वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वर्ष 1958 का दिव्य सहस्र कुंडीय यज्ञ-पार्ट 13

आज का  दिव्य आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख मुंबई निवासी आदरणीय सीताराम राठी जी की प्रस्तुति है। 22 से 26 नवंबर, 1958 में सम्पन्न हुए सहस्र कुंडीय यज्ञ का विवरण अनेकों प्रतिष्ठित विभूतियों ने अखंड ज्योति के दिसंबर 1958 वाले अंक में देकर हम सबके ऊपर जो उपकार किया है उसे शब्दों में वर्णन करना लगभग असंभव ही है। योगदान दे रही विभूतियों को  ह्रदय से नमन करते हैं जिनके कारण ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का प्रत्येक सदस्य अपनेआप को यज्ञ में ही उपस्थित अनुभव कर रहा है। 

आद सीताराम जी ने “महायज्ञ में मैंने क्या देखा” शीर्षक के अंतर्गत अपने अनुभव के साथ-साथ, प्रज्ञाचक्षु महाराज जी,एडवोकेट पूर्णचन्द जी, कवि तेजपाल जी, बहिन सुमन गुप्ता जी, ब्रह्मानन्द जी एवं श्री शंभु सिंह जी के विचारों को भी शामिल किया है। हर बार की  भांति आज भी निवेदन है कि गुरुदेव का सानिध्य प्राप्त करने के लिए एक एक शब्द बड़े ही ध्यान से पढ़ा जाए, तभी लाइव कमेंट्री बन पाएगी। 

तो आइये इसी पृष्ठभूमि के साथ,विश्वशांति की कामना करते हुए,आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद के अमृतपान का शुभारम्भ करें : 

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!  

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गायत्री-महायज्ञ का मूल उद्देश्य तो देश की जनता की आध्यात्मिक भावनाओं को जागृत करना ही है लेकिन इस बार उसका बाहरी रूप भी ऐसा विशाल और चित्ताकर्षक हो गया कि उसने सब श्रेणियों के दर्शकों को बहुत ही  प्रभावित किया। इस सम्बन्ध में अनेक सज्जनों के मुख से यज्ञ की प्रशंसा सुनने में आ रही है। मथुरा में तो आमतौर से यह कहा जा रहा है कि इसके बराबर का  समारोह बहुत समय से देखने में नहीं आया। इस लेख के लेखक श्री सीताराम जी राठी ने पाठकों को महायज्ञ की एक ऐसी झाँकी कराने का प्रयत्न किया है जिससे वे दूर बैठकर भी इस महान समारोह का कुछ आनन्द प्राप्त करने में समर्थ होंगे।

मुझे भारतवर्ष में होने वाले बहुत से यज्ञों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, लेकिन मथुरा का 1024 कुंडीय महायज्ञ सब दृष्टियों से अप्रतिम रहा। सर्वप्रथम इसकी विशेषता यह है कि यज्ञ से पहले किसी भी बड़ी धनराशि इकट्ठा करने का कोई भी प्रयास नहीं किया गया, न किसी बड़े धनिक को सहायक, संरक्षक बनाया गया। यज्ञ में भाग लेने वाले साधारण व्यक्तियों ने अपनी ही इच्छा से जो कुछ इकट्ठा करके अर्पण किया उसी से काम चलाया गया और  भगवान के भरोसे ही रहा गया।

याज्ञिकों को  ठहराने के लिये जो कई हजार तम्बू लगाये गये थे उनके नाम नारद नगर, व्यास नगर वशिष्ठ नगर, विश्वामित्र नगर आदि ऐसे सुन्दर रखे गये थे कि उनको सुनते ही पुरातन  ऋषियों के जमाने की याद आ जाती थी। तीन मील के क्षेत्र में फैले हुए यह नगर बिजली के प्रकाश में ऐसे सुन्दर दिखाई पड़ते थे कि इनके  संचालकों को धन्यवाद दिये बिना रहा नहीं जाता था। यज्ञमंडप की सजावट भी अद्वितीय थी। विशालकाय द्वार के अन्दर माता गायत्री का सुन्दर, मनमोहक, कलायुक्त मन्दिर, आचार्य और ब्रह्म के लिये अति सुन्दर सजावट युक्त मंडप परम दर्शनीय था। सामने 1024 कुण्डों की रचना शास्त्रोक्त रीति से पीले वस्त्र युक्त छवि इतनी सुन्दर थी कि देखने वाले अपने सौभाग्य की सराहना करते थे। हवन के समय पीतवस्त्रधारी 3000 तपस्वी याज्ञिकों के समुदाय को एक साथ आहुतियाँ देते देखकर सतयुग की याद आ जाती थी।

प्रज्ञाचक्षु महाराज ने मानवता का सुन्दर संदेश सुनाते हुए कहा: “बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ मानवता की कसौटी नहीं हैं। मानव वह है, जो समाज की सेवा करता है और समाज को जिसकी आवश्यकता प्रतीत होती है। आप सबको इस महायज्ञ में यह व्रत लेना चाहिये कि पारस्परिक भेद होने पर भी हम प्रेमपूर्वक एकता का भाव रखेंगे।”

आगरा के श्री पूर्णचन्द जी एडवोकेट ने सदाचार पर सारगर्भित भाषण करते हुए कहा: “बेईमान नहीं, ईमानदार बनो। बेईमान का साथ कोई नहीं चाहता, बेईमान भी ईमानदारों का साथ चाहता है। जो एक जगह बिक्री करता है उसे 100 जगह खरीददार बनना पड़ता है। बिक्रीदार एक जगह बेईमानी कर सकता है लेकिन जब अन्य 100 जगह उसके साथ भी वैसा ही बर्ताव किया गया तो क्या नतीजा निकलेगा।”

