21 अप्रैल 2025 का ज्ञानप्रसाद
अखंड ज्योति नवंबर 1957 पृष्ठ 15 पर गुरुदेव ने लिखा कि निकट भविष्य में आकाश में घुमड़ती हुई प्रलयंकर घटाओं को बरस पड़ने का ज़रा सा भी अवसर मिला तो निश्चय ही इसके परिणाम अति चिन्ताजनक होंगे लेकिन अभी स्थिति उस सीमा तक नहीं पहुँची है कि मानवी प्रयत्न इन्हें रोक सकने में असमर्थ हों। अभी वह अवसर हाथ से नहीं निकल नहीं चुका है कि एटम बमों का मुँह मोड़ देने वाला “शान्ति का आध्यात्मिक अस्त्र न बन सकता हो।” संसार का भौतिक क्रिया कलाप सूक्ष्म जगत से उसी प्रकार सम्बन्धित रहता है जिस प्रकार प्रतक्ष्य दिखने वाली कठपुतली,अदृश्य तारों द्वारा मदारी की उंगलियों से जुडी होती है। भौतिक जगत के नेतागण अपनी-अपनी समझ के अनुसार शाँति स्थापना के प्रयत्न करते हैं लेकिन वास्तविक स्थापना तब तक उत्पन्न नहीं हो सकती जब तक कठपुतलियों को हिलाने वाले तारों को चलाने वाली अदृश्य उंगलियाँ गतिशील न हो जायें।
मानव संस्कृति की सुरक्षा एवं विश्वशान्ति के लिए अनेक दिशाओं में प्रयत्न हो रहे हैं लेकिन यदि आज “आध्यात्मिक मोर्चा” छोड़ दिया गया तो निश्चय ही एक इतनी बड़ी भूल होगी जिसकी क्षति पूर्ति अन्य मोर्चों पर किये जाने वाले सारे प्रयत्न मिलकर भी न हो सकेगी। जो लोग “आध्यात्म शक्ति का महत्व” समझते हैं उनकी जिम्मेदारी है कि ऐसे गाढ़े समय में उनका समुचित उपयोग करने के लिये आगे आएं।
गायत्री-परिवार द्वारा संचालित “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” एक ऐसा ही महान आयोजन है।
विश्वशान्ति के लिए भरपूर वर्षा कर सकने योग्य शक्ति इस अनुष्ठान के जल में मौजूद है। यदि यह अनुष्ठान सफल होता है तो हम सभी प्राणियों को, विपुल सभ्यता एवं चिर-संचित संस्कृति को नष्ट होने से बचा सकते हैं। यदि बचाव किया जा सका तो 5000 वर्ष पूर्व हुए एक महाभारत के आघात से जो मानव संस्कृति अभी तक ठीक प्रकार से उठ कर खड़ी न हो सकी है वह इस आगामी महाप्रहार की ठोकर खाने के बाद कितने समय में उठ खड़ी होने को सक्षम होगी, यह कह सकना बहुत ही कठिन है। ऐसी स्थिति में जिनके अन्दर वस्तुतः कुछ “आध्यात्म प्रकाश” मौजूद है उनके लिये एक धार्मिक कर्तव्य हो जाता है कि इस गाढ़े समय में जो कुछ उनसे बन पड़े,अवश्य करें।
माँ गायत्री सद्बुद्धि के साथ-साथ शाँति की भी देवी है। अशान्ति और उद्वेगों की शाँति के लिए, बिगड़े मस्तिष्कों को सुव्यवस्थित करने के लिए गायत्री से बढ़कर और कोई रामबाण प्रयोग नहीं है।
आज इसी “संजीवनी बूटी” के उपयोग का उपयुक्त समय है।
“ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” के अंतर्गत, गायत्री परिवार ने सुव्यवस्थित रूप से यह प्रयोग आरम्भ किया है।
1.इस प्रयोग का प्रथम चरण, जिसमें प्रतिदिन 24 लाख जाप, 24 हजार आहुति, 24 हजार पाठ, 24 हजार मन्त्र लेखन का संकल्प था, पूर्ण हो चुका है।
2.अब इस अनुष्ठान का दूसरा चरण चल रहा है जिसके अंतर्गत प्रतिदिन 1.25 करोड़ गायत्री जप, 1.25 लाख आहुति, 1.25 लाख मन्त्र-लेखन का प्रयोग चल रहा है। यह भी कुछ ही दिनों में पूरा होने वाला है ।
