वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वर्ष 1958 का दिव्य सहस्र कुंडीय यज्ञ-पार्ट 19    

1958 के सहस्र कुंडीय यज्ञ पर आधारित लेख शृंखला के अंतर्गत गुरुदेव द्वारा चयनित महान विभूतिओं द्वारा इस महायज्ञ का दिव्य विवरण एक Live commentary की भांति  दर्शाया जा रहा है, सभी साथी इस विवरण को एक धारावाहिक टीवी सीरियल की भांति न केवल देख रहे हैं बल्कि सीरियल की भांति अगले एपिसोड की उत्सुकता से प्रतीक्षा भी कर रहे हैं।

आज का लेख इतना छोटा है कि शब्द सीमा पर तैनात आर्मी चीफ से निवेदन करके तपोभूमि में संपन्न हुए कुछ अन्य यज्ञों की जानकारी देने की आज्ञा मिली है।  इस आज्ञा के मिलने से ह्रदय गदगद हो उठा क्योंकि महर्षि दुर्वासा की तपशक्ति से अनुप्राणित तपोभूमि मथुरा की भूमि पर इन यज्ञों की जानकारी से इसकी  दिव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है।

आशा करते हैं कि तपोभूमि की वेबसाइट पर प्रकाशित निम्नलिखित जानकारी साथिओं के लिए अति लाभदायक होगी: 

22 से 26 दिसंबर 1958 को संपन्न हुए जिस सहस्र कुंडीय यज्ञ की आजकल ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर चर्चा चल रही है, इसके साथ-साथ परम पूज्य गुरुदेव के निर्देशन में अनेकों अन्य यज्ञ भी करवाए गए जिसने गायत्री तपोभूमि मथुरा को एक दिव्य भूमि का दर्जा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 

जून 1953 में तपोभूमि में 108 कुंडीय गायत्री महायज्ञ संपन्न हुआ, जिसमें पहली बार पूज्यवर ने साधकों को मंत्र-दीक्षा दी। यहीं पर 1956 में नरमेध यज्ञ तथा 1958 में विराट सहस्रकुंडीय यज्ञायोजन संपन्न हुए। श्रेष्ठ नर-रत्नों का चयन कर, व्यक्तिगत मार्गदर्शन द्वारा गायत्री परिवार का सूत्रपात हुआ।

वर्ष 1955 की वसंत पंचमी से तपोभूमि की  यज्ञशाला में  15 माह तक निरंतर  गायत्री महायज्ञ के साथ-साथ विशेष सरस्वती यज्ञ, रुद्र यज्ञ, महामृत्युंजय यज्ञ, विष्णु यज्ञ, शतचंडी यज्ञ, नवग्रह यज्ञ, चारों वेदों के मंत्र यज्ञ, ज्योतिष्टोम, अग्निष्टोम आदि यज्ञ एक-एक माह तक होते रहे। इन यज्ञों की पूर्णाहुति 20 से 24 अप्रैल 1956 में  नवरात्र के समय चल रहे 108 कुंडीय (नरमेध यज्ञ) महायज्ञ से हुई। इसमें 5-6 हजार व्यक्तियों द्वारा 125 लाख आहुतियाँ दी गईं तथा पूर्णरूप से लोकमंगल के लिए जीवनदानियों की शृंखला इसी महायज्ञ से आरंभ हुई। इसी अवसर पर गुरुदेव-माताजी द्वारा जेवर, पुस्तक, प्रेस, जमीन आदि भौतिक पदार्थ गायत्री माता को दान किए गए।

वर्ष 1971 में पूरे भारतवर्ष में पाँच सहस्रकुंडीय यज्ञ संपन्न हुए, जिनका संचालन इसी मथुरा  सिद्धपीठ के द्वारा किया गया। यह पांच यज्ञ बहराइच (उ०प्र०), महासमुंद (म०प्र०), पोरबंदर (गुजरात), भीलवाड़ा (राजस्थान), टाटानगर (बिहार) में संपन्न हुए। इसके बाद ही यहाँ से भारतीय संस्कृति के उत्थान एवं धर्म-प्रचार के लिए साधकों को प्रशिक्षण देकर देश के कोने-कोने में भेजा गया। 

