30 अप्रैल 2025 का ज्ञानप्रसाद-सोर्स:अखंड ज्योति दिसंबर 1958
साथिओ आज का दिव्य आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख महान विभूति आदरणीय सत्यप्रकाश शर्मा जी की प्रस्तुति है। इतनी मार्गदर्शक प्रस्तुति के बारे में बजाये हम कुछ कहें, साथिओं से निवेदन है कि वह स्वयं ही शब्द By शब्द अमृतपान करके कमैंट्स की कक्षा में ले आएं ताकि हम सबका मार्गदर्शन हो जाये।
एक तरफ हम दिसंबर 1958 में महायज्ञ के समापन एवं 1959 (एवं उसके आगे वाले वर्षों के लिए भी) के लिए गुरुदेव से मार्गदर्शन प्राप्त कर रहे हैं वहीँ 1959 में ही “दीदी” टाइटल से रिलीज़ हुई बॉलीवुड मूवी का गीत “हमने सुना था एक है भारत” आज के प्रज्ञागीत का स्थान लिए हुए है। परिवार की सर्वप्रिय बेटी संजना द्वारा इस गीत को हम तक भेजना मात्र कोई संयोग तो नहीं हो सकता, अवश्य ही गुरुवर का निर्देश है। बहुत बहुत धन्यवाद् करते हैं बेटी। गीत के अंतिम शब्द “नवयुग अपनेआप नहीं आएगा, नवयुग अपनेआप नहीं आएगा”, अभी अभी रिलीज़ हुई वीडियो “नवयुग का संविधान” को चरितार्थ कर रहा है। डिस्क्रिप्शन बॉक्स में इस गीत के सम्पूर्ण लिरिक्स उपलब्ध हैं, अवश्य देखने चाहिए। सुप्रसिद्ध लिरिक्स राइटर साहिर जी को नमन करते हैं।
आज के दिव्य आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ इसी पृष्ठभूमि में विश्वशांति की कामना से करते हैं।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!
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मथुरा में जब जन-समुद्र लहरा उठा:
ललितपुर, झाँसी उत्तर प्रदेश में प्रवासी श्री सत्य प्रकाश शर्मा तरुण साहित्यकार पीढ़ी के एक सुलेखक हैं। प्रस्तुत रचना उस महायज्ञ का मर्मस्पर्शी विवरण है जो उन्होंने यज्ञ की व्यवस्था में कार्यरत रहते समय देखा।
जब देश के कोने-कोने से आगन्तुक, गायत्री-परिवार के लाखों सदस्य एवं दर्शक, सहस्र कुँडी गायत्री महायज्ञ में सम्मिलित होने आ पहुँचे तो योगेश्वर भगवान कृष्ण की ब्रजभूमि, सांस्कृतिक केन्द्रस्थली, मथुरा नगरी की छटा अनुपम हो उठी। नर-नारियों का इतना विशाल सागर लहराया कि इसकी चमक एवं रमणीयता से नगर की गली-गली और सड़क-सड़क पर जीवन मुस्करा उठा।
“मथुरा निवासी अनेक वृद्ध महानुभावों की स्मृति में कभी भी इतना विशाल आयोजन नहीं हुआ।”
स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों ने इस महोत्सव को “एक ऐतिहासिक घटना” घोषित किया। 25 नवंबर के “दैनिक अमर उजाला” के अनुसार मथुरा में इससे पूर्व इतना बृहद् आयोजन नहीं सुना, गुरुदेव द्वारा रचित “सैनिक” में इस यज्ञ की छटा इस तरह प्रकाशित हुई: “यह महायज्ञ इस युग की महान घटना है। निस्सन्देह, बिना किसी अतिशयोक्ति के यह कहा जा सकता है कि यह समारोह अभूतपूर्व ही रहा।” 28 नवंबर को “नवभारत टाइम्स” में यह संदेश प्रकाशित हुआ: “ऐसा विचित्र एवं विराट समारोह मथुरा नगरी में आज से पहले, वर्तमान लोगों की स्मृति में कभी नहीं हुआ”
वास्तव में, पिछले एक वर्ष से ही हजारों कार्यकर्ता महायज्ञ की तैयारी में व्यस्त थे। देश विदेश में जप, हवन, एवं मन्त्र लेखन के मौन-यज्ञ स्थान-स्थान पर हो रहे थे। कौन जाने,इस बीच कितने करोड़ मन्त्र लिखे गये? गायत्री मंत्र के कितने ही अरब पाठ हुए होंगे, कितने ही मौन तपस्वियों ने वनों में, गिरि कन्दराओं में उद्यानों में, मन्दिरों में, घरों में और अपने घरों के किसी शान्त-नीरव से कोनों में अपनी साधना पूर्ण की होगी। इस महायज्ञ के “होता एवं यजमान” का गौरवपद प्राप्त करने के लिए सवा लाख जप और 52 उपवास करने की मूक-तपस्या कितने ही महान आत्माओं ने की। अकेले गायत्री तपोभूमि में ही हजारों व्यक्ति समय निकाल कर आते रहे, ऐसे व्यक्तियों ने भी अपनी तपस्या पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
