद्ध होने का विश्वास दिलाते थे और वास्तव में उनमें से कोई झूठ नहीं कह रहा था। आश्चर्य और साथ ही आनन्द का विषय है कि जहाँ लोगों को काफी खर्च करने पर भी विशुद्ध पदार्थ नहीं मिलते, महायज्ञ में लोगों की श्रद्धा भावना ने इस असंभव काम को भी संभव करके दिखा दिया।
आश्चर्य की बात है कि जहाँ दक्षिणा के लोभी हो हल्ला मचा कर इस पुनीत कार्य में बाधक बनने में संकोच नहीं करते थे, वहाँ ये सीधे-साधे श्रद्धालु व्यक्ति सच्ची भावना से यज्ञ में किसी प्रकार की सेवा सहयोग करने को उत्सुक हो रहे थे।
हमारी तो यही कामना है कि यह भावना राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति में समा जाय। आचार्य जी का संकल्प वास्तविक रूप से तभी पूरा होगा जब लोग यज्ञ के असली अर्थ को समझ जायेंगे। जब जन-जन के मन में परमार्थ की, लेने की नहीं देने की भावना, सहयोग और अपरिग्रह की प्रवृत्ति उत्पन्न होगी तभी हमारा जीवन सुखी बन सकेगा। महायज्ञ का वास्तविक लक्ष्य मानवता का प्रसार, परोपकार की वृत्ति, सबको आत्मवत् समझना ही है। पूज्य आचार्य जी ने महायज्ञों की जो योजना बनाई है उसके पीछे यही उद्देश्य है।
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भाग 2
गुरुदेव बता रहे हैं कि चार आत्मदानियों के तप और त्याग को देखते हुए ही हमने इनको अपनी वर्तमान नौकरियों को छोड़कर समस्त जीवन गायत्री और यज्ञ के कार्य में लगाने की अनुमति दी है। ये लोग जीवन भर दान व चन्दे के पैसे को अपने लिए काम में न लायेंगे बल्कि अपने निज के परिश्रम और उद्योग से अपनी आजीविका उपार्जन करते हुए धर्मप्रचार का कार्य करेंगे। चारों आत्मदानि यद्यपि विभिन्न स्थानों में और विभिन्न परिवारों में पैदा हुए हैं लेकिन अब इन्होंने सहोदर भाइयों के समान आध्यात्मिक समाज के आधार पर अपना एक कुटुम्ब बना लिया है। चारों के पास जेवर, मकान, नकदी या पैतृक सम्पत्ति के रूप में कुल मिलाकर लगभग 20000 रूपये की सम्पत्ति होगी। इसे इकट्ठी करके ये प्रेस, प्रकाश, गो-पालन आदि कोई उद्योग आरम्भ करेंगे। इन चारों में से क्रमशः एक-एक व्यक्ति एक वर्ष तक उस उद्योग की देखभाल करके सब परिवारों के निर्वाह की व्यवस्था करेगा और शेष तीन गायत्री-प्रचार के कार्य में पूर्ण निःस्वार्थ भाव से लगे रहेंगे। इस प्रकार व्यक्तिगत स्वार्थ और संग्रह करने की प्रवृति को त्यागकर, अपनी अच्छी आर्थिक सुविधाओं के आधार पर बने हुए सुख साधनों को छोड़कर उस धर्म को करेंगे जिससे साधु, संन्यासी,पंडित, पुरोहित आदि विमुख हो गए हैं।
ऐसे अनुपम उदाहरण सब प्रकार से प्रशंसनीय हैं। जिन घरों में कई व्यक्ति हैं वे यदि अपने परिवार में से एक-एक काम का व्यक्ति दे दें तो युग निर्माण की, साँस्कृतिक पुनरुत्थान की, महान् आवश्यकता बहुत अंशों में पूरी हो सकती है। परिवार के वोह वरिष्ठ सदस्य जिनके ऊपर अधिक जिम्मेदारियाँ नहीं है एवं जिनके मन में धर्मसेवा की लगन है उनके लिए तो यह चार आत्मदानिओं का अनुकरण करना और भी उचित हो जाता है।
महायज्ञ में हुए यह चार बलिदान (आत्म-बलिदान) चार प्रकाश स्तम्भों की तरह प्रज्ज्वलित होकर सारे राष्ट्र में सद्-विचारपूर्ण सन्देश पहुंचाएंगें, ऐसा हमारा विश्वास है। बलिदान की, आत्मदान की, जो पुनीत परम्परा इन चारों ने आरम्भ की है वह इन तक ही सीमित न रहेगी बल्कि सहस्रों नर-नारी इनका अनुकरण करेंगे, यह निकट भविष्य में ही स्पष्ट हो जायगा। युगनिर्माण के लिए निश्चय ही ऐसे सहस्रों आत्मदानि शिल्पियों की आवश्यकता है, यह आवश्यकता माँ गायत्री ही पूरी करेगी।
