वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वर्ष 1958 का दिव्य सहस्र कुंडीय यज्ञ-पार्ट 10 

आज का दिव्य आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख आरम्भ करने से पहले अपने समर्पित साथिओं से क्षमाप्रार्थी हैं कि कल वाले लेख की शब्दावली  कुछ एक साथिओं को लेख शृंखला के समापन का आभास दे गयी। एक बार पहले भी ऐसी स्थिति आ चुकी है। इसलिए उचित रहेगा कि जिस दिव्य भावना से यह उत्कृष्ट लेख श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है एवं इसके विषय को देखते हुए किसी प्रकार का कोई भी भ्रम  न रहे,उसके लिए निम्लिखित पंक्तियों को समझना बड़ा ही महत्वपूर्ण रहेगा, कहीं ऐसा न हो जाए कि अधिक ज्ञानार्जन की दौड़ में हम कुछ मिस ही कर जाएँ एवं शब्द by शब्द पढ़ना उचित रहेगा। 

परम पूज्य गुरुदेव के ही शब्दों को quote करते समझा जा सकता है कि कुण्डों की संख्या हमारे यज्ञों की महानता की कसौटी नहीं है। यज्ञ चाहे थोड़े ही कुण्डों का हो लेकिन उसके द्वारा जितने अधिक उपासक, उपाध्याय बनेंगे वह उतना ही महत्वपूर्ण एवं महान समझा जायेगा : 

40 पन्नों के “महायज्ञ विशेषांक” अखंड ज्योति पत्रिका का प्रकाशन दिसंबर 1958 में हुआ था। गुरुदेव इस अंक के संपादक तो थे ही लेकिन उन्होंने कुछ महान विभूतियों से सारे के सारे चैप्टर लिखवाये थे जिनके नाम नीचे दे रहे हैं :    

1.श्री सत्यनारायण सिंह, 2.श्री शंभूसिंह जी, 3.श्री सत्य प्रकाश शर्मा, 4.डॉ. चमनलाल, 5.श्री सीतारामजी राठी,बोरीवली,मुंबई, 6.श्री रामनारायण अग्रवाल, 7.श्री मार्कंडेय ‘ऋषि,’काशी, 8.श्री बालकृष्ण जी, 9.श्री अवधूत, गुप्त मंत्र विद्या विशारद,गोरेगाँव,मुंबई,10.श्री गिरिजा सिंह  जी,11.श्री घनश्याम दासजी,इकौना,12. ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ  

इन 12 विभूतियों में वोह चार आत्मदानी भी शामिल थे जिनके नाम श्री शंभु सिंह जी,श्री बालकृष्ण जी,श्री चमन लाल जी और श्री गिरिजा सिंह जी थे। 

हमारे साथी स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं कि “महायज्ञ विशेषांक” के सभी चैप्टर कितने दिव्य हैं क्योंकि हमें लिखते समय ऐसा आभास हो रहा है  जैसे हमारे अंदर कोई दिव्य प्रकाश का उदय हो रहा  हो। गुरुवर के सानिध्य में पले ऐसे देवपुरुषों ने अवश्य ही उनकी तपशक्ति का कुछ भाग  ग्रहण कर लिया होगा।

Live commentary द्वारा प्रस्तुत की जा रही लेख श्रृंखला जिसमें हमारा परिश्रम एवं प्रयास जुड़ा हुआ है तभी सफल समझा जायेगा जब इसमें कोई भ्रम नहीं रहेगा। 

भ्रम से कोसों दूर रखने के लिए हम कहना चाहेंगें कि आने वाले दिनों में प्रत्येक लेख एक दिन के लिए सुरक्षित कर दिया है अर्थात वह लेख उसी दिन आरम्भ होकर उसी दिन समाप्त हो जायेगा। इस तरह 11 लेखों के बाद ही इस लेख श्रृंखला का समापन होगा। 

सत्यनारयण सिंह जी द्वारा संकलित लेख “महायज्ञ का महा-समारोह” का समापन कल हुआ था, आज प्रस्तुत किया गया लेख श्री शंभूसिंह जी द्वारा संकलित है जो चार आत्मदानियों में से एक थे। 

इसी आशा के साथ कि कोई भी भ्रम नहीं रहेगा, आज के दिव्य आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ विश्वशांति की कामना से करते हैं।

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।

मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई

भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!

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आदरणीय श्री शंभूसिंह जी द्वारा संकलित “हम अब क्या करें?” ज्ञानप्रसाद लेख  

माँ  गायत्री की कृपा से पूज्य आचार्य जी का संकल्पित सहस्रकुँडी महायज्ञ सानन्द पूर्ण हो गया लेकिन यह महायज्ञ साधकों के मनःक्षेत्र में एक विचित्र सी हलचल छोड़ गया है। 1024 कुँडों में उठी यज्ञाग्नि की लहरें उठ-उठ कर यह प्रेरणा दे रही थीं कि यहां आए सभी यज्ञिक भी इसी प्रकार तेजस्वी बनकर ऊंचे उठते रहें। 

हवन अग्नि जल-जल कर पुकार रही थी कि तुम भी जलकर दूसरों को प्रकाश प्रदान करना लेकिन  साधकों का मन फिर भी हलचल में था। वे जानना चाहते थे कि अब हम क्या करें? अन्त में पूज्य आचार्य जी ने अपने दीक्षान्त भाषण में उनकी जिज्ञासा को निम्नलिखित बता कर शान्त किया:

परन्तु फिर भी अनेक लोग यह जानना चाहते थे कि “यज्ञ कैसे करें?” उनको मैं बताना चाहता हूँ कि अब वे इस सम्बन्ध में विशेष चिन्ता और आशंका न करें। गायत्री यज्ञों की यह श्रृंखला देश भर को यज्ञभूमि बनाकर रहेगी और फिर से पुरुष और स्त्री ऋषि उत्पन्न करेगी।

यज्ञकर्ता शाखाओं को 2-3 मास पूर्व ही निमंत्रण पत्र छपाकर जनता में बाँट देना चाहिये और घर-घर जाकर यह प्रार्थना करनी चाहिये कि

1) आप इस यज्ञ के याज्ञिक बनने के लिये 24000 जप गायत्री मंत्र का करने का संकल्प लें, चालीसा पाठ यां मंत्र लेखन करें।

2) माताएँ और बहिनें घर-घर जाकर कलश यात्रा के लिये ऐसी महिलाओं को तैयार करें जो यज्ञ तक नित्य स्नान करके 1 माला गायत्री जप, गायत्री चालीसा पाठ या 11 मंत्र लिखने का व्रत लें। इस प्रकार के भागीदारों की सूची बनाते जावें।

3) यज्ञ तिथि के एक मास पूर्व यज्ञशाला का निर्माण आरम्भ कर दें। सब साधक दिन या रात में किसी भी समय इकट्ठे होकर श्रमदान से इस कार्य को सम्पन्न करें। ग्राम निवासियों से घर-घर जाकर प्रार्थना करें कि वे श्रमदान करने आवें। जिस यज्ञ में जितने अधिक व्यक्तियों ने श्रमदान किया होगा वह उतना ही अधिक सफल समझा जायगा। सम्पन्न व्यक्तियों या बड़े पदाधिकारियों से भी एक पत्थर या एक टोकरी मिट्टी अवश्य डालने की प्रार्थना करके उनको भी इस यज्ञ के पुण्य में सम्मिलित करना चाहिये।

4) जब कुण्ड और यज्ञशाला बन जाएं तो गायत्री-उपासिकाओं को गाँव की समस्त माताओं के पास जाकर उसे लेसने, लीपने, पोतने, रंगने के कार्य में श्रमदान करने की प्रार्थना करनी चाहिये।

5) यज्ञशाला की सजावट स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार श्रम से ही करनी चाहिये।

6) कुछ समय पहले ही यज्ञ के समस्त आवश्यक सामान की सूची तैयार करके जनता से “पैसा नहीं, वस्तुएँ ही माँगें”, तथा जिसका सामान हो उसे ही यज्ञ के अवसर पर अपने साथ लाने की प्रेरणा दें। एक व्यक्ति के पैसे से होने वाला यज्ञ, गायत्री यज्ञ नहीं। इसलिये कोई घर ऐसा न बचना चाहिये जो इस पुण्यकार्य में भाग न ले। इसलिये और कुछ न हो तो घर-घर में फेरी लगाकर उनसे स्वेच्छानुसार थोड़ा बहुत हविष्यान्न (सात्विक अन्न) ही यज्ञ के लिए लेना चाहिये। एक व्यक्ति से अधिक से अधिक लेने की इच्छा न करके अधिक से अधिक व्यक्तियों से थोड़ा-थोड़ा लेकर कार्य सम्पन्न करना विशेष उत्तम है। इससे सब में यज्ञ के प्रति आत्मीयता की भावना की वृद्धि होगी और पारस्परिक समानता के भाव का भी उदय होगा। यज्ञ में समिधा, सामग्री, सजावट जो कुछ भी हो वह पैसे से कम और पसीने से अधिक हो।

7) जहाँ यज्ञ हो वहाँ के स्थानीय व्यक्ति यथासम्भव उसमें भोजन न करें। बाहर से आने वाले उपासकों को ही कच्चा भोजन, साग, सत्तू आदि सात्विक आहार देना चाहिये।

8) पूर्णाहुति का प्रसाद थोड़ा-थोड़ा सभी दर्शकों को बाँटना चाहिये। उसी के साथ चालीसा, चित्र, गायत्री साहित्य का प्रसाद भी जिज्ञासुओं को देना चाहिये।

(9)जो लोग यज्ञिक बनने की परिस्थिति में न हों उन्हें यज्ञशाला की 108 या 24 परिक्रमाएँ लगाने का पुण्य प्राप्त करने की प्रेरणा करनी चाहिये।

कहने का साराँश यही है कि इन यज्ञों का उद्देश्य जनता में गायत्री व यज्ञ के प्रति श्रद्धा व विश्वास उत्पन्न करना तथा इनसे जो उपदेश मिलते हैं उन पर अपने दैनिक जीवन में आचरण करना होना चाहिये । यह उद्देश्य जिस यज्ञ से जितने अधिक अंशों में पूरा होगा वह उतना ही महान समझा जायगा।

यज्ञ चाहे थोड़े ही कुण्डों का हो लेकिन उसके द्वारा जितने अधिक उपासक, उपाध्याय बनेंगे वह उतना ही महत्वपूर्ण एवं महान समझा जायेगा।

इस प्रकार सन् 1959 में प्रत्येक शाखा को यज्ञ की व्यवस्था करनी चाहिये। उसका बाहरी कलेवर चाहे छोटा हो लेकिन  जड़ें मजबूत बना कर अपने क्षेत्र में गायत्री माता व यज्ञ पिता का स्थायी रूप से प्रचार करना चाहिये। 

शंभुसिंह जी का धन्यवाद्, कल श्री सत्यप्रकाश शर्मा जी के  मार्गदर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा।  

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कल वाले लेख को 408 कमैंट्स का सम्मान प्राप्त हुआ एवं 9 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया। सभी का धन्यवाद् एवं बधाई। 


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