वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वर्ष 1958 का दिव्य सहस्र कुंडीय यज्ञ-पार्ट 7

हमारा परम सौभाग्य है कि गुरुकृपा से 1958 के उस  महान सहस्र कुंडीय यज्ञ के बारे में इतनी बारीकी से जानने का अवसर मिल रहा है कि क्या कहा जाए। वर्तमान लेख श्रृंखला में जो कंटेंट (कलश यात्रा, यात्रिओं का उत्साह, यज्ञशाला आदि)  प्रस्तुत किया जा रहा है देखने को तो बहुत ही साधारण सा प्रतीत हो रहा है लेकिन इसकी दिव्यता हमारे गुरुदेव से जुड़ी हुई दिख रही है। जिन साथिओं को परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य दर्शन का सौभाग्य न प्राप्त हो सका उनके लिए हम एक आँखों देखे हाल की भांति प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। 

बहुत ही प्रसन्नता की बात है कि सात दशक पूर्व स्थापित किये गए मापदंडों की पालना आज भी उसी प्रकार हो रही है, उसी तरह श्रमदान हो रहा है, कलश यात्रा चल रही है, यज्ञशाला का निर्माण होता है। 

हम बहुत ही कम शब्दों में थोड़ा-थोड़ा करके साथिओं के ह्रदय में उतारने का प्रयास कर रहे हैं।आज के लेख में उस समय के कुछ ब्लैक आने वाइट धुँधले से चित्र भी शामिल किये हैं जिन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि हम कहाँ से कहाँ पंहुच गए हैं। 

https://www.facebook.com/reel/605681132073733

आज के लेख में आदरणीय प्रेमशीला मिश्रा जी की बेटी पूजा मिश्रा मैरिज एनिवर्सरी का सन्देश भी शामिल किया गया है। मैरिज एनिवर्सरी तो कल थी लेकिन हमें आधी रात को मैसेज मिला था, हमारे यहाँ सुबह  होते होते भारत में दिन का अंत आ पंहुचा था। 

इन्हीं शब्दों से आज के आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद को वहीँ से आगे बढ़ाते हैं जहाँ कल छोड़ा था। 

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विभिन्न प्रांत के उपासकों के ठहरने के  लिए  यज्ञनगर में आठ उपनगर बसाये गये थे जो गायत्री तपोभूमि से लेकर प्रेम महाविद्यालय तक फैले थे। इनका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है:

1) नारद नगर- यह नगर तपोभूमि से लगभग 150 गज़  के फासले पर था जिसमें विशेष रूप से मध्य प्रदेश के उपासक ठहराये गये थे । इसमें एक भोजनालय भी था जिसमें नित्य कई हजार व्यक्तियों को भोजन कराया जाता था । इसके व्यवस्थापक हमीरपुर के एक बहुत बड़े जमींदार श्री बजरंग वनभ सिंह नियुक्त किये गये थे ।

2 ) दधीच नगर- यह नगर  तपोभूमि के निकट जयसिंहपुरा गाँव के ठीक सामने बसाया गया था । इसमें विशेष रूप से साधु महात्माओं के रहने की व्यवस्था की गई थी।

3 ) व्यास नगर-यह नगर जयसिंहपुरा गाँव के बाहर वृन्दावन की सड़क के दाहिनी तरफ था । इसमें सौराष्ट्र, बम्बई, बिहार, उड़ीसा केरल व्यादि के उपासकों के रहने की व्यवस्था की गई थी। इसके भीतर नहाने के लिये, एक बहुत बड़ा पक्का कुण्ड बनाया गया था । इसके व्यवस्थापक अहमदाबाद के श्री मणीभाई पटेल थे ।

4) पातंजलि नगर – यह नगर व्यास नगर के ठीक सामने सड़क के बांई तरफ था। इसमें मन्दसोर, श्योपुर, इन्दोर, गुना, निमाद आदि के प्रतिनिधि ठहराये गये थे । इसके व्यवस्थापक श्री कन्हैयालाल जी वैद्य  थे ।

5 ) वशिष्ठ नगर-यह नगर  पातंजलि नगर से आगे सड़क के बांई ओर बिरला मन्दिर तक फैला हुआ था और संभवतः विस्तार में सबसे बड़ा था। इसमें राजस्थान के उपासकों का निवास था। व्यवस्थापक श्रीराम स्वरूप गाँधी जी  थे ।

6) याज्ञवल्क्य नगर-यह प्रधान यज्ञशाला के चारों ओर बसाया गया था और इसमें महायज्ञ के कार्यकर्ताओं तथा विशिष्ट उपासकों का निवास था।

7) भारद्वाज नगर-यह आसाम,आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, पंजाब आदि के उपासकों के लिये सभा मंडप के बगल में और पीछे की तरफ था।

8) विश्वामित्र नगर – यह यज्ञशाला के आगे उसी की बगल में उत्तर प्रदेश  के उपासकों के लिये था। इसके व्यवस्थापक श्री जितेन्द्रवीर नियुक्त किये गये थे। 