3.तीसरा चरण काफी बड़ा (20 गुना) है। प्रतिदिन 24 करोड़ गायत्री जप, 24 लाख आहुतियाँ, 24 लाख पाठ, 24 लाख मन्त्र लेखन का विशाल कार्यक्रम इतना बड़ा है कि उसे असंख्य धर्मप्रेमी मिलकर अपनी “सामूहिक शक्ति” से ही पूरा कर सकते हैं।
यह कार्य धनी लोगों के बस का नहीं है। अब तक बड़े यज्ञ केवल कुछ एक धनिकों के जप करने से पूरे होते थे। किसी बड़े नामधारी सन्त-महन्त से प्रभावित कुछ धन-सम्पन्न लोग मिल कर यज्ञ रचाते थे,उसमें सौ-पचास पण्डितों को भारी दक्षिणा देकर, दो/चार हजार तथाकथित ब्राह्मणों को पिस्ते और मलाई की मिठाई छकाने की प्रक्रिया चलती थी। सेठजी और महन्तजी का जय-जयकार होकर यज्ञ समाप्त हो जाते थे।
ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान इससे बिल्कुल ही भिन्न प्रकार का यज्ञानुष्ठान है।
इस अनुष्ठान का आधार धन नहीं,श्रम है। इस अनुष्ठान के लिए जितने व्यक्ति,सामान, श्रम,स्थान की आशा की जा रही है, उसे यदि कुछ धनी लोग अपने पैसे के बल पर कराना भी चाहें तो किसी करोड़पति की सारी पूँजी भी पर्याप्त न होगी।
“ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” की पूर्ति में गायत्री परिवार की 1000 शाखाओं के लगभग 20000 परिजन लगे हुए हैं। 20 गुना बड़ा होने के कारण, शक्ति भी तो 20 गुना ही चाहिए।
“इस शक्ति को जुटाना ही आज सबसे बड़ी समस्या है।”
गुरुदेव ने परिजनों से अपील की कि अब कुछ समय के लिए धर्मप्रेमी लोग इस विश्वशान्ति के महान आयोजन के लिए अपना अधिक से अधिक समय देने का प्रयत्न करें। अपने-अपने क्षेत्रों में तप, जप, हवन, पाठ-लेखन आदि करने के लिए पूरी शक्ति से लगाएं । इसके लिए धर्मफेरी के माध्यम से घर-घर जाकर धर्मप्रेरणा प्रदान करना होगा। झूठी अभिमानता, झिझक, संकोचीपन आदि की मानसिक कमजोरी को लात मारनी होगी ।
परमार्थ के लिए धर्म-प्रेरणा के लिए किसी के यहाँ जाना वस्तुतः एक बहुत बड़ा बड़प्पन है।
बाधाएं हमेशा ही मनुष्य की शक्ति की परीक्षा लेने एवं प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाने के लिए आती ही हैं। सस्ती सफलता एक निकम्मी चीज है। ऐसे प्रयोगों से आसुरी तत्वों का नाश होता है इसलिए वे इस प्रयत्न को असफल करने के लिए हर तरह के प्रयत्न करते हैं। प्राचीन युगों में असुरों के आक्रमण अस्त्र-शस्त्र द्वारा होते थे लेकिन आज के युग में वे स्वयं सामने नहीं आते। जिस भी मनुष्य की बुद्धि में असुरता के ठहरने लायक अज्ञान देखते हैं उनको अपना वाहन बनाकर,विघ्न उत्पन्न करके आयोजन असफल बनाने का प्रयत्न करते हैं।
कई व्यक्ति भारतीय संस्कृति की माता, माँ गायत्री और भारतीय धर्म के पिता, यज्ञपिता को करने से रोकते हैं। जिनकी जीत, जुआ, चोरी, व्याभिचार, असत्य, छल, पाखण्ड, नशा आदि बुराइयों के विरुद्ध जीवन भर नहीं खुली वे ऐसे अनुष्ठानों में अड़ंगे डालते हैं।
यह अनुष्ठान संसार का एक अनोखा आश्चर्य है।
