वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वर्ष 1958 का दिव्य सहस्र कुंडीय यज्ञ-पार्ट 6

पिछले कल, 21 अप्रैल 2025 वाला लेख “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” का समापन अंक तो अवश्य  था लेकिन इस अनुष्ठान के महत्व के कारण इसकी चर्चा आने वाले दिनों में भी होती ही रहेगी। 

आज से,अखंड ज्योति के उस बहुचर्चित अंक की चर्चा का शुभारम्भ हो रहा है जिसे हम अनेकों बार अपने  साथिओं के साथ रेफर  करते आ रहे हैं। दिसंबर 1958 का यही वोह अंक है जिसमें हमें सहस्र कुंडीय यज्ञ की अति दुर्लभ बारीकियों का ज्ञान होने की संभावना है।  हर बार की तरह,  आज भी निवेदन करते हैं (हमारी आदत सी हो गयी है) कि आज प्रस्तुत किया गया पार्ट 6  एवं आने वाले सभी लेखों को ध्यानपूर्वक पढ़कर, श्रद्धा-समर्पण से चिंतन-मनन करते हुए अपने विचारों को कमैंट्स के माध्यम से गुरुचरणों में अर्पित करने पर ही सच्ची गुरुभक्ति होगी। ऐसा इसलिए कहना महत्वपूर्ण हो जाता है कि इतने  विशाल समरोह (महा-समारोह)का आयोजन करना, अखंड ज्योति के  पूरे अंक का प्रकाशन करना कोई छोटा कार्य नहीं है। जिन विभूतियों ने इस अंक के प्रकाशन में योगदान दिया उनके लिए धन्यवाद् जैसा छोटा सा शब्द पूर्णतया अर्थहीन है, उनकी योग्यता एवं अनुभव का विवरण भी साथ-साथ में देते रहेंगें लेकिन बारीकियों को समझना बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि यह सब महत्वपूर्ण न होता तो फिर यह विभूतियाँ इसे  लिखने का जोखिम क्यों उठातीं।  

आज का आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद जिस कंटेंट पर आधारित है उसे साहित्य-विशारद, आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी ने Compile किया था जी उस समय के कांग्रेस के सक्रीय राजनेता थे, अनेकों पदवियों में से अंतिम पदवी मध्यप्रदेश के गवर्नर की थी। हमें विश्वास है कि हमारी आदरणीय बहिन सुमनलता जी, हिंदी संस्कृत की विद्वान होने के कारण  “विशारद” शब्द से अवश्य ही परिचित करायेंगीं।  

तो साथिओ,आओ  गुरुचरणों में समर्पित होकर आज के गुरुज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें, अपने जीवन को सफल बनायें। 

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महायज्ञ का महा-समारोह  ( श्री सत्यनारायण सिंह-साहित्य विशारद):

गायत्री तपोभूमि की तरफ से जो देशव्यापी ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का आयोजन गत वर्ष से चल रहा था पूर्ण रूप से सफल हो गया और उसकी पूर्णाहुति ऐसे समारोह के साथ सम्पन्न की गई, जिसका उदाहरण अन्यत्र मिल सकना कठिन ही नहीं असंभव है। इस पूर्णाहुति में भाग लेने के लिये “एक लाख व्रतधारी धर्मसेवक” कठोर साधना में लगे हुए थे क्योंकि तपोभूमि की ओर से घोषणा कर दी गई थी कि इस यज्ञ में वे ही व्यक्ति हवन कुण्डों पर बैठ सकेंगे जो पूरे वर्ष में 1 लाख जप 52 उपवास, ब्रह्मचर्य पालन, भूमिशयन आदि तपश्चर्या कर चुके होंगे।

इस महान आयोजन की सबसे बड़ी विशेषता यह रखी गई थी कि इसे धन के भरोसे पर नहीं बल्कि त्याग और बलिदान के आधार पर प्रतिष्ठित किया गया था। गुरुदेव ने ऐसा निम्नलिखित बताते हुए कहा था:

1. वर्तमान समय में पूँजीपति वर्ग में अनेक ऐसे अनिवार्य दोष उत्पन्न हो गये हैं जिनके कारण उसके पैसे को शुद्ध साविक नहीं समझा जा सकता । आजकल के व्यवसाय में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, असत्य, हिंसा आदि सभी प्रकार के दोषों का कम या अधिक  में समावेश हो गया है। वर्तमान युग में बड़े-बड़े धार्मिक आयोजनों में धर्म और नीति का ध्यान रखा जाना असम्भव सा जान पड़ता है। इसलिये इस महायज्ञ के लिये सार्वजनिक चन्दा जमा करने से इस बात की पूरी सम्भावना थी कि नीति-नीति का द्रव्य आने से उसका उद्देश्य सफल न हो सकेगा। इस कारण यही निश्चय किया गया कि तपस्वी साधक आपस में मिल जुलकर जो कुछ भी थोड़ा सा अन्न-जल जमा करेंगे, उसी से अत्यन्त मितव्ययिता पूर्वक,फिजूलखर्ची को दूर रखते हुए साग,सत्तू, रोटी भात का प्रबन्ध कर लिया जायगा । अन्य अनेक कार्यों को भी अधिकतर इन्हीं उपासकों ने अपने श्रमदान से पूरा किया था | अनेक साधकों ने हवन में अर्पित की जाने वाली सामग्री भी साधकों ने स्वयं अपने हाथों से ही इकट्ठी की थी। हवन में पड़ने वाला शुद्ध घी एक-एक, दो-दो छटांक करके गाँव-गाँव से जमा किया गया। हवन कुण्ड खोदने, यज्ञशालायें बनाने, भोजन पकाने, कुओं से पानी भरने, सफाई करने, पहरा देने आदि के सारे कार्य प्रायः इन्हीं धर्मसेवकों द्वारा ही पूरे किये गये । 

2. इसकी दूसरी विशेषता यह रखी गई कि याज्ञिक और अन्य व्यक्ति केवल आहुतियाँ डाल कर अथवा यज्ञ की परिक्रमा करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री न समझ लें बल्कि यज्ञ का जो वास्तविक संदेश है, उसके भीतर जो महान उपदेश निहित हैं,उन्हें अपने रोज़ के जीवन में चरितार्थ करें । इसलिये इस यज्ञ में यज्ञ करने वालों से दक्षिणा और भेंट-पूजा के बजाय यह प्रतिज्ञा कराई गई कि वे धार्मिक और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के रचनात्मक कार्यों में जीवन भर संलग्न रहेंगे । मनुष्यों के चरित्र में आस्तिकता, संयमशीलता, नैतिकता, सेवा,सच्चाई, ईमानदारी, समानता,एकता,सामूहिकता, सहिष्णुता, आत्मीयता, कर्तव्यनिष्ठा, उदारता, विचारशीलता आदि सत्प्रवृत्तियों की स्थापना के लिये संगठित रूप से निरन्तर प्रयत्न करते रहेंगे। समाज में फैली हुईं स्वार्थपरता, बेईमानी, संकीरता, आलस्य, विलासिता, नशेवाजी, मांसाहार, जुआ, दहेज, बाल विवाह, मृत्युभोज आदि दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध डट कर संघर्ष करने में प्राण तक त्यागने का संकल्प लेंगे।

3. इसकी तीसरी विशेषता यह थी कि इसमें साधन, जप, हवन आदि के सभी कार्य लोगों ने अपने हाथ से (स्वयं) किये थे। बीच के (विचोले) धर्म-व्यवसाइयों का इसमें कोई दखल न था। हमारे देश में कितने ही समय से यह प्रवृत्ति फैली हुई है कि समस्त धर्मक्रिया विशेष पंडितों या पुरोहितों द्वारा ही कराई जाए,वे ही मन्त्रों का उच्चारण करते हुए बिना कुछ समझाये-बुझाये लोगों से कठपुतली की तरह क्रियायें कराते जायें और बीच-बीच में प्रत्येक बात के लिये दक्षिणा के पैसे रखवाते जाएं। इसका परिणाम यह हुआ था कि लोग इन धर्मकार्यों की विधि, नियम और वास्तविक स्वरूप को भूल गये और उनका स्वभाव पंडितों के सहारे चलने का हो गया था । इससे सबसे बड़ी हानि यह हुई कि आध्यात्मिकता लुप्त हो गई और धर्मकार्य वास्तविक आत्मोन्नति करने की अपेक्षा खिलवाड़ बन कर रह गये थे। इसलिये इस महायज्ञ में यज्ञकर्ताओं द्वारा पूरे एक वर्ष भर तक धार्मिक साहित्य पठन-पाठन का, स्वाध्याय का नियम रखा गया ताकि वे इन कर्मकाण्डों, धार्मिक क्रियाओं के मर्म को समझ सकें और उन्हें स्वयं अपने हाथ से करते हुए उनका वास्तविक लाभ उठा सकें। इसके लिये यज्ञ के आरम्भ में ही गायत्री परिवार के कुलपति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने महायज्ञ में भाग लेने वाले प्रत्येक धर्मप्रेमी के लिये पूर्णाहुति के अवसर पर निम्नलिखित तीन व्रतों को धारण करने का आदेश दिया था:

क) व्यक्तिगत जीवन में – नैतिकता, मानवता, सेवा, सच्चाई, उदारता, कर्तव्यनिष्ठा, आस्तिकता आदि आदर्शों को जीवन में ओतप्रोत करना ।

ख) सामाजिक जीवन में नागरिकता, सामूहिकता, समानता, एकता, सहिष्णुता, ईमानदारी, सज्जनता आदि सत्प्रवृत्तियों की वृद्धि करना ।

(ग) देश में फैली हुई बुराइयों, जैसे स्वार्थपरता,भ्रष्टाचार, संकीर्णता, विलासिता, दुर्व्यसन, वैवाहिक कुरीतियाँ, मृत्यु भोज आदि को दूर करने के लिये संघर्ष करना ।

इस विराट महायज्ञ के लिये सबसे पहली कठिनाई तो भूमि सम्बन्धी उपस्थित हुई। यज्ञ के व्यवस्थापकों  ने मथुरा नगर के आसपास की समस्त जमीनें छान डालीं लेकिन  कहीं इतनी बड़ी एक जमीन न मिल सकी कि जिसमें 1024  कुण्ड बनाये जा  सकें, समस्त याज्ञिक निवास कर सकें और उनके भोजन, शौच, स्नान आदि की उचित व्यवस्था हो सके। अन्त में नगर से लगभग दो मील दूर  बिरला मन्दिर के आगे की ज़मीनें  लेनी पड़ीं और वहाँ पर सड़क के एक ओर यज्ञशाला और दूसरी ओर सभापंडाल का निर्माण किया गया। यज्ञशाला लगभग एक फ़र्लांग  लम्बी और इतनी चौड़ी थी और यज्ञकुण्डों के ऊपर पीले रंग बहुत बड़ी चाँदनियाँ तान दी गई थीं। यज्ञशाला के 1024 कुण्ड,  आठ-आठ कुण्डों की 128  यज्ञशालाओं में बाँट दिये गये थे, जिनके चारों ओर जौ के हरे-हरे पौधे लहलहा रहे थे। आचार्य जी के बैठने के स्थान और गायत्री माता का मन्दिर काफी सुन्दर बनाये गये थे। इसी के ठीक सामने सभा-मण्डप भी लगभग इतनी ही लम्बी चौड़ी जमीन पर बनाया और उसके पास चिकित्सालय, सेवासमिति, पुलिस आदि के टेण्ट लगे थे। सभा- मण्डप के बगल में एक पक्के अहाते के भीतर प्रदर्शिनी का बाज़ार था, जिसमें धार्मिक पुस्तकों, माला, वस्त्र आदि की दुकानें लगाई गई थीं। इसके बाद हलवाइयों और चाय आदि की दुकानों का एक बाजार लगाया गया था, जिससे नगर से दूरवर्ती इस स्थान पर लोगों को आवश्यक वस्तुऐं प्राप्त हो सकें।

आज के लेख का यहीं पर समापन होता है, कल यहीं से आगे बढ़ने का प्रयास करेंगें। 

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कल वाले लेख के लिए कमैंट्स संख्या 369 पर सिमट गयी है, 8 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, सभी को बधाई एवं धन्यवाद् 


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