यह सभी प्रयत्न वर्तमान महायज्ञ की आधारशिला थे। ऐसे ही छोटे/बड़े सभी पावन प्रयासों पर महायज्ञ की सफलता टिकी हुई थी।
आदिशक्ति मां गायत्री की प्रेरणा से “मानवों का,मानव द्वारा,मानव के लिये” किए गए इस महायज्ञ के लिए आदि से अन्त तक सभी प्रयास अविस्मरणीय रहे। कई माह पहिले से ही सैंकड़ों तपस्वी, श्रमदान करके यज्ञस्थली का निर्माण करने में लगे थे। 1024 सुन्दर यज्ञकुण्डों का निर्माण करना, कई मील तक वन्य भूमि को साफ सुथरा करके,नवीन नगरों के लिये स्थान बनाना, और लाखों आगन्तुकों के निवास के लिये तम्बू डेरा जमाना जैसे विशाल कार्यों का अनुमान करना ही कठिन है, लेकिन श्रमदान ने इस “कठिन” कार्य को आसान बनाकर किसी अदृश्य शक्ति का बोध करा दिया।
आठ नवीन नगरों: 1) नारद नगर, 2) व्यास नगर, 3) विश्वामित्र नगर, 4) दधीचि नगर, 5) वशिष्ठ नगर, 6) पातंजलि नगर, 7) याज्ञवलक्य नगर और 8) भारद्वाज नगर, के रूप में श्रमदान का वास्तविक स्वरूप मुस्करा उठा ।
मथुरा से वृन्दावन की सीमा तक तीन मील लम्बे इन नगरों में, जब विद्युत शिखाएं जगमगा उठीं तो ऐसा प्रतीत होता था मानो इस महायज्ञ की छटा बढ़ाने स्वयं तारागण, आकाश से उतर आये हों
ब्रज की इसी पावन रंगस्थली पर किसी शरद् की मधुर रात्रि में, योगेश्वर भगवान कृष्ण ने महारास रचाया था। उस समय भी ब्रज की धरती इसी तरह जगमगा उठी होगी। आज भी लाखों तपधारियों के पदार्पण से यह पुनीत धरती प्राणवान हो उठी। गायत्री परिवार के अधिकतर सदस्यगण जब 20 नवम्बर की रात्रि को एकत्रित हुए तो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे समुद्र मन्थन करके धरती मां के गर्भ में से निकले मणियों को किसी एक ही स्थान पर एकत्रित कर दिया गया हो। आत्मीयता, स्नेह एवं मधुरतम भावनाओं से वातावरण सुरभित हो उठा।
सब जानते हैं कि श्री यमुना जी मथुरा नगरी की माला हैं किन्तु 22 नवम्बर को तपस्वियों की अपरिमित लंबी प्रभात फेरी से इस नगरी का अभिषेक हुआ जो वेदमाता गायत्री का जय-जयकार करती हुई, नगर की प्रमुख सड़कों पर रत्नमाला की भाँति शोभायमान थी एवं उसी दिन प्रातः हजारों महिलायें सिर पर मंगल कलश रखकर, यमुना जल लेकर, स्वामी घाट से यज्ञ नगर तक मंगलगान करती हुई निकलीं । साक्षात् कला एवं संस्कृति को साकार करता यह दृश्य नगर के इतिहास में बेजोड़ माना गया।
वैदिक विवाहों की परम्परा का रूप ऐसा निखरा हुआ दिखा कि इसके प्रकाश में सभी की आँखें चुंधिया गईं। तपोभूमि के पावन यज्ञ मंडप में देवोत्थान एकादशी की गोधूलि वेला में दहेज जैसे आधुनिक अभिशापों से रहित पाणिग्रहण संस्कार हुए। पाणि ग्रहण संस्कार (पाणि अर्थात हाथ) हिंदू विवाह का एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जिसमें वर और वधू एक-दूसरे का हाथ पकड़ते हैं, यह एक प्रतीक है कि वे एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारी और दायित्वों को स्वीकार करते हैं। यह संस्कार विवाह के दौरान किए जाने वाले मुख्य अनुष्ठानों में से एक है।
“यदि इस प्रयास को साँस्कृतिक पुनरुत्थान (Cultural revival) के प्रथम सोपान का आरंभ कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी।”