श्री तेजपाल जी कवि ने पाँच-सात मिनटों में ही माँ गायत्री-माता की स्तुति में जो भजन सुनाया उसे जनता ने बहुत पसन्द किया। अन्त में उन्होंने यही कहा:

चार वेद, छ: शास्त्र (सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, और वेदान्त) में बात मिली हैं दोय। सुख देये सुख होत है, दुख देये दुख होय॥

बहिन सुमन गुप्ता ने आचार्य जी के विरोधियों के छक्के छुड़ाने वाला भाषण करते हुए कहा:

“भगवान बुद्ध के समय में उनका एक भी ऐसा अनुयायी नहीं था जो साथ देता। विरोधी कमर कसे खड़े थे लेकिन सत्य के प्रभाव ने विरोधियों को परास्त किया और वे ही विरोधी भगवान-बुद्ध के अनुयायी शिष्य बने। इसी प्रकार वह दिन भी जल्दी आ सकता है जब आचार्य जी के विरोधी उन्हीं से दीक्षा लें।” बहिन सुमन गुप्ता डबल ग्रेजुएट हैं फिर भी उन्होंने यही कहा कि “कालेज की शिक्षा अधूरी है। अगर वह पूरी होती तो आज जो शिक्षित बेकार फिर रहे हैं वे बेकार न रह होते।”

साबरमती के ब्रह्मानन्द जी ने तो समस्त विरोध करने वालों को चैलेंज देकर कहा:

“भाइयों, गायत्री जपने से जो कुछ पुण्य मिले वह तो आपका, और जिस किसी को यह शंका हो कि स्त्रियों और अन्य वर्णों के गायत्री जपने से पाप लगेगा तो इस सम्पूर्ण पाप का मैं जिम्मेदार हूँ। भगवान को साक्षी रखकर तीन बार कहता हूँ कि अगर इसमें पाप होता हो तो वह मेरे सिर पर रहे। दुनिया में ऐसा कोई रोग नहीं है जो गौ का दूध सेवन करने और गायत्री जप करने से दूर न हो जाय।”

महान गायत्री-प्रचारक श्री शंभुसिंह जी ने आचार्य जी को ईश्वरत्व की भावना से देखते हुये कहा:

आचार्य श्रीराम जी ने अपने 3-4 दिन के सारगर्भित भाषणों में कहा:

महायज्ञ के  प्रथम दिन कलश यात्रा  का जुलूस बड़ा प्रभावशाली था। माता भगवती देवी (आचार्य जी की धर्म पत्नी) सबसे आगे अन्य स्त्रियों के साथ यज्ञ का कुम्भ लिये ऐसी जान पड़ती थीं मानों अमृत बरसाने जा रही हों। अन्य समस्त पीतवस्त्र धारिणी महिलाओं का दृश्य भी ऐसा ही लग रहा था मानो वे यमुना मैया से अमृत माँगने जा रही हों।

पूर्णाहुति के बाद जो विशाल जुलूस निकाला गया उसके विषय में तो सभी मथुरा निवासी यह कह रहे थे कि ऐसा जुलूस शायद ही कभी यहाँ निकला हो। जुलूस के आगे नारद, राजा हरिश्चन्द्र, भगवान बुद्ध, महात्मा गाँधी, महर्षि दयानन्द आदि के दर्शनीय चित्र झाँकियाँ सजा कर निकाले गये थे। गायत्री मंत्र से युक्त यज्ञ-भगवान का रथ 10 सफेद अश्वों के साथ जुलूस के मध्य में चल रहा था। उसके पीछे सैंकड़ों शाखाओं के याज्ञिक अपने-अपने झंडे लेकर, जिन पर गायत्री मंत्र लिखा था, चल रहे थे। “गायत्री माता” तथा “यज्ञ भगवान” के जयघोष से आकाश गूँज रहा था। “पूज्य आचार्य जी की जय हो, हमारा युग निर्माण का संकल्प पूरा हो विश्व का कल्याण हो”  आदि के नारे लगाये जा रहे थे। आचार्य जी जुलूस के साथ पैदल चल रहे थे। रास्ते के सब मकानों की छतें और सड़कें जुलूस देखने के लिये एकत्रित जनसमूह से भरी थीं। जुलूस पर निरन्तर फूलों की वर्षा हो रही थी और थोड़ी-थोड़ी दूर पर आचार्य जी को फूलों के हार पहिनाये जा रहे थे। इस अद्वितीय समारोह के पचासों स्थानों पर फोटो खींचे गये। 

इस प्रकार जुलूस सम्पूर्ण नगर की 5 मील की परिक्रमा करके रामदास की मंडी होता हुआ रात के 9 बजे यज्ञनगर में वापस आया। तपोभूमि में वापस आने पर श्री द्रोपदी देवी जी ने आचार्य जी तथा चारों बलिदानी वीरों की आरती उतारी।

कार्तिक शुक्र 15 को देवताओं की दीपावली मनाई जाती है। उस दिन स्वर्ग में देवताओं ने गाजे बाजे के साथ उत्सव किया होगा। इधर भूमंडल में माता गायत्री ने अपने लाड़ले पुत्र श्रीराम शर्मा जी की मंगलमय दिवाली मनवाई और भू (पृथ्वी) को धन्य-धन्य किया।

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कल प्रकाशित हुए लेख को 416 से अधिक कमेंट ही मिले हैं क्योंकि आद संध्या बहिन जी के व्हाट्सप्प कमैंट्स को यूट्यूब ने काउंट नहीं किया है। 11 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूरा किया है ,सभी को बधाई एवं धन्यवाद् 


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