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भाग 3
गुरुदेव का निर्देश-हर शाखा अपने यहाँ यज्ञ का आयोजन करें :
ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान में भाग लेने वाले 1 लाख व्रतधारियों में से मथुरा थोड़े से ही आये थे। शेष की साधना की पूर्णाहुति के लिए उनके क्षेत्रों में ही सामूहिक गायत्री यज्ञों की व्यवस्था होनी चाहिए। मथुरा से जाने के बाद प्रत्येक शाखा के संचालकों को अपने क्षेत्र में एक गायत्री यज्ञ का आयोजन करने में लगना है। उसका संकल्प प्रत्येक शाखा को यहाँ पूर्णाहुति के समय ही करके जाना चाहिए।
बहुत बड़े यज्ञों की व्यवस्था में अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ आती हैं। आज का युग असुरता प्रधान है। ईर्ष्या, द्वेष, जलन, अहंकार, आक्रमण की दुर्भावनाओं से भरे हुए लोगों के मन अनायास ही किसी को अच्छा काम करते देखकर जल भुनकर खाक हो जाते है और उसमें तरह-तरह के अड़ंगे लगाते हैं। धर्म व्यवसायी लोग तो इसे अपनी आजीविका का खतरा समझते हैं। पूजा पाठ, जप हवन, दूसरे लोगों को भी करते देखकर उन्हें अपना एकाधिकार नष्ट होता प्रतीत होता है। ऐसे लोग असत्य, भ्रम, पाखण्ड का आधार लेकर इन सत्कार्यों में सहयोग देने वाले लोगों के मनों में मात्र बुद्धि-भ्रम ही नहीं पैदा करते बल्कि आक्रमणात्मक कार्य भी करते हैं। जिन्हें भी प्रचुर दक्षिणा एवं मलाई मिठाई न मिले वे ही दुश्मन बन जाते हैं।
यह कठिनाई महायज्ञ तक ही सीमित नहीं हर शाखा के सामने उपस्थित रहेगी। बड़े आयोजनों की आवश्यकताएं भी बड़ी होती हैं और उनमें विघ्न भी बहुत आते हैं इसलिये प्रत्येक शाखा छोटे-छोटे यज्ञ आयोजन करे। पाँच या नौ कुण्डों के सामूहिक यज्ञों की व्यवस्था आसानी से हो सकती है। जिस प्रकार मथुरा यज्ञ के लिए एक निश्चित जप उपवास संख्या बनाई गई है, वैसे ही प्रत्येक शाखा 24 लक्ष या सवा करोड़ सामूहिक जप का संकल्प करे। अधिकाधिक उपासक बनाये जाएं, जप पाठ या लेखन, जिसे जो प्रिय हो वह उसी उपासना को करे। नियत अवधि में जब साधना पूरी हो जाय तो उन उपासकों या उनके परिवार वालों के द्वारा ही हवन कार्य सम्पन्न किया जाय। 24 लक्ष जप के लिए 24 हजार आहुतियों का और सवा करोड़ साधना के लिए सवा लाख आहुतियों के हवन पर्याप्त है। 24 हजार आहुतियों के लिए 5 कुण्डों का, सवा लाख आहुतियों के लिए 9 कुण्डों का यज्ञ पर्याप्त है। तीन दिन का कार्यक्रम रखा जाय नित्य-प्रातः हवन तथा तीसरे पहर एवं रात के प्रवचनों की व्यवस्था रहे। पूर्णाहुति में अन्य धर्मप्रेमी नारियल, सुपारी आदि चढ़ा सकें।
जिस प्रकार तीर्थयात्रा से घर लौटने पर ब्राह्मण-भोजन करा देने पर वह तीर्थयात्रा पुण्य मानी जाती है, उसी प्रकार मथुरा महायज्ञ में आने वाले याज्ञिकों का पुण्य तभी पूर्ण माना जायगा जब वे अपने यहाँ जाकर एक सामूहिक यज्ञ की व्यवस्था कर लेंगें । इस आयोजन का संकल्प हर याज्ञिक को मथुरा महायज्ञ में ही कर लेना चाहिए।
समापन, जय गुरुदेव
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कल वाले लेख को 423 कमेंट मिले एवं 10 साधकों ने अपना अमूल्य समयदान करके 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सभी को हमारी बधाई एवं धन्यवाद्।