इन नगरों और यज्ञशाला आदि के निर्माण और व्यवस्था में सब श्रेणियों के उपासकों ने जो श्रमदान किया उसे देखकर परम पूज्य गुरुदेव  जी के ये वाक्य बिल्कुल सत्य प्रतीत हो रहे थे कि “महायज्ञ पैसे द्वारा नहीं, पसीने द्वारा पूरा किया जायगा।” वास्तव में इस अवसर पर यज्ञनगर की सड़कों और मार्गों पर ऐसे दृश्य दिखाई  दिये जिनकी कुछ समय पहले लोग कल्पना भी नहीं करते थे । बड़े-बड़े श्रीमानों और उच्च सरकारी पदाधिकारियों से लेकर साधारण कोटि के किसान और दुकानदार सब प्रकार के भेदभावों को भूलकर  यज्ञ पिता  और गायत्री माता की सेवा समझ कर प्रत्येक काम को खुशी से कर रहे थे और जरूरत पड़ने पर बड़े-बड़े बोझ  को भी पीठ और सिर  पर ढोने में संकोच नहीं करते थे। 

इस प्रथा को सात दशक बाद भी 2025 के महाकुंभ में उपस्थित गायत्री परिजन सार्थक करते दिखे। उस दृश्य को  देखने के लिए इस लिंक को क्लिक किया जा सकता है।

https://www.facebook.com/reel/528685836893445

21 नवंबर  को प्रातःकाल 15-20  महिलाओं ने कुछ पुरुष और बालकों की सहायता से यज्ञकुण्डों के चारों तरफ की भूमि को लीपने पोतने  का कार्य आरम्भ किया । दोपहर के समय जब उनसे भोजन के लिये जाने को कहा गया तो उत्तर मिला कि अभी बहुत काम  है और भोजन के लिये आने-जाने में व्यर्थ ही एक डेढ़ घंटे का समय व्यर्थ चला जायगा । इसलिये उन्होंने स्वयं अपने पास से थोड़ा सा गुड़ व चना मँगाकर 5-7  मिनट में ही जलपान कर लिया और बराबर काम में लगी रहीं। इस तल्लीनता का परिणाम यह हुआ कि जिस कार्य को बाजार के 50  मजदूर भी कठिनता से पूरा कर पाते,उसे इन देवियों ने समय के भीतर ही पूरा कर डाला । स्मरण रखना चाहिये कि ये सभी महिलायें बड़े घरों की, बढ़िया कपड़े पहने शिक्षित स्त्रियाँ थीं लेकिन  सेवाकार्य को दृष्टि में रखकर किसी ने अपने कपड़ों के खराब होने का ख्याल  तक नहीं  किया। इन दृश्यों को देखकर प्रतीत होता था कि पूज्य आचार्य जी ने भारतीय धर्म और संस्कृति के पुनर्निर्माण की जो योजना तैयार की है वह इस महायज्ञ की पूर्णहुति के बाद शीघ्र ही कार्यरत  हो सकेगी और हम गायत्री उपासकों का एक समाज स्थापित कर सकेंगे जो झूठे ढकोसलों और हानिकारक रूढ़ियों को त्याग कर सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धान्तानुसार जीवन व्यतीत करेगा |

महायज्ञ के याज्ञिकों का आना तो कई दिन पहले से ही आरम्भ  हो गया था लेकिन 21 नवंबर  से आने वाली भीड़ का तांता लग गया। दिन हो यां रात हर समय स्टेशन से यज्ञनगर तक याज्ञिकों को  बस, तांगा, रिक्शा, इक्का  में आते  देखा जा सकता था। रात के तीन बजे भी यज्ञनगर के कैम्पों में नवीन आगन्तुक उतरते देखे गए थे और उनके लिये स्थान की व्यवस्था की जाती थी । 22 नवंबर से तो यह जनसमूह एक बरसाती नदी की तरह उमड़ने लगा और कुछ प्रेक्षकों के अनुमानानुसार 23 नवंबर की  प्रात: तक यज्ञनगर में ठहरने वालों की संख्या 50000  तक पहुंच गई। इसके बाद भी प्रतिदिन नवीन भागीदार और दर्शक आते रहे और 25 नवंबर  को आचार्य जी ने अपने भाषण में आगुन्तकों की संख्या एक लाख बताई । इसमें तो सन्देह नहीं कि तपोभूमि से लेकर प्रेम महाविद्यालय तक,9 किलोमीटर का विस्तृत  भूभाग, तमाम सड़कें, मैदान, खेत आदि इस समय नरमुंडों से भरे नज़र  आते थे और एक मील का रास्ता तय करने में एक घंटे के लगभग का समय लग जाता था। चारों तरफ विभिन्न प्रकार की पोशाक पहिने, तरह-तरह की भाषाएँ बोलने वाले व्यक्तियों के समूह दिखते  थे । स्टेशन पर प्रत्येक ट्रेन  यात्रियों से ठसाठस भरी आ  रही थी जिनमें पौन हिस्सा पीले वस्त्र वाले ही दिखाई  पढ़ते थे। यात्रियों की ज़ुबानी  यह भी सुनने में आया कि अनेक स्टेशनों पर यज्ञ में आने वाले लोगों की भीड़ इतनी ज्यादा है कि टिकिट देना बन्द कर दिया गया है । एक व्यक्ति ने बताया  कि ग्वालियर स्टेशन पर 300  व्यक्तियों को टिकिट न मिलने के कारण  वापस जाना पड़ा। कोटा में भी सैंकड़ों व्यक्ति स्टेशन से लौटा दिये गये ।

