वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वर्ष 1958 का दिव्य सहस्र कुंडीय यज्ञ-पार्ट 18 

62 वर्ष पुरातन प्रज्ञागीत के लिए महाकवि प्रदीप और हेमंत कुमार जी को नमन है

1958 के सहस्र कुंडीय यज्ञ पर आधारित लेख शृंखला के अंतर्गत गुरुदेव द्वारा चयनित महान विभूतिओं द्वारा इस महायज्ञ का दिव्य विवरण एक Live commentary की भांति  दर्शाया जा रहा है, सभी साथी इस विवरण को एक धारावाहिक टीवी सीरियल की भांति न केवल देख रहे हैं बल्कि सीरियल की भांति अगले एपिसोड की प्रतीक्षा भी कर रहे हैं।

आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद के अमृतपान का  शुभारम्भ  वर्तमान परिस्थितिओं को देखते हुए  विश्वशान्ति की कामना से करना उचित समझते हैं : 

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो! 

आज के ज्ञानप्रसाद के प्रस्तुतकर्ता 31 वर्षीय झाँसी निवासी, सेंट्रल रेलवे में कार्यरत ,तीन बेटों और एक बेटी के पिता, चार आत्मदानियों में से एक, आदरणीय गिरिजा सिंह जी हैं। लेख छोटा होने के बावजूद किसी अन्य लेख के साथ Club करना अनुचित है क्योंकि हर एक लेख की अपनी ही विशेषता है, हर लेख अलग सी,यूनिक सी  शिक्षा प्रदान कर रहा है।    

महायज्ञ में “आतिथ्य भावना” को दर्शाता आज का लेख अपने अंदर ऐसी महत्वपूर्ण भावना एवं शिक्षा लिए हुए है विवश होकर कहना पड़ रहा है : एक वोह समय था, एक आज का वर्तमान समय है। आद. गिरिजा जी बता रहे हैं कि टेंट में पहले से रह रहे परिजन आने वालों का ऐसे सत्कार और स्वागत कर रहे हैं जैसे वर्षों से जानते हों। आज की स्थिति तो ऐसी है कि ट्रेन में यात्रा कर रहे परिजन सीट पर रुमाल आदि रखकर कब्ज़ा करने की मनःस्थिति लिए हुए हैं। संकीर्णता के ऐसे उदाहरण अक्सर ही, आये दिन,देखने को मिलते रहते हैं। एक अन्य उदाहरण देते हुए गिरिजा जी बता रहे हैं कि महायज्ञ जैसे बड़े आयोजनों में अक्सर तांगे, रिक्शा, टैक्सी वाले यात्रिओं को लूटने का प्रयास तो करते ही हैं,दुर्व्यवहार करने में भी पीछे नहीं हटते लेकिन इस महायज्ञ में ऐसे लोग भी सभी को अतिथि ही समझ रहे थे। शांतिकुंज में ही हम स्वयं ऐसे दुर्व्यवहार के शिकार हो चुके हैं, हमारे साथ घटित इस दुर्व्यवहार को शायद हम परिवार में शेयर कर चुके हैं। 

यही कारण है कि साथिओं से निवेदन कर रहे हैं कि सभी लेखों का  Word by word अमृतपान करें, काउंटर कमेंट अवश्य देखें ताकि इन दिव्य लेखों से  शिक्षित होकर हम सभी को गर्व से कह सकें कि हम परम पूज्य गुरुदेव की संतान हैं,OGGP पाठशाला के विद्यार्थी हैं।           

आज के प्रस्तुतकर्ता आदरणीय गिरिजा सिंह जी, 12 निम्नलिखित विभूतियों में से 10वें  स्थान को सुशोभित कर रहे हैं:

1.श्री सत्यनारायण सिंह, 2.श्री शंभूसिंह जी, 3.श्री सत्य प्रकाश शर्मा, 4.डॉ. चमनलाल, 5.श्री सीतारामजी राठी,बोरीवली,मुंबई, 6.श्री रामनारायण अग्रवाल, 7.श्री मार्कंडेय ‘ऋषि,’काशी, 8.श्री बालकृष्ण जी, 9.श्री अवधूत, गुप्त मंत्र विद्या विशारद, गोरेगाँव, मुंबई,10.श्री गिरिजा सिंह  जी,11.श्री घनश्याम दासजी,इकौना,12. ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ।

