वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वर्ष 1958 का दिव्य सहस्र कुंडीय यज्ञ-पार्ट 4

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं से करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं कि कल वाले ज्ञानप्रसाद को समझाने में हमारी अयोग्यता प्रकट हो उठी। हमने तो लिखा था “आरंभिक तैयारिओं का तीसरा एवं समापन अंक” लेकिन मैसेज “सहस्र कुंडीय महायज्ञ” की लेख श्रृंखला के समापन का गया है। यह दिव्य लेख श्रृंखला तो अभी बहुत दिन चलने वाली है, इसे अपने साथिओं के समक्ष लाने में जितनी प्रसन्नता हम अनुभव कर रहे हैं, शब्दों में वर्णन करने में असमर्थ हैं। 

आज के आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख को जिस परिश्रम,श्रद्धा और कठिनाई से Compile कर रहे हैं, हम ही जानते हैं। गुरुवर के विशाल साहित्य का  बार-बार स्वाध्याय करने के बाबजूद, समझ पाना और उसे साथिओं के समक्ष ला पाना अति कठिन कार्य लग रहा है। शनिवार वाले विशेषांक में बताना उचित रहेगा कि ऐसी स्थिति में गुरुदेव ने एक बार फिर ऊँगली पकड़ कर कैसे  हमारी सहायता की। 

सहस्र कुंडीय यज्ञ से दो माह पूर्व सितम्बर 1958 की अखंड ज्योति में गुरुदेव के करकमलों से एक दिव्य लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का ब्रह्मभोज।” शीर्षक को देखकर तो आँखें चकरा सी गयीं कि  महायज्ञ में गुरुवर किस ब्रह्मास्त्र की बात कर रहे  हैं, हमने तो यह शब्द ही पहली बार बी आर चोपड़ा जी के महाभारत सीरियल के समय सुना था। हमारे लिए “ब्रह्मभोज” शब्द भी बिल्कुल नया  ही था, बाल्यकाल में शायद कभी “ब्राह्मणभोज” की बात हुई हो जब परिवार में किसी विशेष पर्व पर  संतों को भोजन कराया गया हो।  तो यह है हमारा एजुकेशन  लेवल !!!!

इस समस्या से निकलने के लिए हमने जो-जो परिश्रम किया,जितना हमें समझ आया उसका प्रतिफल परिवार के समक्ष प्रस्तुत है, आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि हमारे योग्य,ज्ञानवान साथी इस विषय पर विचार-विमर्श करते हुए हमारा उचित मार्गदर्शन करेंगें।“ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का ब्रह्मभोज।” टॉपिक पर प्रस्तुत किये जाने वाले कंटेंट का यह प्रथम पार्ट है, दूसरा एवं समापन पार्ट सोमवार को प्रस्तुत करने की योजना है। उसके बाद मंगलवार से “दिसंबर 1958 के अखंड ज्योति सहस्र कुंडीय महायज्ञ विशेषांक” की ओर रुख किया जायेगा। 

तो आइये आज की आध्यात्मिक ज्ञानकक्षा का शुभारम्भ,गुरुचरणों में समर्पित होकर विश्वकल्याण  के साथ करते हैं। 

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने।हे भगवन हमें ऐसा वर दो!    

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22 से 26 नवंबर 1958 में इस युग के महान सहस्र कुंडीय महायज्ञ के अंतर्गत हो रहे “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” के लिए  शास्त्रोक्त प्रक्रिया के अनुसार जप, पाठ, लेखन, हवन की प्रक्रियायें चल रही थीं । इस अनुष्ठान में “ज्ञानप्रचार के महान कार्य का सम्पादन” करने के कारण ही  कुछ विशेष व्यक्तियों  को  ब्राह्मण कहलाने का गौरव मिला।  इन व्यक्तियों ने  सद्ज्ञान के मूलतत्व को ग्रहण करके इसे फैलाने का कार्य अपने हाथ में लिया। आजकल ऐसे ब्राह्मण तो मिलते नहीं जिन्हें भोजन कराया जाये, तो गुरुदेव ने बताया कि ब्राह्मण को जितने पैसे का अन्न खिलाया जाता, उतने पैसे का साहित्य वितरण किया जाना उचित रहेगा । ऐसा करने से  ब्रह्मभोज का मूल लक्ष्य  भली प्रकार पूरा होता है। प्रसन्नता की बात है कि सहस्र कुंडीय महायज्ञ के होता, यजमानों ने ब्रह्मभोज की महान प्रक्रिया के रूप में सत्साहित्य वितरण को स्वीकार कर लिया और इस दिशा में उन्होंने उत्साहपूर्वक कार्य किया है। 

अक्सर कहा जाता है कि  ध्यान के बिना जप का लाभ  और ब्राह्मण भोजन अर्थात् ब्रह्मभोज के बिना यज्ञ का लाभ सर्वांश में नहीं मिल पाता। ऐसी स्थिति में जो भी मिलता है, वह आधे-अधूरे और अध-कचरे स्तर का एकांगी ही होता है। व्यक्ति बैठा माला तो फेर रहा है लेकिन ध्यान लगा हुआ है परिवार की समस्याओं पर, तो ध्यान  का क्या लाभ मिलेगा ? 