23 नवंबर की प्रातः को मथुरा नगरी के ही नहीं बल्कि समस्त संसार के सुहावने प्रभात ने योगीराज भगवान कृष्ण की गोचर भूमि में असंख्य तपोनिष्ठ व्यक्तियों द्वारा वेद मन्त्रों का उच्चारण सुना । मथुरा वृन्दावन मार्ग पर जाने वाले जनसमूह का कोई अनुमान लगाना मानवशक्ति से परे था। “गायत्री माता की जय हो, विश्व का कल्याण हो” आदि जयघोषों से सारा आकाश-मंडल गूँज उठा था। गायत्री तपोभूमि पर जन समुदाय की श्रद्धा का रूप गोस्वामी तुलसीदास के केवट तथा निषादराज की याद दिलाता था। गायत्री महायज्ञ की मुख्य यज्ञवेदिका का संचालन करते हुए श्रद्धेय आचार्य जी साक्षात वशिष्ठ जैसे प्रतीत हो रहे थे जो असंख्य दशरथों की पुत्रोत्पत्ति की कामना के समान अपने श्रद्धालु परिवार की शुभेच्छा कर रहे थे। कितना विशाल व्यक्तित्व था, कितने महान संकल्प का श्रीगणेश था जो “इदं गायत्री इदं नमम” की शुभकामना के साथ शुरू हुआ।
दोपहर में भोजन की व्यवस्था का रूप देखते ही बनता था, ऐसा प्रतीत होता था मानो पुरातन आर्य कौटुम्बिक पद्धति साक्षात अपने विराट रूप में उतरी हो। पूर्णतया शुद्ध एवं संयमित भोजन को ग्रहण करने के लिये जब सहस्रों पारिवारजन बैठते थे तो उसी प्रकार सुख होता था जैसे भगवान के बड़े नयनों को देखकर होता है। दाल, चावल, रोटी, शाक, उबला हुआ चना एवं हलवे का सम्मिश्रण, शुद्ध, सात्विकता एवं शक्ति का महान योग था।
24 नवंबर की सुबह ने उस प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना का स्मरण करा दिया जब गुरु गोविन्द सिंह जी ने महान खालसा पंथ के लिये पांच आत्मदानी माँगे थे। आदरणीय आचार्य जी के आह्वान पर चार पारिवारिक वीरों ने “स्वयं को दान” कर दिया। क्या यह वही रूप नहीं हैं जो आज एक करोड़ सिख परिजन आपके सामने महान सिख सम्प्रदाय बनाए हुए हैं। निस्संदेह श्रद्धेय आचार्य जी का मिशन सफल होगा। यह महान त्यागी जिन्होंने व्यक्तिगत विषम परिस्थितियों के बावजूद महान संकल्प लिया है अवश्य ही प्रकाश स्तंभों के समान ज्योतिर्मय होंगे।
25 नवंबर को यज्ञ वेदिका पर जब उपाध्यायों का दीक्षान्त समारोह हुआ तब साक्षात प्राचीन गुरुकुल का रूप दैदीप्यमान हो उठा। “हम दृढ़ संकल्प होकर प्रतिज्ञा करते हैं कि सामाजिक कुरीतियों को नष्ट करके एक नवीन युग का निर्माण करेंगे” की प्रतिज्ञा निःसन्देह महान थी।
अन्त में महान ऐतिहासिक दिवस 26 नवम्बर आ पहुँचा, जब जनसमुदाय महान सागर के समान प्रधान यज्ञ वेदिका की ओर उमड़ पड़ा। मथुरा के प्रमुख केन्द्र चौक बाजार से लेकर यज्ञ मण्डप एवं विश्वामित्र नगर तक एक इंच स्थान भी खाली दिखाई नहीं पड़ता था। राजा,साहूकारों से लेकर मजदूर तथा किसानों तक की एक ही भावना थी कि इस प्रकार का पुण्य आयोजन कभी नहीं मिल सकता। विशाल यज्ञ वेदी पर यज्ञ करने वालों की संख्या हजारों में थी। अनुमानतः दो लाख व्यक्तियों का जन समुदाय इस आयोजन में भाग ले रहा था।
इस एक समारोह में नाना प्रकार के अनेक उत्सव आयोजित किये गये। मथुरा के विद्वान पंडितों का एक पंडित-सम्मेलन हुआ। ब्रज की रासलीला दिखाई गई। संध्या को शोभायात्रा निकली। आचार्य जी पैदल ही अनेक विद्वानों एवं तपस्वियों के साथ थे। माता जी और उनकी शिष्याओं का समूह भी इस शोभायात्रा का एक प्रमुख अंग था। स्थान-स्थान पर पुष्प वर्षा हुई तथा आचार्य जी की आरती की गई।
अन्त में, शान्तिपाठ के साथ, यह प्रोग्राम समाप्त हुआ और 26 नवंबर की रात्रि के पश्चात् लाखों नर-नारियों का प्रवाह धीरे धीरे नगर से बाहर की ओर होने लगा।
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कल प्रस्तुत किये गए ज्ञानप्रसाद को 439 कमैंट्स प्राप्त हुए एवं 9 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सभी का धन्यवाद् करते विशेषकर अरुण जी का जो ऑफिस में व्यस्तता में से समय निकाल कर समयदान कर रहे हैं एवं सरविन्द जी का जो इतनी गर्मी में धान की कटाई में से समय निकाल रहे हैं। बहुत ही प्रेरणादायक है।