वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वर्ष 1958 का दिव्य सहस्र कुंडीय यज्ञ-पार्ट 8

कहते हैं दिल से दिल को राह होती है-कमैंट्स के माध्यम से अपने साथिओं 

की भावनाओं का परम सत्कार करते हुए कल प्रकाशित होने वाली वीडियो में हम मुंबई अश्वमेध की यज्ञस्थली में उपस्थित होंगें। बहिन सुमनलता जी ने हमारे लिए कमेंटेटर  शब्द का प्रयोग करके हमें और भी सतर्क कर दिया है कि हम महायज्ञ का सीधा प्रसारण कर पाएं। 

आज हम यज्ञशाला के अंदर बैठ कर परम पूज्य गुरुदेव समेत महान विभूतियों से ऐसी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं जिसे केवल सुनने से काम नहीं चलने वाला, गांठ बाँध कर, दृढ संकल्प लेकर समाज में योगदान देने का आग्रह है। 

शिक्षा के साथ-साथ, साहित्य-विशारद आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी ने उन चार आत्मदानियों के चित्र भी संलग्न कर दिए ताकि कोई भी पाठक इनसे प्रेरणा लिए बिना न रह जाए । 

तो साथिओ शब्द सीमा की ज़ंजीरें सीधा गुरुचरणों में एवं अन्य विभूतिओं के श्रीचरणों में नतमस्तक होने का सन्देश दे रही हैं। 

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23 नवंबर को तड़के ही पूज्य आचार्य जी ने सहस्रों याज्ञिकों के साथ पहुंचकर प्रथम दिन की कार्यवाही आरम्भ कर दी । यज्ञशाला के मुख्य प्रबंधक श्रीराम कुमार, श्री रामलाल आदि ने 1024  कुण्डों पर समस्त यज्ञीय उपकरणों, सामग्री, समिधा आदि की व्यवस्था पहले से ही ठीक कर रखी थी सूर्योदय से पूर्व ही याज्ञिकों की प्रथम टोली जिसमें लगभग 3000 से कुछ अधिक यज्ञिक होंगे, यज्ञकुण्डों के चारों ओर बैठ गई । 

उत्तर प्रदेशीय हिन्दू महासभा के प्रधान तथा संसद सदस्य श्री विशन चन्द सेठ ने महायज्ञ का उद्घाटन करते हुए कहा:

गायत्री परिवार के कुलपिता  और यज्ञ के संयोजक आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने प्रवचन में यज्ञ में भाग ले रहे परिजनों को उनके कर्तव्य की ओर प्रेरित किया और कहा:

यज्ञ के ब्रह्मा DAV कालेज, कानपुर के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष पंडित हरिदत्त जी शर्मा ने  यज्ञ आरम्भ करने का आदेश देते हुए कहा: 

आगे चलकर पंडित हरिदत्त जी ने कहा कि “गायत्री का मंदिर ब्रजभूमि में ही क्यों स्थापित किया गया और यह गायत्री यज्ञ जमुना जी के किनारे करने का क्या महत्व है ।

यह भी एक ध्यान देने योग्य विषय है। इस सम्बन्ध में गायत्री परिवार के पूज्य आचार्य पंडित  श्रीराम शर्मा जी  ने एक विशेष निम्नलिखित व्याख्या की है:

इस दृष्टि से मथुरा-वृन्दावन के बीच जमुना तट पर यज्ञशाला निर्माण करके महायज्ञ करना सब प्रकार से उपयुक्त और कल्याणकारी है इसमें सन्देह नहीं ।

महायज्ञ में प्रतिदिन दोपहर 2 से 5 बजे तक तथा सांय में 7 से 10 बजे  तक प्रवचनों की व्यवस्था की गई थी। प्रवचन-पंडाल इतना बड़ा बनाया गया था कि उसमें 40-50 हजार व्यक्ति आसानी से बैठ सकते थे। जगह-जगह लाउडस्पीकर लगाये गये थे जिससे प्रत्येक भाषण पंडाल के बाहर भी स्पष्ट सुनाई देता था । भापण कर्ताओं में श्री बिहारी लाल जी शास्त्री, श्री भूदत्त ब्रह्मचारी, श्री आनन्द भिक्षु, श्री पूर्णचन्द जी एडवोकेट आदि अनेक विद्वान थे । ब्रह्मचारियों द्वारा सस्वर वेद पाठ भी बड़ी उत्तम रीति से किया गया। पूज्य आचार्य जी का प्रवचन प्रतिदिन होता था और वे प्रायः आगामी कार्यक्रम तथा अन्य काम की बातें बताते रहे। 

प्रथम दिन उन्होंने विशेष रूप से “यज्ञ की व्यवस्था” पर प्रकाश डाला और कहा कि हमारे अनुमान से कहीं अधिक जनसमूह इकट्ठा हो जाने से व्यवस्था में व्यतिक्रम हो गया है जिससे अनेक व्यक्तियों को असुविधा सहन करनी पड़ रही है, हम हर सम्भव उपाय से, व्यय का ख्याल न करते हुए अधिक से अधिक प्रयत्न करेंगे कि किसी की उपेक्षा न हो ।

