8 मई 2025 का ज्ञानप्रसाद- सोर्स:अखंड ज्योति दिसंबर 1958
1958 के सहस्र कुंडीय यज्ञ पर आधारित लेख शृंखला के अंतर्गत गुरुदेव द्वारा चयनित महान विभूतिओं द्वारा इस महायज्ञ का दिव्य विवरण एक Live commentary की भांति दर्शाया जा रहा है, सभी साथी इस विवरण को एक धारावाहिक टीवी सीरियल की भांति न केवल देख रहे हैं बल्कि सीरियल की भांति अगले एपिसोड की प्रतीक्षा भी कर रहे हैं।
12 निम्नलिखित विभूतियों में से आदरणीय अवधूत जी नौवें स्थान को सुशोभित कर रहे हैं:
1.श्री सत्यनारायण सिंह, 2.श्री शंभूसिंह जी, 3.श्री सत्य प्रकाश शर्मा, 4.डॉ. चमनलाल, 5.श्री सीतारामजी राठी,बोरीवली,मुंबई, 6.श्री रामनारायण अग्रवाल, 7.श्री मार्कंडेय ‘ऋषि,’काशी, 8.श्री बालकृष्ण जी, 9.श्री अवधूत, गुप्त मंत्र विद्या विशारद, गोरेगाँव, मुंबई,10.श्री गिरिजा सिंह जी,11.श्री घनश्याम दासजी,इकौना,12. ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ।
इस लेख की पंक्तियाँ लिखते समय “अवधूत” शब्द को जानने की जिज्ञासा उठी तो गूगल जी ने सबसे उपयुक्त अर्थ “सन्यासी, दुनियादारी से परे” व्यक्ति बताया। गुप्तमंत्र विद्या के स्पेशलिस्ट आदरणीय अवधूत जी ने अपनी लेखनी से आज के वृतांत में वोह चार चाँद लगाए हैं कि उनका व्यक्तित्व शब्दों में साक्षात् रिफ्लेक्ट ही रहा है। वैसे तो सारा ही विवरण Word by word बहुत ही धीरे-धीरे,भावना को समझकर अंतरात्मा में उतारने वाला है लेकिन मनीआर्डर विभाग के सुपरवाइजर श्री सकुरेन्द्रनाथ जी गुप्ता के साथ हुआ संक्षिप्त वार्तालाप,गुरुदेव से हुई माँ गायत्री से सम्बंधित चर्चा, 24000 रुपए दान करने संबंधी गुरुदेव का सुझाव,ह्रदय की शक्ति मस्तिष्क की शक्ति से कहीं अधिक इत्यादि आज के लेख की हाइलाइट्स हैं।
इसी संक्षिप्त सी भूमिका के साथ,विश्वशान्तिकी कामना करते हुए श्री अवधूत जी के दिव्य विचारों का मृतपान करते हैं :
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!
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महायज्ञ की दिव्य सफलता प्रस्तुतकर्ता श्री अवधूत, गुप्तमंत्र विद्या विशारद, गोरे गाँव,मुंबई
मेरे अनेक साथी मथुरा महायज्ञ के विषय में मेरे साथ यज्ञ-आयोजन की सफलता, असफलता के सम्बन्ध में तरह-तरह की बातें करते थे। वे इस विषय में बहुत से प्रश्न शंका की दृष्टि से पूछते रहते थे। इन सब का उत्तर देने के लिये मुझे बहुत सूक्ष्म विचार करना पड़ता था। जब गायत्री मन्त्र का जप करते-करते मैं अनेक प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने का प्रयत्न करता था तो मुझे मां गायत्री की दिव्य शक्ति द्वारा जो अनुभव होता वही अपने साथियों को बताता रहता। कितने ही व्यक्ति यह प्रश्न करते थे कि यह सब कैसे पूर्ण हो सकेगा?
