28 अप्रैल 2025 का ज्ञानप्रसाद- सोर्स:अखंड ज्योति दिसंबर 1958
आज का ज्ञानप्रसाद, साहित्य-विशारद, आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी द्वारा Compile किये गए दिव्य अंक का समापन अंक है जिसका आँखों देखा हाल, हमने 24 अप्रैल को आरम्भ किया था। साथिओं को स्मरण होगा कि आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी उस समय के कांग्रेस के सक्रीय राजनेता थे एवं अनेकों पदवियों में से उनकी अंतिम पदवी मध्यप्रदेश के गवर्नर की थी।
हमारा सौभाग्य है कि 1958 के सहस्र कुंडीय यज्ञ को ऐसी ही अनेकों विभूतियों ने अपनी दिव्य लेखनी से श्रृंगार प्रदान किया था। आने वाले दिनों में इन्हीं विभूतियों के आँखों देखे हाल प्रस्तुत करने की योजना है। हो सकता है आने वाले लेखों में कोई -कोई बात रिपीट होती दिखे लेकिन इस Repetition से कंटेंट के महत्व में कोई भी कमी नहीं दिखेगी, ऐसा हमारा विश्वास है। इसलिए सभी लेखों को बड़े ही ध्यानपूर्वक शब्द by शब्द पढ़ना ही उचित होगा।
तो आइए विश्वशांति की कामना के साथ आज के दिव्य आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ करें।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!
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कन्या-भोज व जलूस
25 नवंबर की रात्रि को पूज्य आचार्य जी ने अपना अन्तिम भाषण देकर समस्त उपासकों को आगामी कार्यक्रम समझा दिया, क्योंकि 26 को अन्य कार्यक्रमों के कारण प्रवचनों के लिये समय मिल सकना असम्भव था । 26 को पूर्णाहुति का दिवस था और सब होता उसमें भाग लेने की चेष्टा कर रहे थे । इसके लिये कल शाम को ही मथुरा के बाजार में गोला और नारियलों के ढेर लगे थे जिन्हें सभी याज्ञिक खरीद रहे थे । आज प्रातःकाल यज्ञनगर में भी दुकानदारों द्वारा जगह-जगह ढकेलों में भरकर गोला और नारियल जगह-जगह बेचे जा रहे थे, जिससे प्रत्येक याज्ञिक जहाँ कहीं भी हो आवश्यकतानुसार खरीद सके। लगभग 10:00 बजे तक पूर्णाहुति चलती रही। इसके पश्चात् व्रतधारी याज्ञिकों ने आगामी कार्यक्रम को पूरा करने की प्रतिज्ञाएँ कीं । 11 से 2 बजे तक पूर्णाहुति के उपलक्ष्य में कन्या भोजन कराया गया। पूज्य आचार्य जी गत वर्ष से निरन्तर यह प्रचार कर रहे हैं कि आज कल सच्चे सत्पात्र ब्राह्मणों का अभाव सा हो गया है, इसलिये या तो ब्रह्मभोज के स्थान पर “ज्ञानवर्द्धक साहित्य” बाँटा जाय या छोटी कन्याओं को भोजन कराया जाय जिन्हें सभी देवी का स्वरूप मानते हैं। इस कार्य द्वारा आचार्य जी नारी जाति की प्रतिष्ठा भी बढ़ाना चाहते हैं । इस भोज में मथुरा नगर की एवं यज्ञनगर में टिकी हुई कन्याएँ बहुत बड़ी संख्या में आई थीं और उनको दक्षिणा भी दी गई ।
महायज्ञ का अंतिम प्रोग्राम:
महायज्ञ का अन्तिम प्रोग्राम नगर परिक्रमा का महाविशाल जलूस दो बजे के बाद निकलना आरम्भ हुआ और रात के 5-6 बजे वापस आया । जलूस में सबसे आगे कृष्ण, नारद, बाल्मीकि, दयानन्द, बुद्ध, गुरुनानक, राजा हरिश्चन्द्र आदि महान विभूतियों की झांकियाँ बनाकर सजाई गई थीं। उसके बाद एक फ़र्लांग से कुछ अधिक लम्बा महिलाओं का जलूस था। इसके पीछे 10 घोड़ों की सजी हुई मोटर में गायत्री मन्त्र की हस्तलिखित पुस्तकें और गायत्री माता का चित्र आदि सजे हुए चल रहे थे । गायत्री माता के पीछे पूज्य आचार्य जी पैदल चल रहे थे और उनके बाद गायत्री परिवार की सैकड़ों शाखाओं के उपासक झंडे और बोर्ड लिये हुए थे । इस प्रकार दर्शकों की भीड़ से ठसाठस भरे हुए बाजार में 5 मील की परिक्रमा करके जलूस तपोभूमि वापिस आया और महायज्ञ का अंतिम कार्यक्रम स्मरणीय रूप में पूर्ण हुआ ।
विरोध का निरर्थक प्रयास:
जहाँ एक ओर भक्ति और श्रद्धा का यह अद्भुत प्रवाह बह रहा था वहीँ कुछ लोग निरर्थक विरोध करने में अपनी शक्ति और साधनों का अपव्यय कर रहे थे । उन लोगों ने दो-तीन परचे निकाल कर गायत्री-यज्ञ के होताओं को यह समझाना चाहा कि जोर-जोर से गायत्री मंत्र का उच्चारण करना, हवन कुंडों पर स्त्रियों को बैठाना आदि कार्य शास्त्र विरुद्ध हैं, इसलिये इस आयोजन में भाग नहीं लेना चाहिये लेकिन ये परचे बहुत थोड़े लोगों के हाथों तक ही पहुँच पाए और शायद ही किसी याज्ञिक ने इनके कारण यज्ञकार्य स्थगित किया हो । गायत्री परिवार के सदस्य अपने कार्यक्रम पर तथा पूज्य आचार्य जी पर अटूट विश्वास रखने वाले थे, उन्होंने तो इस प्रकार के आक्षेपों को सुनने से भी इंकार कर दिया। अन्य लोग भी इनको ईर्षा/भ्रम में पड़े हुए लोगों का कार्य समझ कर उपेक्षा की दृष्टि से देखते रहे । पूज्य आचार्य जी ने स्वयं इस सम्बन्ध में अपने अनुयायिओं को संयत और शान्त रहने का उपदेश देते हुए कहा:
“असुरता में लोहा लेना हँसी-खेल नहीं है। यह मार्ग काफी कठिनाइयों का है। प्राचीनकाल में इस मार्ग पर चलने वाले ऋषियों को असुरता के बड़े-बड़े प्रहार सहने पड़े थे। आज भी उसी कुचक्र की पुनरावृत्ति होना स्वाभाविक है।”
आगे क्या कार्य किस प्रकार करना है, जहाँ इस बात की शिक्षा आगंतुक व्रतधारी सज्जनों को दी जा रही है वहाँ यह भी सिखाया जा रहा है कि हम सबको आगे क्या-क्या सहन करना होगा। असुरता अवश्य ही अपने मार्ग में जितना उससे बन पड़ेगा उतना विघ्न तो अवश्य ही उत्पन्न करेगी ।
असुरता ने मथुरा की तरह सभी धर्म व्यवसाईओं के मन में यह बात घुसा दी है कि यह महान आन्दोलन उनकी आजीविका को छीन लेगा, जबकि वास्तविकता इससे कोसों दूर है। धर्मकार्यों के, धर्म प्रवृत्तियों के बढ़ने से धर्म-व्यवसायियों की भी आजिविका बढ़ेगी ही लेकिन जिस प्रकार रामराज्य में और अधिक सुखी होने की बात मंथरा के गले नहीं उतरती थी उसी प्रकार यह लोग भी इसमें अपनी हानि ही हानि सोचते हैं और