अभी पिछले शनिवार की ही बात है कि हम गायत्री परिवार के किसी आयोजन में शामिल हुए। परिजनों में एक भाई साहिब जिनकी आयु 40 वर्ष होगी, सारा समय फ़ोन पर व्हाट्सप्प चैटिंग करते रहे, 10  वर्षीय बेटा फ़ोन पर गेम खेलता रहा। ऐसे करने में प्रवचन का अनादर नहीं तो और क्या है ?  

यज्ञ का विशाल, प्रभावशाली आयोजन तो करा लिया लेकिन ब्राह्मण को भोजन नहीं  कराया  तो यज्ञ का लाभ आधा अधूरा ही मिलेगा।    

यही कारण है कि गुरुदेव ने महायज्ञ जैसे बड़े आयोजनों में यज्ञ के बाद वाले पक्ष की पूर्णता पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

कोई समय  था,जब हर प्रकार के धर्मानुष्ठानों के साथ ब्रह्मभोज अनिवार्य रूप से आवश्यक समझा जाता था, धर्मानुष्ठान के अन्त में ब्राह्मणों को भोजन एवं दूसरे द्रव्यादि दान में दिये जाते थे। इस प्रयोजन के लिए ऐसे महापुरुषों का चयन इसलिए किया जाता था कि वे अपना सम्पूर्ण जीवन लोकमंगल के कार्य हेतु समर्पित किये हुए  थे, ऐसे मनुष्य समाज में Role model होते थे, समाज कल्याण के लिए जीना और उसी के लिए मर जाना उनके जीवन का प्रधान लक्ष्य होता था। Role model  बनकर ऐसे महापुरुष समाज का मार्गदर्शन करते थे। यही कारण था कि वह हर जगह  सम्मान और श्रद्धा के केन्द्रबिंदु  बने रहते थे। ऐसे महापुरुषों  को भोजन कराने का अर्थ लोकसेवी परम्परा को समर्थन-प्रोत्साहन देना होता था। इसीलिए वह कृत्य पुण्य-फलदायी माना जाता था और हर पुनीत  कार्य के साथ परम्परागत रूप से जुड़ता चला गया। “मोटे अर्थों में यही ब्रह्मभोज था।”

इन दिनों ऐसे ब्रह्मनिष्ठ सदाशयी लोगों का एक प्रकार से अकाल पड़ गया है। ऐसे लोग ढूंढने से भी नहीं मिल पाते जो समाज को दिशा दे सकें, जन-जन का मार्गदर्शन कर सकें, उनकी गुत्थियों को सुलझा कर निर्द्वन्द्व जीवन जीने का उपयुक्त रास्ता सुझा सकें। इसीलिए आज का मनुष्य “भटका हुआ देवता” की केटेगरी में पंहुचा हुआ है, सही मायनों में, वह है तो देवता, ईश्वर जैसा, ईश्वर का राजकुमार लेकिन भटक गया है । परिवार की, बड़े बुज़ुर्गों की,धर्मगुरुओं की वोह सुनता नहीं है, यदि सुनता है तो केवल “गूगल गुरु” की, आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस की, आजकल तो गूगल ने भी अपना कार्य आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस को डेलिगेट कर दिया है। गूगल को जो भी प्रश्न पूछा जाता है, उससे पहले ही AI कूद पड़ता है।     

ऐसी स्थिति में ब्राह्मण-परम्परा पर विश्वास  कैसे हो? क्या महानुभावों के,धर्मगुरुओं के अभाव मात्र से किसी श्रेष्ठ सनातन,सदियों पुरातन परम्परा का लोप हो जाना चाहिए? समाज की प्रगति रुक जानी चाहिए? कदापि  नहीं ! समय और परिस्थिति के अनुरूप रीति-रिवाज बदलते रहे हैं और लम्बे समय से उन-उन कमियों की पूर्ति नये निर्धारणों से सदा की जाती रही है ताकि  विकास की गाड़ी उस गति से न सही, पटरी पर लुढ़कती तो रह ही सके, उस रिक्तता की भरपाई कर सके जिसका वर्तमान युग में अभाव है।