20 नवंबर की तिथि आ चुकी थी लेकिन अभी भी पूरी-पूरी तैयारियाँ नहीं हो सकी थीं। हमको बिल्कुल भी अनुमान नहीं था कि यह कार्य निर्विघ्न पूरा हो सकेगा? ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर मुझे मां गायत्री की दिव्य शक्ति के माध्यम से यही प्राप्त होता था कि आचार्य जी को उच्च लोगों की आत्माओं की बहुत सहायता मिल रही है और ये आत्माएँ उन व्यक्तियों पर प्रभाव डालकर, जिन्होंने वर्ष भर तक गायत्री जप, मंत्र लेखन, चालीसा पाठ, अनुष्ठान, ब्रह्मचर्य, भूमि शयन आदि द्वारा अपनी देह को पवित्र किया है, इस कार्य को सफल बनायेंगी।
इस प्रकार जो संदेश मुझे प्राप्त होते थे उनको मैं अपने साथियों को सुना देता और सुनने के बाद उनको प्रायः आश्चर्य ही हुआ करता था।
लेकिन यह बात इतनी सत्य सिद्ध हुई कि जब मैं इस लेख के लिखने के एक दिन पहले मथुरा के जनरल पोस्ट आफिस में अपना मनीआर्डर स्वयं लेने गया, तब वहाँ के मनीआर्डर विभाग के सुपरवाइजर साहब श्री सकुरेन्द्रनाथ जी गुप्ता के साथ महायज्ञ के सम्बन्ध में चर्चा हुई। उस समय उन्होंने मुक्त कंठ से स्वीकार किया कि
“ऐसा यज्ञ मथुरा नगरी के वर्तमान व्यक्तियों में से किसी ने कभी नहीं देखा था। मुझे महायज्ञ के प्रत्येक 1024 कुण्डों में मां गायत्री का रूप ही दृष्टिगोचर होता था। जलयात्रा में प्रत्येक महिला का स्वरूप मुझे मां गायत्री के समान ही जान पड़ता था, जिनके ऊपर मथुरा के कमरों से स्थान-स्थान पर पुष्प वर्षा की जा रही थी। पूर्णाहुति के बाद निकलने वाले विशाल जुलूस के घोड़े और उसके सभी व्यक्ति मुझे साक्षात मां गायत्री के रूप में दिखाई पड़ते थे। ऐसा अनुभव होता था कि इस महायज्ञ का संचालन कोई दिव्य और अदृश्य शक्ति कर रही है, ऐसा मेरे हृदय और आँखों को अनुभव हो रहा था।”
इन शब्दों को जब मैंने वहाँ उपस्थित 5-7 व्यक्तियों के समक्ष सुना तो मुझे ऐसा लगा कि आचार्य जी को इस “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” की प्रेरणा करने वाला और कोई नहीं,स्वयं माँ गायत्री ही हैं।
एक बार आचार्यश्री ने भी अपने प्रवचन में बताया था कि
“इस प्रेरणा का आयोजन मैंने अपने दिमाग से नहीं किया। आयोजन करते समय मेरे चित्त में जो प्रेरणा उत्पन्न हुई उसी से यह कार्य सम्पन्न हुआ है। लोग मुझे पागल कहें, तो भी यह ठीक है क्योंकि यह कार्य मैंने अपने विचार से नहीं किया है बल्कि मेरे हृदय में न जाने क्यों ऐसी प्रेरणा हुई और उसी से मैंने इस कार्य का संकल्प कर डाला।”
इससे समझा जा सकता है कि हृदय का महत्व कितना अधिक है। बुद्धिमान व्यक्ति जिस कार्य को मस्तिष्क-शक्ति से नहीं कर सकता उसे हृदय में रहने वाली शक्ति की प्रेरणा से कर सकता है। गायत्री-पंचाँग में भी हृदय का महत्व अधिक दर्शाया गया है। गायत्री का जप हृदय से करने से माँ गायत्री का निवास तुरन्त हृदय में हो जाता है।
आचार्यश्री ने “गायत्री महाविज्ञान” में लिखा है कि