जिस प्रकार आज के युग में अपने प्रतिपक्षी को हर हथियार से परास्त करने की आम प्रथा है उसी प्रकार इनके हथियार भी चलते हैं। इस महायज्ञ तथा इसके भागीदारों पर ऐसे-ऐसे मनगढंत आरोप लगाये जा रहे हैं जिनका कोई आधार ही नहीं है । हम सबके लिए यह विरोध हँसी में टाल देने ही योग्य है क्योंकि इसमें घोर असत्य प्रोपेगण्डा के अतिरिक्त सत्य का एक भी कण नहीं है। गायत्री परिवार का हर कार्यक्रम पूर्ण सुनिश्चित नीति एव व्यवस्था के आधार पर आधारित है। इस विरोध प्रचार में एक ही बात ध्यान देने योग्य है कि गायत्री परिवार की अन्य शाखाओं को भी अपने-अपने क्षेत्र में ऐसे ही असत्य प्रचार का सामना करना पड़ता रहा है और आगे भी करना पड़ेगा। इसका सामना केवल विवेक और समझ द्वारा ही हो सकता है। हर शाखा को अपने-अपने क्षेत्र में ऐसे ही बुद्धि-सम्पन्न साथी ढूँढ़ने चाहिए जो अपनी गिरह की अक्ल रखते हों, यदि अपने साथ ऐसे व्यक्ति न होंगे तो बुद्धि से रहित अंधी भेड़ें किसी के भी बहकावे में आकर पूँछ उठाकर भाग खड़ी होंगी। हमें अपने युगनिर्माण कार्य में विवेकशील लोगों की संख्या ही प्रधानतया साथ में रखनी चाहिए जैसी कि मथुरा यज्ञ में है, जिस पर किसी असत्य प्रोपेगण्डा करने वाले का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। गायत्री परिवार के परिजन इन असत्य-जीवी लोगों की वास्तविकता को भली प्रकार जानते हैं और हर आक्षेप करने वाले का मुंह तोड़ उत्तर देने की समर्था रखते हैं। हर शाखा अपने कार्यकर्ताओं में ऐसे ही सुदृढ़ साथी अधिकाधिक संख्या में उत्पन्न करे। यह दृढ़-संकल्पित साथी ही अपने मजबूत हाथों और चौड़े कन्धों से धर्म की नाव को पार लगाने में समर्थ होंगे ।
दर्शकों की अपार भीड़ और मेला:
इस विराट आयोजन का एक पहलू जनता का एक मेले के रूप में यज्ञ के प्रति अभूतपूर्व आकर्षण था। महायज्ञ के दिनों में होली द्वार और विश्रामघाट से लेकर प्रेम महाविद्यालय तक सदैव ऐसी भीड़भाड़ बनी रहती थी कि उसमें कोई व्यक्ति तेजी से चल भी नहीं सकता था और रिकशों तथा ताँगों को प्रायः बड़ी धीमी चाल से चलना पड़ता था। शहर के नर-नारी नित्य प्रति हज़ारों की संख्या में यज्ञ के दर्शन करने, मेला देखने आते थे और इधर बाहर से आये हुए अगुन्तक मथुरा के मन्दिरों तथा घाटों की झाँकी करने तथा सामान खरीदने शहर पहुँचते। आने-जाने का सबसे अधिक लाभ ताँगे, इक्के और रिक्शे वालों ने उठाया। उन्होंने प्रतिदिन दस से बीस पच्चीस रुपये रोज तक की आमदनी की।