महायज्ञ में गायत्री माता और यज्ञ पिता का सन्देश घर-घर पहुँचाने का कार्य इस ब्रह्मभोज द्वारा ही सम्पन्न किया गया था । 24 लाख व्यक्तियों को गायत्री माता और यज्ञ पिता का महत्व समझाकर उन्हें उपासना तथा आत्मनिर्माण के पथ पर अग्रसर करने का संकल्प  ही “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का ब्रह्मभोज” है। इस कार्यक्रम को महायज्ञ के होता यजमानों ने बड़े उत्साह और साधकोचित श्रद्धा से सम्पन्न किया है। “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान साहित्य” का बड़ी संख्या में वितरण किया गया  तथा प्रत्येक गायत्री प्रेमी के घर पर ज्ञान मन्दिरों की स्थापना की गयी । “ज्ञान मन्दिर साहित्य के सैट” को 10 व्यक्तियों को पढ़ाकर धर्म प्रचारक या उपाध्याय बनने के लिए सभी सच्चे साधक प्रयत्नशील रहे । 

यदि इस साहित्य से प्रभावित होकर थोड़े से व्यक्ति भी सत्मार्गगामी हो सकें,सद्बुद्धि प्राप्त कर पाएं तो  ऐसे पुण्य का  कुछ भाग  साहित्य वितरण करने वालों  को भी  मिल सकता है। महायज्ञ में इस ब्रह्मभोज को इसलिए और भी महत्व दिया गया है कि आगे वर्षों में लाखों-करोड़ों भारतवासियों के अन्तःकरण में से आसुरी वृत्तियों, व्यक्तिगत बुराइयों तथा सामाजिक कुरीतियों को हटाने का कार्य करना था । मनुष्यों के अंतःकरण में उग रही विषैली घास एवं अन्य छोटी मोटी बूटियों को उखाड़ने-पछाड़ने  के लिए खुरपी, कुदाली और फावड़े का कार्य यह सत्साहित्य ही करेगा । यदि इस विषैली घास को समय रहते उखाड़ा न गया ,साफ़-सफाई न की गयी तो देखते ही देखते यह बड़े वृक्ष तो बन ही जायेंगें, अपने आसपास की खेती का विनाश भी कर देंगें। 

परम पूज्य गुरुदेव ने  गायत्री परिवार के सक्रिय कार्यकर्ताओं को बताया कि  छंटाई का यह कार्य एक धर्म-कर्तव्य की तरह सौंपा जायगा। इसके लिए वे प्रतिदिन आधी-आधी रोटी दोनों समय कम खायें और एक छटाँक अन्न बचा कर उसकी कीमत (दो पैसा प्रतिदिन, 1958 के आंकड़ों के अनुसार) ब्रह्मभोज में लगावें। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथी आज 2025 में उसी अनुपात में बचत कर सकते हैं। महंगाई ने मध्यम वर्ग की हर युग में कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है लेकिन महंगाई-महंगाई का अलाप गाने से कुछ नहीं होने वाला, इसका एकमात्र विकल्प यही है- खर्चा कम किया जाए, फिज़ूलखर्ची पर लगाम लगाई जाये। ब्रह्मभोज पुस्तकों के सेट  में एक पुस्तक इस विषय को भी टच करती है।     

हर व्यक्ति के परिवार में कुछ बच्चे होते हैं, हर बच्चा एक दो पैसा आसानी से Waste कर ही  देता है। समझना चाहिए की इस परिवार में एक बच्चा गायत्री माता भी है, दो पैसा प्रतिदिन उसके लिए भी दिया करेंगे। हर सद्गृहस्थ के घर में एक रोटी गाय के लिए निकलती है, कुत्ते को भी दी जाती है। इसी प्रकार एक रोटी या एक छटाँक अन्न ब्रह्मभोज के लिए, ज्ञानदान के लिए निकाला जाना चाहिए। हर साधक प्रतिज्ञा करे कि वह एक छटाँक अन्न या दो पैसा रोज इस परम पुनीत कार्य के लिए जीवन भर निकालता रहेगा। परिवार में अनेकों ऐसे व्यक्ति जिन पर मानसिक दुर्बलता, अश्रद्धा या कंजूसी सवार नहीं है, वे आर्थिक कठिनाई होते हुए भी इतना छोटा त्याग बड़ी आसानी से कर सकते हैं।

आज के ज्ञानप्रसाद का समापन यहीं पर होता है, सोमवार को इसके आगे बढ़ेंगें। 

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कल प्रस्तुत किये गए ज्ञानप्रसाद को 556 कमेंट मिले एवं 14 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूरा किया है।  सभी को ह्रदय से नमन करते हैं। 


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