यद्यपि  सभी शाखाओं को सूचना दे दी गई थी कि पहले से स्वीकृति पाने वाले श्रद्धालु/याज्ञिक ही भेजे जायें फिर भी लोग असुविधा का ध्यान न करके सैकड़ों कोस की दूरी से चले आये। अनेक उत्साही व्यक्तियों ने तो कई-कई सौ मील का रास्ता बाइसिकल पर ही तय किया । सौराष्ट्र के ध्रांगधा नगर से श्री शशिकांत और श्री रिषीकेश नाम के दो सदस्य 700  मील  की यात्रा करके मथुरा पहुँचे थे इसी प्रकार सौराष्ट्र के ही लाखनका नामक स्थान के निवासी श्री पुरुषोत्तमदास पोपट लाल सोनी और श्री मूलजो नरसी पटेल इससे भी अधिक दूर से बाइसिकल द्वारा आये। रायपुर ( म०प्र०) के भी कई युवक यज्ञारम्भ से कई दिन पहले बाइसिकलों पर मथुरा पहुँच गये थे और यहाँ पर उन्होंने आसपास के स्थानों में भ्रमण करके यज्ञप्रचार का  कार्य भी किया। इटावा से भी श्री महावीर सिंह और मिश्रा जी मथुरा तक बाइसिकलों पर ही आये थे। ये समस्त गायत्री भक्त रास्ते भर यज्ञ और गायत्री का प्रचार करते तथा परचे बाँटते हुए  आये थे। रास्ते में जितने बड़े कस्बे/नगर मिले उन सब में इन्होंने गायत्री तपोभूमि का सन्देश सुनाया। सीसोली शाखा से भी श्री अजयदत्त नाम के वृद्ध व्यक्ति जो सर्वथा दृष्टिहीन थे अकेले ही कई सौ मील की यात्रा करके यज्ञनगर में पहुँच गये ।

22 नवंबर  को प्रात चार बजे ज़ोर  की घण्टा ध्वनि ने दूर-दूर के स्थानों में ठहरे उपासकों को जगा दिया और विभिन्न दल झंडे  और अपनी शाखाओं के साइन बोर्ड लेकर प्रभातफेरी के लिये निकल पड़े। इनमें से कितने ही तो यज्ञ नगर की सड़कों और मार्गों पर भजन और कीर्तन करते हुए  भ्रमण करते रहे और लगभग 4-5  हजार उपासकों का एक बड़ा दल नगर की ओर गया और समस्त मुख्य सड़कों पर कीर्तन गाते हुये और “गायत्री माता” तथा “यज्ञ पिता” की जय-जयकार की ध्वनि करता हुआ लगभग साढ़े आठ बजे वापस लौटा। इस प्रभात  फेरी से मथुरा नगरवासियों को महायज्ञ के आरम्भ होने की सूचना मिल गई और वे भी उसमें सम्मिलित होकर दर्शन करने को प्रस्तुत हो गये ।

प्रभातफेरी की तरह जलयात्रा का जलूस भी दर्शनीय था, जो इसी दिन प्रातः 9 बजे पूज्य आचार्य जी की धर्मपत्नी माता भगवती देवी के नेतृत्व में निकाला गया। इसमें 128  देवियाँ तो यज्ञ के मंगलकलश  लिये थीं और कई सौ उनके पीछे जलूस के रूप में चल रही थीं। पुरुषों की संख्या अधिक न थी, वे केवल मार्ग की व्यवस्था ठीक रखने के लिये साथ गये थे । सच पूछा जाय तो इस जलयात्रा ने मथुरा नगरवासियों पर पूर्व प्रभाव डाला और यज्ञ के सम्बन्ध में उनके भाव बहुत अधिक सहानुभूति पूर्ण हो गये। जैसे ही यह महान शोभायात्रा चौक और मुख्य बाजारों में होकर निकली, सब लोग मंगलकलश  धारिणी देवियों के दिव्य तेज के सामने नतमस्तक हो रहे थे । उस समय कोई दुरात्मा व्यक्ति भी ऐसा नहीं था जो उनकी ओर किसी प्रकार के निकृष्ट भाव से आँख उठाकर देखने का साहस कर सके । इतना ही नहीं जैसे-जैसे जलूस अग्रसर होता जाता था,दर्शक यज्ञ की महानता से प्रभावित हो स्वयं ही इसके आयोजन कर्ताओं की प्रशंसा करने लगते थे । बाजार के दुकानदार कह रहे थे कि 

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कल वाले लेख को 370 कमेंट मिल पाए,8 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूरा किया है,सभी को बधाई एवं धन्यवाद्। 


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