इस अवसर पर एकाएक ठंड के अधिक बढ़ जाने से यज्ञनगर में कदम-कदम पर चाय की दुकानें खुल गई थीं और उनमें सुबह से रात के दस बजे तक ग्राहक डटे रहते थे। चाय की दुकानों के इलावा खानेपीने की अन्य चीजों की भी सैकड़ों दुकानें थी । गंगा स्नान या माघ मेला जैसे बड़े मेलों के सभी दृश्य भी यहाँ पर दिखाई पड़ते थे।अनेक भिखारियों ने लक्ष्मीनारायण, राधाकृष्ण या कालीदेवी की मूर्तियाँ रखकर मांगना शुरू कर दिया था। पाँच पैर की गौ को दिखा कर जोगी पैसा मांग रहे थे। कई जगह योगी लोग शीर्षासन आदि दिखाकर भेंट चढ़ाने को कह रहे थे। एक जगह तो एक नागा साधुनि सारे वस्त्र त्याग करके बैठ गई थी। बीड़ी और सिगरेट वाले तो हर जगह पहुँचते हैं। वे लाउड स्पीकर लगा कर अपना प्रचार कर रहे थे और विज्ञापन लगा रहे थे। साधु सन्त तो कई जगह धूनी रमाये बैठे थे। एक महात्मा जी बबूल (देसी कीकर) के कांटे बिछा कर उनके ऊपर सो गये और उनके साथी भीख इकट्ठी करने लगे। एक जगह एक लड़के ने बाल्टी में पानी भर के “एक लगावे दो पावे” की आवाज लगाकर एक-एक पैसे का जुए का खेल भी शुरू कर दिया। इस तरह मेलों में जो भली-बुरीं बातें प्रायः देखने में आती हैं वे सभी इसमें दिखाई पड़ती थीं और सार्वजनिक सड़क होने के कारण किसी को रोका भी नहीं जा सकता था ।
महायज्ञ की सफलता:
इसमें सन्देह नहीं कि यह आयोजन अपने ढंग का एक ही था और इसकी तरफ जो इतनी अधिक जनता आकर्षित होकर आई उसमें कोई आश्चर्य अथवा अस्वाभाविक बात नहीं थी। इस समय जीवन निर्वाह की कठिन परिस्थितियों ने लोगों में निराशा का भाव उत्पन्न कर दिया है। लोगों का ध्यान धर्म की ओर जा रहा है, पुराने धर्मोपदेशकों अथवा धर्मगुरुओं ने अपने आचरणों और समय के विरुद्ध रूढ़ियों का पल्ला पकड़े रहने से जनता का विश्वास और श्रद्धा को खो दिया है। इस कारण अब स्वभावतः लोग “दूसरी तरह के धर्म प्रचारकों और गुरुओं” को ढूंढ़ रहे हैं जो उनके जीवन की समस्याओं और अभावों को सुलझाने में वास्तविक सहायक सिद्ध हो सके।
गायत्री परिवार और उसके संयोजक पूज्य आचार्य श्रीराम शर्मा जी के रूप में उनको एक ऐसा ही आश्रय स्थल दिखाई पड़ा है। यही कारण है कि चार-पाँच वर्ष के भीतर ही इस संस्था ने बड़े नगरों से लेकर छोटे-छोटे गांवों के निवासियों के मध्य एक विशेष स्थान बना लिया है और वे उस पर पूर्ण विश्वास रखकर,उनकी शिक्षाओं का पालन करने लगे हैं। तभी तो उनकी प्रेरणा से विचार-विनियम के लिये इतने व्यक्ति दूर-दूर से चलकर मथुरा में एकत्रित हुए और अद्भुत अनुशासन में रहकर आगामी कार्यक्रम के सम्बन्ध में सूचनायें प्राप्त करके अपने स्थानों को चले गये ।
आने वाले दिनों में जब भी गायत्री परिजन अपने यहाँ भी ऐसे यज्ञ रचकर उन सूचनाओं को कार्यरूप परिणित करेंगे तो देश में एक नया ही वातावरण उत्पन्न होता दिखाई पड़ेगा ।
इन अंतिम पंक्तियों को लिखते समय हमें OGGP के नवीनतम प्रयास (अरुण जी और सरविन्द जी) का उदाहरण देना उचित लगा है।
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शनिवार के विशेष विशेषांक को 449 कमेंट मिले एवं 10 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सभी को बधाई एवं धन्यवाद्।