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महायज्ञ के दिनों में सारी ब्रज भूमि पर जिधर भी निकलते समस्त वातावरण एवं वायु  प्राणप्रद सुगन्ध से भरी हुई मालूम पड़ती थी। लाखों नर-नारी उस सुगन्ध की मस्ती में स्वर्गीय आनन्द का अनुभव कर रहे थे। जगह-जगह गोष्ठियों में यही बात सुनाई पड़ती थी कि “हम भी अपने यहाँ पहुँचते ही एक यज्ञ का आयोजन करेंगे।” लाखों साधकों की इस भीड़ में एक बात आश्चर्य की यह भी थी कि यद्यपि यज्ञ के प्रथम दिन ही ठहरने के सब स्थान भर चुके थे और  आने वालों का ताँता तो लगा ही हुआ था, लेकिन ज्यों ही वे यज्ञ नगर में अपने लिये निर्धारित कैम्प में पहुँचते थे तो  वहाँ पर पहले से टिके हुए  लोग उनको इस तरह गले लगाते जैसे कि वोह पता नहीं वर्षों से परिचित हों। अपने साथ उसी टेंट में इस प्रकार ठहराते थे मानो वे उनके कोई घनिष्ठ सम्बन्धी ही हों। अनेकों याज्ञिक बराबर अपने कैम्पों में घूमकर अन्य लोगों के कष्ट, अभाव की पूछताछ करते रहते थे और सेवा के लिये हर प्रकार से तैयार रहते थे।

भोजन के समय तो इस अतिथि सत्कार और सेवा का दृश्य देखकर प्रत्येक दर्शक यही अभिलाषा करता था कि “भगवान, ऐसा ही दृश्य देश में सर्वत्र दिखाई  पड़े।” चौके में बैठकर परस्पर मिलकर एक दूसरे का सत्कार कर रहे थे। विशेषता यह थी कि प्रत्येक एक दूसरे को अपना अतिथि समझ रहा था।

कुछ भाई अपने भोजन की व्यवस्था अपने साथ ही करके लाये थे लेकिन फिर  भी जब वे अपने तम्बुओं में बैठकर भोजन करते थे तो अपने पड़ोसियों से भी उसमें भाग लेने का बड़ा आग्रह करते थे।

याज्ञिक जहाँ स्वयं ऐसा प्रेमयुक्त व्यवहार कर रहे थे वहीँ  याज्ञिकों के निर्माता पूज्य आचार्य जी ने अतिथि सत्कार का जो महान आदर्श उपस्थित किया उसे देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबा रहे थे। 

कई महीनों से सूखे जौ के सत्तू पर रहने वाला कमज़ोर सा तन लेकर हाथ जोड़े हुए आचार्यश्री जब किसी यज्ञनगर में होकर गुजरते थे तो उनके मुँह से यही शब्द निकलते थे कि “आपको कोई कष्ट हुआ हो तो क्षमा करना। मैं आपकी अच्छी तरह सेवा न कर सका तथा आपको मैंने बड़ा कष्ट दिया।” उस अस्थिपंजर मात्र देह से निकलने वाले इन शब्दों में शब्दभेदी-बाण से भी अधिक ताकत थी। व्यवस्था की शिकायत करने वाले जिस किसी भी परिजन ने आचार्यश्री के यह  शब्द सुने, उसका हृदय द्रवीभूत हो गया था। वह आचार्य जी के दिव्य चरणों में लेटकर अपनी भूल का पश्चात्ताप करने लगता था। इसके बाद वह स्वयं दूसरों का सत्कार तथा सेवा करके परिजनों की  शिकायतों को दूर करने में लग जाता था।

इतने बड़े आयोजन में ताँगे, रिक्शे, मोटरगाड़ी वाले मुसाफिरों के साथ प्रायः गैरमुनासिब व्यवहार करने के लिये प्रसिद्ध हैं लेकिन इस अवसर पर वे भी महायज्ञ के यात्रियों से ऐसा मीठा व्यवहार कर रहे थे मानो वे उनके  भी अतिथि हों। जो स्वयंसेवक स्वागत के लिये स्टेशन पर पहुँचे थे वे रात-रात भर जाग कर इन याज्ञिकों की सेवा में लगे रहते थे। उनके अतिथि सत्कार की तल्लीनता का एक प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि उनमें से कुछ ने तो यह भी नहीं देखा कि यज्ञ कैसे हो रहा है। भाई विश्वकर्मा तो, कैम्प इंचार्ज थे, आगंतुकों की सेवा करने में ही यज्ञ का सारा पुण्य समझकर उसी दिन आये जब पूर्णाहुति थी। भाई शम्भूसिंह ने अपने ज़िम्मे  केवल यही काम लिया था कि प्रत्येक नगर में घूम-घूम कर वहाँ ठहरे हुए याज्ञिकों की दुःख  दर्द में सेवा करें। वे सुबह से रात के 11:00  बजे तक कैम्पों का चक्कर ही लगाते रहते थे। इस पारस्परिक सद्व्-व्यव्हार ने  ही आये हुए दर्शकों तथा स्थानीय नागरिकों के मन पर ऐसी गहरी छाप डाली कि  वोह अनुभव करने लगे कि 

जनार्दन शब्द दो शब्दों “जन” और “अर्द” की संधि से बना है जिसका अर्थ है जनता का  उद्धार करने वाला, भगवान विष्णु, भगवान कृष्ण आदि को जनार्दन भी कह कर पुकारा गया है।

जय गुरुदेव, समापन 

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शनिवार वाले विशेषांक को 476 कमेंट मिले,12 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सभी को बधाई एवं शुभकामना। 


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