“गायत्री का साधक साहस कर सकता है, वह मरुभूमि में भी हरियाली उत्पन्न कर सकता है।”
इस बात की सच्चाई श्री आचार्य जी ने इस ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की सफलता द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध करके दिखा दी है।
जिस आयोजन की सफलता के सम्बन्ध में अनेकों को शंका थी, अनेकों को हँसी मजाक की सी बात जान पड़ती थी, और अनेकों को जिस पर पूर्ण श्रद्धा भी थी, उसकी सफलता/असफलता की बहुसंख्य व्यक्ति प्रतीक्षा कर रहे थे, वह आयोजन आज सम्पूर्ण रीति से सफल हो चुका है। इसी शक्ति के आधार पर उनका समस्त भारत में 23000 कुण्डों के यज्ञ कराने का आयोजन भी सफल हुए बिना नहीं रहेगा। यह बात ऐसी है जो समय आने पर सब को प्रत्यक्ष दिखाई दे जायगी। दूसरी बात यह भी है कि सच्चा गायत्री उपासक किसी दूसरे व्यक्ति से धन का दान नहीं माँगता। बिना माँगे जो कोई श्रद्धापूर्वक जो कुछ भी भेंट करता है उसी को स्वीकार किया जाता है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण भी आचार्यश्री ने इस आयोजन में दिखा दिया है और इससे गायत्री-उपासकों को शिक्षा लेनी चाहिये।
अभी इसी महीने की बात है कि मैंने स्वाभाविक रीति से आचार्य जी के सम्मुख अपना यह विचार प्रकट किया था कि “मैं अपने साथियों द्वारा 24000 रु.(2025 के अनुसार लगभग 2 मिलियन रुपए, 24 लाख रुपए) इकट्ठा करके गायत्री तपोभूमि को भेंट करूं” लेकिन इसके उत्तर में उन्होंने शुद्ध हृदय से कहा कि “गायत्री तपोभूमि के लिये इस प्रकार धन इकट्ठा करके भेजने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। ईश्वर मेरे हर एक कार्य को अपनी इच्छा से पूरा कर ही देता है। उस धन का उपयोग तुम्हीं अपने प्राँत में गायत्री-ज्ञान-प्रचार के निमित्त करते रहो। जहाँ धन इकट्ठा होगा वहाँ झगड़ा भी होगा, इसलिये मुझे इस बात की कुछ भी आवश्यकता नहीं जान पड़ती,” अस्तु।
एक विशेषता यह भी है कि तपोभूमि में जो धन, सामग्री आदि जनता द्वारा दिया जाता है उसे इकट्ठा करके संग्रह नहीं किया जाता। इसे शीघ्र से शीघ्र उपयुक्त स्थानों में उपयुक्त व्यक्तियों द्वारा खर्च कर दिया जाता है। इस बात से मेरे हृदय में श्री आचार्य जी के लिये ऐसा अनुमान होता है कि शायद वोह कभी वास्तव में संन्यास तो नहीं ले लेंगे? गायत्री तपोभूमि का समस्त भार वे महायज्ञ के आत्मदानियों को देते जाते हैं और स्वयं अपने को पूर्ण रूप से ईश्वरेच्छानुसार जन-सेवा के लिये अर्पित करने चले जा रहे है। जिस प्रकार श्री शंकराचार्य जी अपना सब कार्य अपने चार शिष्यों को सौंपकर निवृत्त हो गये थे, उसी प्रकार आचार्य जी को भी “चार आत्मदानी” ईश्वर प्रेरणा से प्राप्त हो गये हैं। यद्यपि आचार्यश्री के संकल्प बहुत गुप्त होते हैं उनके हृदय को जानने वाले उनको समझ ही लेते हैं, और उनके निश्चय किये हुए संकल्पों को कोई रोक भी नहीं सकता।
आज के लेख का समापन यहीं पर होता है।
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