छलकपट से,असुरता अनेक मंथराओं की जीभ पर जा बैठती है और उनसे मारीच, सुबाहु, ताड़का, खरदूषण जैसे यज्ञ-विरोधियों का कार्य अनायास ही करा लेती है। इन सब बातों से परमार्थ मार्ग के पथिकों को जरा भी विचलित होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि अपना प्रत्येक कार्यक्रम महान आध्यात्मिक सिद्धान्तों,धर्म-मर्यादाओं एवं अत्यन्त उच्चकोटि की आत्मा की प्रेरणा पर निर्धारित है। इसकी उपयुक्तता में किसी को रत्ती भर भी सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है।
इतने बड़े अनुष्ठान में यदि कोई विघ्न न आये, कोई विरोध न हो,कोई अड़ंगा न पड़े यह सम्भव नहीं है। असुरता मरते-मरते भी आत्मरक्षा के लिए कुछ न कुछ उपद्रव तो अवश्य ही करेगी।
24 करोड़ जप, 24 लाख आहुतियाँ, 24 लाख पाठ, 24 लाख मन्त्र- लेखन वाला तीसरा चरण बहुत बड़ा कार्य है, इसकी सफलता के लिए जिस प्रकार का “सूक्ष्म वातावरण” चाहिये वह इन दिनों बिलकुल भी नहीं है।
“इसलिये इन दिनों उस दिशा में असफल प्रयत्न करने की अपेक्षा विश्वशान्ति के लिए इन परमार्थिक कार्यों में लगना ही सब दृष्टियों से उचित है।”
अच्छे साधु, जिनकी आजीविका गृहस्थों के दान पर चलती है, उन पण्डित, पुरोहित, पुजारी, गद्दीधारी, महन्त, मठाधीशों का भी कर्तव्य है कि इन 3-4 वर्षों में उस आजीविका को हलाल करने के लिये जनसेवा में लग जायें। गुरुदेव 1957 की बात कर रहे हैं, उस समय भारतवर्ष में 56 लाख साधु थे, यदि यह सारे साधु केवल 43 गायत्री मन्त्र भी प्रतिदिन जपें और आधी आहुति भी रोज प्रदान करें, प्रतिदिन 5 मिनट रोज का समय भी दें तो यह “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” बड़ी आसानी से पूर्ण हो सकता है लेकिन इन लोगों की मनोवृत्तियाँ देखते हुए उनसे कुछ भी आशा करना व्यर्थ है। इसलिए यह कार्य सद्गृहस्थों को ही करना पड़ेगा।
जो लोग इस अनुष्ठान को भोजन, स्नान, नींद आदि की भाँति अपने दैनिक जीवन में सम्मिलित कर लें उन्हें “व्रतधारी/संकल्पधारी” कहा जायेगा। जिस प्रकार इलेक्शन में विधायक चुने जाने के लिए वोटरों के पास जा-जाकर हर प्रकार का प्रयत्न किया जाता है वैसी ही मनोवृत्ति जिसकी बन जाय उन्हें “व्रतधारी” कहना चाहिये। “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” को सफल बनाने के लिए ऐसे 1000 व्रतधारी चाहिएं। यह व्रतधारी नित्य स्वाध्याय द्वारा अपना गायत्री-ज्ञान बढ़ाने के साथ ही नियमित रूप से धर्म-प्रचार के लिये, धर्म-फेरी के लिए कुछ न कुछ समय भी लगाते रहेंगे। इस युग में ऐसे कार्यों की सफलता “भगवान” पर ही निर्भर रहती है। साहित्य प्रचार की अपनी समस्या है। इतनी बड़ी संख्या में जनता को पूरी तरह अपने उद्देश्य एवं कार्यक्रम की शिक्षा देने के लिए बड़ी संख्या में साहित्य देना होगा। ऐसा साहित्य बिकेगा तो क्या उसे वितरण ही करना पड़ेगा। इस ज्ञानदान के लिए पैसा चाहिए। गायत्री तपोभूमि इस दृष्टि से दिवालिया है। वहाँ का दैनिक