दूसरे दिन के भाषण में आपने कहा कि “कुछ स्थापित लोग यह ख्याल करते हैं कि हमने पैर पुजाने और धन कमाने का यह ढंग निकाल लिया है, हम ऐसे व्यक्तियों को कोई दोष नहीं देते क्योंकि यहाँ तो रोज यही धन्धे होते रहते हैं। हमारे गायत्री परिवार के सब सदस्य सारी परिस्थिति को भली प्रकार समझते हैं। हमारा उद्देश्य केवल दक्षिणा लेकर मुक्ति का टिकिट काटना या धन, संतान आदि दिलाना नहीं है। हमारा लक्ष्य सदा से इस देश के नैतिक स्टैण्डर्ड को ऊँचा रखना रहा है । उसी के आधार पर हम प्राचीनकाल में और अब भी शीश ऊंचा उठाने में समर्थ हो सकते हैं। राजा हरिश्चन्द्र और दधीचि जैसे दानी संसार में और कहाँ पैदा हुए हैं ? गाँधी, दयानन्द आदि जैसे मानव रत्न केवल यही भूमि पैदा कर सकी है जिनकी ओर समस्त दुनिया देखती रही है और अब भी यही आशा कर रही है कि इस संकटपूर्ण अवस्था में भारतवर्ष से ही प्रकाश आयेगा क्योंकि सूर्योदय तो पूर्व से ही होता है। 

गायत्री-आन्दोलन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये चलाया गया है। हमको नैतिक, सामाजिक और मानसिक क्रांति करनी है ! हम देश का चरित्रिक  स्तर ऊंचा करना चाहते हैं। भोग, विलास में ही पड़े रहने वाले व्यक्ति भारतीय संस्कृति के लिये शोभनीय नहीं माने जा सकते । हमको तो देश में ऋषियों की यज्ञीय परम्परा को पुनर्जीवित करना है। जब मैं यह कहता हूँ तो मेरी दृष्टि गायत्री परिवार के एक-एक सदस्य पर रहती है । आज चारों तरफ जो भ्रष्टाचार, अनैतिकता  फैली हुई है, उसकी छाती पर मार्च करने को गायत्री परिवार की समर्पित सेना तैयार बैठी है। अभी परसों ही तपोभूमि में एक विवाह संपन्न किया गया है जिसमें दहेज की प्रथा को चकनाचूर कर दिया गया।  अभी हमें ऐसी अनेकों  कुरीतियों को दूर करना है। उदाहरण के लिये मृत्युभोज की कलंकपूर्ण प्रथा को देखिये, किसी के घर में तो निर्वाह करने वाले व्यक्ति के मर जाने से शोक और अन्धकार छाया है लेकिन  दूसरी ओर जाति वाले खीर, मालपुआ, मिठाई खाने को तैयार बैठे हैं। ऐसे लोगों को राक्षस कहा जाय तो इसमें क्या अनुचित है ? ऐसी कुरीतियों ने हिन्दू समाज को खोखला कर दिया है। मृत्यु के समय दावते करना बन्द होना चाहिए। 

हमने अपने कार्यक्रम और प्रचार कार्य के लिए कभी किसी से चन्दा नहीं मांगा, न हमारे एजेन्ट कहीं चन्दा की रसीद बुकें लेकर घूमा करते हैं। इस समय भी यज्ञ में जनसंख्या इतनी अधिक बढ़ जाने पर हमने चिन्ता नहीं की।  कितने ही मित्र सलाह देने लगे कि अब तो सहायता माँगना उचित और आवश्यक ही है लेकिन हम आपसे पैसा जैसी छोटी चीज नहीं माँगना चाहते । हमें तो आपसे कोई बढ़िया चीज माँगनी है जिसे पाकर हम भी संतुष्ट हों और आपको भी प्रतीत हो कि वास्तव में हमको कुछ देना पड़ा। हम आपसे इस पुनरुत्थान के कार्य में “सहयोग” की, कदम से कदम मिलाकर चलने की माँग करते हैं। जैसे सरकार की पंचवर्षीय  योजना में बिजली, बाँध, पुल आदि के निर्माण की बातें हैं, वैसे ही हमको नैतिकता, चरित्र-निर्माण, भ्रष्टाचार निवारण के लिये बहुत बड़ी योजना तैयार करके काम करना है । इसको सिद्ध करने के लिये  जीवित मनुष्यों द्वारा निजी स्वार्थ, अपनेपन के बलिदान की आवश्यकता है। लोग शंका  करते हैं लेकिन अब काम आरम्भ कर दिया गया है, 

आज ही चार व्यक्तियों ने आत्म-बलिदान किया है। अगर हमारा काम केवल लेख और भाषणों तक सीमित होता तो कोई बड़ा काम न हो पाता । हमारा कार्य तप और त्याग के आधार पर चल रहा है और चलेगा । हमें  काम करने वाले ऐसे ही सहयोगी चाहिये । ये चारों व्यक्ति अपनी वर्तमान नौकरियों को छोड़कर और अपनी समस्त सम्पत्ति इकट्ठी करके कोई छोटा रोजगार आरम्भ करेंगे। इनमें से एक उस कारोबार  का संचालन करके सबके कुटुम्बों का पालन करेगा और शेष तीन निःस्वार्थ भाव से प्रचार कार्य में लगेंगे । इनके घर वाले इनके इस निश्चय पर खेद कर रहे हैं लेकिन  बिना इस प्रकार की कुर्बानी  के हम आगे नहीं बढ़ सकते । इसीलिये यह त्याग और बलिदान की परम्परा जारी की जा रही है। हिन्दू धर्मं में तो प्राचीनकाल से वानप्रस्थ आश्रम की परम्परा प्रचलित थी कि जब लड़का बड़ा हो जाय तो उसे घर का भार सौंप कर स्वयं समाज सेवा में लग जाते थे । अगर हम इस ढंग से प्रचार करेंगे तो इस परिवार की 2000 शाखाओं से 10000 और सदस्यों को एक करोड़ तक पहुंचा सकते हैं। 

आज के  ज्ञानप्रसाद का समापन यहीं पर होता है, सोमवार को यहीं से आगे चलेंगें। 

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कल वाले लेख को 338 कमेंट मिले,9 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, सभी को हमारा धन्यवाद् एवं बधाई। 


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