15 अप्रैल 2025 मंगलवार का आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद- सोर्स: अखंड ज्योति जनवरी 1958
आज से पांच वर्ष पूर्व 2020 में भी हमने वर्तमान लेख श्रृंखला को ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया था लेकिन दो वर्ष (1957/58) के विस्तृत ज्ञान के स्वाध्याय के बावजूद हम केवल एक ही लेख लिख पाए थे । उस समय हमने उचित समझा था कि हमारे साथी स्वयं ही इस महान सहस्र कुंडीय यज्ञ के विस्तृत भण्डार का अध्ययन करें। अब दूसरी बार एक नई ऊर्जा के साथ, जो हमें साथिओं के सहयोग से प्राप्त हुई है, इस विशाल लेखन कार्य को हाथ में लिया है। पूर्ण विश्वास है कि गुरुदेव द्वारा निर्देशित एवं संचालित इस योजना में भी सफलता प्रदान होगी।
आज के लेख का शुभारम्भ करने से पहले दो टेक्निकल शब्द “ब्रह्मस्त्र एवं अनुष्ठान” को समझ लेना आवश्यक है क्योंकि यह शब्द बार-बार चर्चा का विषय बनते रहेंगें। ब्रह्मास्त्र का शब्दिक अर्थ होता है ब्रह्म का अस्त्र अर्थात ईश्वर का अस्त्र। महर्षि वेदव्यास लिखते हैं कि जहाँ ब्रह्मास्त्र छोड़ा जाता है वहां 12 वर्ष तक जीव-जंतु, पेड़-पौधों की उत्पति नहीं हो सकती। गुरुदेव ऐसे “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान” की बात कर रहे हैं जिसकी सामूहिक तप शक्ति से दुष्प्रवृतिओं का नाश होना सुनिश्चित है।
आज के लेख को लैला मजनू की ऐतिहासिक कथा के साथ आगे बढ़ाते हुए गायत्री परिवार में 1 लाख साधकों की तलाश में खरे/खोटे की छंटनी का वर्णन है।
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गायत्री परिवार के खरे-खोटे साधकों के पहचान एवं छांट के लिए पिछले लेख में लैला मजनू की प्रेम कहानी का रेफरन्स दिया था, इस लेख में उसी कहानी का वर्णन करते हैं :
लैला मजनू के किस्सों से भला कौन परिचित नहीं है, दोनों के किस्से इतने प्रसिद्ध है कि बाद में लोगों ने भी इन पर ध्यान देना बंद कर दिया था लेकिन लैला को मजनू की फिक्र बनी रहती । वह घरवालों से छुपकर अपनी सहेलियों के हाथ मजनू के लिए दूध भिजवाती थी । मजनू दूध की तरफ देखता भी नहीं था । लैला को चिंता लगी रहती। एक दिन लैला ने पूछा, “अब मजनू का क्या हाल है ?” सहेलियों ने बताया, “अब तो दूध पी लेता है ,स्वास्थ्य भी ठीक हो रहा है।” लैला को शक हुआ, उसने सहेलियों से कहा, “आज जब दूध का लेकर जाओ तो मजनू के दूध पी लेने के बाद कहना कि लैला की तबीयत ठीक नहीं है । हकीम साहब ने कहा है कि मजनू के एक प्याला खून से दवा बनाकर देने से ही लैला ठीक हो सकती है,नहीं तो लैला मर जाएगी। सहेलिओं से दूध लेकर मजनू ने पिया, उन्होंने एक प्याला खून की बात की मजनू ने कहा, “असली मजनू तो यहाँ से उठकर उस पेड़ के नीचे जा बैठा है। खून चाहिए तो उसके पास जाओ। हम खून देने वाले नहीं, हम तो दूध पीने वाले मजनू हैं।”
सहस्र कुंडी महायज्ञ का अवसर गायत्री-उपासकों के लिए निश्चित रूप से एक चुनौती एवं परीक्षा जैसा है। मनुष्यों को व्यक्तिगत जीवन में अनेकों कठिनाइयाँ आती रहती हैं। समय की कमी होना, फुरसत न होना, आर्थिक परेशानियां, अस्वस्थता,अकेलापन आदि अनेकों कारण गिनाये जा सकते हैं। शायद ही कोई मनुष्य होगा जो इन कारणों के बोझ तले दबा हुआ न हो। यह सभी कारण व्यक्तिगत एवं वास्तविक हैं लेकिन यह भी इतना ही वास्तविक है कि अनेक बाधाओं के बावजूद भी मनुष्य चाहे तो अनेकों कठिनाईयों एवं व्यस्तताओं के बीच भी बहुत कुछ कर सकता है,अनेकों साथी बहुत कुछ कर भी रहे हैं। समस्या केवल श्रद्धा-अश्रद्धा, रुचि-अरुचि, आलस्य-उत्साह की है।