खर्च बड़ी कठिनाई से पूरा हो पाता है। चन्दा संग्रह करने का अपना कोई कार्यक्रम नहीं है। ऐसी दशा में “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” को सफल बनाने के लिए और आगे चलकर साँस्कृतिक पुनरुत्थान कार्यक्रम के अंतर्गत सारे राष्ट्रों को धार्मिकता, नैतिकता एवं मानवता की पुनीत भावनाओं से ओत-प्रोत करने के लिए बड़े परिमाण में सस्ता साहित्य चाहिए। इसका खर्च कहाँ से आये? धर्म-प्रचारकों के हाथों में यह प्रचार-साहित्य ही प्रधान अस्त्र होता है, इसकी आवश्यकता निर्विवाद है।
इस महान कार्य के लिए पेट भी काटना पड़े तो सौभाग्य होगा।
इस समस्या का एक ही हल अभी सोचा गया है कि व्रतधारी लोग गायत्री माता को भी अपने घर का एक सदस्य मानने और उन्हें झूठ-झूठ का भोग लगाने के बजाये कम से कम एक रोटी खाने को दें अर्थात् एक रोटी का अनाज या उसकी लागत दो पैसा उठाकर अलग रखते जावें। जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही दुर्बल है, वे सप्ताह में एक बार भोजन न किया करें। इस प्रकार महीने में चार बार भोजन न करने में बची हुई चार चपातियों का एक रुपया बचा सकते हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति कुछ ठीक है वे मासिक वेतन में से कुछ पैसे ज्ञानदान के लिए अलग से उठाकर रख दिया करें। अपनी व्यक्तिगत फिजूलखर्ची में से या व्यर्थ के धर्म आडम्बरों में से पैसे बचाकर जनता को सन्मार्ग का प्रकाश देने वाला साहित्य वितरण कराने का ऐसा बड़ा पुण्य ले सकते हैं जिसकी तुलना में अन्य प्रकार के दान-पुण्य तुच्छ हैं।
“गायत्री माता के सच्चे भक्त के लिए यह मूक कसौटी है।” माला जपने के अतिरिक्त, “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” की सफलता के लिए यदि थोड़ा भी त्याग न हो सके तो इतनी दुर्बल श्रद्धा वाले लोग दैवी शक्तियों से भी कुछ आशा करने के अधिकारी नहीं हो सकते। देव-शक्तियाँ चापलूसी भरा स्तोत्र पाठ नहीं बल्कि भावना की गहराई परखती हैं और उसी के अनुसार किसी को प्यार एवं अनुग्रह प्रदान करती हैं। कंजूस लोग, जो केवल लेना ही चाहते हैं,अन्त तक बहुत बड़े घाटे में रहते हैं।
बिना दिये कुछ पाने की आशा करने वालों को बस मूर्ख ही कहना चाहिये।
“ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता है। जो विकट परिस्थितियाँ संसार के सामने आने वाली हैं उन्हें टालने के लिए गायत्री माता की कमान पर यज्ञ-पिता का तीर चढ़ा कर चलाया हुआ यह रामबाण निष्फल नहीं जा सकता। गायत्री परिवार ने सामूहिक संकल्प से “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया है, यह हम लोगों की भावना परखने की एक कसौटी है। गायत्री- परिवार इस कसौटी पर कसा जा चुका है। खरा-खोटा सिद्ध होना हम लोगों के उत्साह पर निर्भर है।
जय गुरुदेव
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शनिवार के विशेषांक को 452 कमैंट्स और 9 साधकों ने 24 प्लस आहुतियों से संजोया है जिसके लिए हम ह्रदय से आभारी हैं।