20 जून 1971 को पूज्य गुरुदेव एवं माता भगवती देवी शर्मा मथुरा से विदा होकर शांतिकुंज हरिद्वार प्रस्थान कर गए । गायत्री तपोभूमि की जिम्मेदारी यहाँ के वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं को सौंप गए ।

इस महत्वपूर्ण जानकारी के बाद वर्तमान लेख श्रृंखला को ओर  रुख करते हैं जहाँ हम इकौना निवासी आदरणीय घनश्याम दास जी की दिव्य  प्रस्तुति का अमृतपान करेंगें। उत्तर प्रदेश स्थित महात्मा बुद्ध की भूमि श्रावस्ती से मात्र 8 किलोमीटर दूर इकौना जैसे छोटे से गाँव से घनश्याम दास  जी जैसी विभूति का महायज्ञ के विवरण के लिए चयनित होना कोई छोटी बात नहीं है। 

आद. घनश्याम जी अपनी प्रस्तुति में “सत्य की जीत” शीर्षक से बता रहे हैं कि यदि कोई व्यक्ति गायत्री मंत्र की थोड़ी सी भी साधना कर लें तो उनकी भावनायें स्वयमेव ही शुद्ध हो सकती हैं।

आदरणीय घनश्याम दास जी, निम्नलिखित 12 विभूतियों में से 11वें  स्थान को सुशोभित कर रहे हैं:

1.श्री सत्यनारायण सिंह, 2.श्री शंभूसिंह जी, 3.श्री सत्य प्रकाश शर्मा, 4.डॉ. चमनलाल, 5.श्री सीतारामजी राठी,बोरीवली,मुंबई, 6.श्री रामनारायण अग्रवाल, 7.श्री मार्कंडेय ‘ऋषि,’काशी, 8.श्री बालकृष्ण जी, 9.श्री अवधूत, गुप्त मंत्र विद्या विशारद, गोरेगाँव, मुंबई,10.श्री गिरिजा सिंह  जी,11.श्री घनश्याम दासजी,इकौना,12. ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ।

तो साथिओ आओ गुरुचरणों में समर्पित होकर आज के ज्ञानप्रसाद लेख का विश्वशांति की कामना के साथ करें, संकल्प लें कि हम अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर, त्याग करके संसार में व्याप्त दुष्प्रवृतियों का नाश करने में सहयोग देंगे।  

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो! 

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सत्य पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है। कदम-कदम पर विपत्तियों के पहाड़ मार्ग रोके रहते हैं, न जाने कितनी विकट समस्याएं हतोत्साह करने को उत्पन्न हो जाती हैं, न जाने कितने प्रकार की आलोचनाएँ, निन्दा की बौछारें, कितने हृदय विदारक कठोर शब्द छाती पर पत्थर रख कर सहन करने पड़ते हैं। कार्यकुशल, कर्तव्यपरायण व्यक्ति भी ऐसी विरोध की, विघ्न-बाधाओं की आँधी से घबरा जाते हैं और अनेक बार पथ से विचलित हो जाते हैं । 

सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र,भगवान राम, योगिराज भगवान कृष्ण,भगवान बुद्ध,महर्षि दयानन्द, महात्मा गाँधी आदि महापुरुषों की जीवनियाँ इस बात की साक्षी हैं कि 

किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है:

ऐसे ही व्यक्ति युगपुरुष और लोकनायक माने जाते हैं। युगों-युगों तक उनकी अमर कीर्ति हमको सद्प्रेरणा देती रहती है। मगर इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो स्वयं तो कोई सत्कार्य कर नहीं सकते लेकिन अन्य लोग जो सत्कार्य करते हैं उनमें भी द्रोह या भ्रमवश अड़ंगा डालते रहते हैं । वे प्रायः यही विचार करते हैं कि अमुक व्यक्ति ने महान कार्य करके इतनी मान्यता, कीर्ति प्राप्त कर ली है, अब हम उससे पीछे रह जायेंगे, चलो उसकी खूब बदनामी करो। 

खेद की बात है कि यह दूषित भावना अन्य क्षेत्रों की भाँति धार्मिक क्षेत्र में भी बहुत अधिक घुसी हुई है। अनेक लोगों ने भगवान के नाम पर अंधेरखाता मचा रखा है और धर्म को अपने घर की जायदाद समझ लिया है। वे यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं कि भगवान सभी के हैं और सब को अपनी रुचि के अनुकूल या सुविधाजनक ढंग से उनकी उपासना भक्ति करने का अधिकार है।

इस मनोवृत्ति का एक घटिया  उदाहरण मुझे मथुरा महायज्ञ में देखने को मिला। कई लोग पूज्य आचार्यजी के त्याग और तपस्या की ओर दृष्टिपात न करके स्वयं तो  उनकी निन्दा कर ही रहे थे,दूसरे लोगों को भी पैसे देकर आचार्यश्री जैसे महान व्यक्तित्व की निन्दा करा रहे थे। वे लोग जातपात के दूषित रूप को कायम रखने के लिये, अपने नाम की जागीरदारी को सुरक्षित रखने के लिये बड़ी दौड़-धूप कर रहे थे। ऐसे कितने ही लोगों से मेरी बड़ी बहस हुई और मैंने उनकी बातों का जड़मूल से खण्डन भी कर दिया लेकिन  जिनका ध्येय ही आलोचना करना तथा निन्दा करना हो गया है, जिनके हृदय में ईर्ष्या-द्वेष की अनिष्टकारी भावनाएँ चक्कर काटती रहती हैं वे भला सत्य बातों को कब सुन और मान सकते हैं। ऐसे लोगों के बारे में तो केवल यही कहा जा सकता है कि  यदि ऐसे व्यक्ति गायत्री मंत्र की थोड़ी सी भी साधना कर लें तो उनकी भावनायें स्वयमेव ही शुद्ध हो सकती हैं।

यह एक शाश्वत नियम है कि सत्कार्य के पूरा होने में भले ही देर लगे लेकिन  यह किसी की मजाल नहीं कि उसका बाल भी बाँका कर सके। इस महायज्ञ में देश के कोने-कोने से लोग आकर शामिल हुए,विरोधियों के मनमाने आक्षेप करने पर भी भारत की जनता यज्ञ-भगवान के दर्शन करने को अकुला उठी, बड़े-बड़े विरोधियों के आसन भी हिल गये और उनके अन्दर श्रद्धा का अंकुर फूट पड़ा । न जाने कितने ही व्यक्ति हमारी माताओं और बहिनों के जल-यात्रा के जुलूस को देख कर ही विरोधी के बजाय समर्थक बन गये। उनकी अन्तरात्मा ने यह स्वीकार किया कि आज प्राचीन भारतीय स्त्रियों का जीता जागता साकार रूप हमारी आँखों के सामने मौजूद है। उस समय उनकी आत्मा से यही शब्द निकले कि 

बस आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने कर्तव्यपथ पर दृढ़ रहते हुए  संगठन का बल और शक्ति बढ़ाते रहें। हमारे परिवार की जड़ें जमीन में मजबूती से जम चुकी हैं और उसका कोई कुछ भी  बिगाड़ नहीं सकता।

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कल वाले लेख को 494 कमेंट मिले एवं 13 साधकों ने अपना अमूल्य समयदान करके 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सभी को हमारी बधाई एवं धन्यवाद्। 


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