गुरुदेव कहते हैं कि अब हर एक परिजन को स्पष्टीकरण देकर,अपनी स्थिति के बारे में बताना होगा कि कौन असली मजनू है जो अपने खून का प्याला देने को तत्पर है।
समाज में एक धारणा बनी हुई है कि जो स्वजन, सम्बन्धी विवाह-शादी,मृत्यु, मुसीबत,दुःख-सुख आदि में सम्मिलित नहीं हो पाते या सहयोग नहीं करते,इन्होने हमसे अपना सम्बन्ध तोड़ लिया है। ऐसे सम्बन्धी के बारे में यही कहा जाता है कि वह स्वार्थी हो गया है,जगह-जगह उसकी बुराई-निंदा भी करते रहते हैं । इसके विपरीत जो लोग जरूरत के वक्त,आड़े समय में जितना अधिक सहयोग करते हैं, उत्साह दिखाते हैं, वे उतने ही घनिष्ठ एवं आत्मीय माने जाते हैं।
गुरुदेव कहते हैं कि आड़े समय में ही अपने/पराये की परख होती है,परीक्षा होती है। आड़े वक्त पर काम आने या न आने की बात से ही सच्चे/ झूठों की, खरे/खोटों की परख होती है। गायत्री परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ना/परिवार का विस्तार होना, अच्छी बात है लेकिन इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि इनमें से खरे-खोटों की परख भी होती रहे, छंटनी होती रहे।
“सहस्र कुंडीय यज्ञ का आयोजन एवं इसकी पूर्णाहुति इस दृष्टि से एक उचित समय है।”
जो परिजन अपनेआप को गायत्री परिवार के “खरे परिजनों” में शामिल करते हैं, सदा कहते रहते हैं कि हम तो गुरुदेव के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, ऐसे परिजनों के लिए यह समय बड़ा ही महत्वपूर्ण है। उनके लिए आवश्यक है कि वे अगले 10 महीनों में पूरी तत्परता एवं जिम्मेदारी के साथ इस महान कार्य में संलग्न हों,अपनी पात्रता एवं निष्ठा को प्रमाणित करें और पूर्णाहुति को सफल बनाने के लिए वही लगन रखे, जैसी कोई व्यक्ति अपने घर में विवाह-शादी के समय या किसी चुनाव में खड़े होने पर वोट माँगने के लिए रखता है। बात बिगड़ने का अवसर आता है,तो लोग अपना सर्वस्व दाव पर लगा देते हैं।
इतने बड़े आयोजन की घोषणा कर देने के बाद यदि वह असफल रहे तो यह केवल हमारी स्वयं की,तपोभूमि की ही जग हँसाई नहीं होगी,सारे गायत्री परिवार की होगी। अगर ऐसा होता है तो यह मात्र दो वर्ष पुरानी, नवजन्मीं संस्था किस मुँह से जीवित रहेगी?
1 लाख याज्ञिकों को ढूंढ पाना सबसे कठिन कार्य है।
पूर्णाहुति के लिए 1 लाख याज्ञिकों की आवश्यकता है। “यह कार्य सबसे बड़ा एवं सबसे कठिन है।” गुरुदेव को ऐसे Trained श्रद्धालु साधकों (पुरोहित और यजमान) की तलाश थी जो सवालाख अनुष्ठान एवं 52 उपवास करें। इस स्तर के एक लाख साधक ढूँढ़ निकालना या तैयार करना सचमुच ही बहुत कठिन है। ऐसे व्यक्ति तलाश करने से पहले बड़ी संख्या में “साधारण गायत्री सदस्य बनाने पड़ेंगे तथा अधिकाधिक लोगों को गायत्री माता एवं यज्ञ पिता का विस्तारपूर्वक महत्व समझाना पड़ेगा। इस तलाश के लिए “धर्मफेरी” लगाये बिना काम नहीं चल सकता। इस कार्य के लिए दो तरह के सदस्यों से तलाश करने पड़ेगी। 1) जो अभी नये ही भर्ती हुये हैं, उन्हें उपासना और स्वाध्याय का चस्का लगाया जा रहा है। वे उपासना और स्वाध्याय के आवश्यक धर्म कर्तव्यों को न छोड़ने पायें इसके लिये विशिष्ट सदस्य बार-बार प्रेरणा देते रहें । 2) दूसरी श्रेणी में वरिष्ठ सक्रिय सदस्य हैं जो अपनी नियमित उपासना तथा स्वाध्याय करने के अतिरिक्त जनसेवा के दो कार्य (ब्रह्मदान और धर्मफेरी) के महत्वपूर्ण कार्य भी कर रहे हैं। उनके मस्तिष्क में यह विचार गहराई तक जमे हुए हैं कि प्रत्येक सच्चे धर्म सेवक का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वह स्वयं भले ही एक रोटी खाकर भूखा सो जाये लेकिन संसार में सद्ज्ञान फैलाने के लिए, एक मुट्ठी अन्न या एक-दो पैसा प्रतिदिनदान अवश्य करे। इन वरिष्ठ श्रेणी के साधकों की अन्तरात्मा में यह बात जमी रहती है कि जिस प्रकार नित्य कुछ न कुछ दान ब्रह्मदान के लिये करना आवश्यक है उसी प्रकार थोड़ा बहुत समय धर्म प्रचार में भी लगाया जाना चाहिये। घर बैठे, बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते रहने से, योजनाएं बनाते रहने से, कुछ काम चलने वाला नहीं है। धर्म प्रचार के लिए परिश्रम की,धर्मफेरी की सच्ची तीर्थयात्रा आवश्यक है। लोगों के घरों में जाकर उन्हें धर्म प्रेरणा देने में जिसे शर्म, झिझक, हेठी, तौहीन का अनुभव नहीं होता बल्कि प्रसन्नता अनुभव होती है। वही सच्चा धर्म सेवक है।
उपासना और स्वाध्याय के अतिरिक्त ब्रह्मदान और धर्मफेरी के कर्तव्य का पालन करने वाले वरिष्ठ सक्रिय धर्म सेवकों को “उपाध्याय” के नाम से पुकारा जाता है । प्राचीनकाल में धर्म शिक्षक लोग ही उपाध्याय कहलाते थे। “उपाध्याय” गोत्र इसी श्रेणी के लोगों का प्रतीक है लेकिन आजकल तो इस गोत्र वाले भी नाममात्र के ही उपाध्याय हैं। धर्म प्रचार का कर्तव्य छोड़ बैठे हैं।
गायत्री परिवार की यह विशिष्ट श्रेणी सचमुच के ‘उपाध्याय’ के कर्तव्य पालन का व्रत धारण करेगी। इसके लिये हर उपाध्याय अपना पेट काटकर भी कुछ त्याग निरन्तर करता रहे तो ही उचित होगा, उदासीन लोगों को चस्का लगाने के लिये, उनके घरों पर जाना पड़ेगा। खुशामद करके अपनी पुस्तकें लोगों को पढ़ने देने और उनसे वापिस लाने के लिये जाना होगा। इस कार्य के लिए कुछ समय लगाना,पैदल चलना, एक श्रेष्ठ धर्मफेरी तीर्थयात्रा समझी जाएगी।
चूँकि महायज्ञ के अंतर्गत 24 लाख व्यक्तियों को आध्यात्मिक शिक्षा देने, गायत्री और यज्ञ का महत्व बताने का कार्य भी करना है, यह दोनों कार्य एक ही विधि से धर्मफेरी से पूर्ण होने संभव हैं। गुरुदेव ने वर्ष 1958 में 1250 करोड़ जप करने का लक्ष्य निर्धारित किया था । इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए 1 लाख ऐसे याज्ञिकों की आवश्यकता थी जो सवा लाख जप कर सकें। यों तो 240 लाख आहुतियाँ 1024 कुण्डों में 10 हजार व्यक्ति ही कर सकते हैं लेकिन इस महायज्ञ का उद्देश्य आहुतियाँ पूरी करने का नहीं बल्कि 1 लाख गायत्री उपासकों की श्रद्धाशक्ति का एकीकृत केन्द्रीकरण (Unified centralization) किया जाय और उनके सम्मिलित तप से 1250 करोड़ जप 10 महीने में पूर्ण हो। यह सारी प्रक्रिया एक ही कार्य पर अवलम्बित है कि अधिकाधिक लोगों तक इस वर्ष गायत्री माता का सन्देश पहुँचाया जाय। घर-घर अलख जगाया जाय, किसी व्यक्ति को यह कहने का अवसर ही न मिले कि हमें गायत्री और यज्ञ की महत्ता मालूम न थी अन्यथा हम भी उन्हें अपनाते। इतने बड़े ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का हमें पता ही न चला, नहीं तो हम भी उसमें सम्मिलित होते। “यह शिकायत करने का किसी को अवसर न रहे, यह प्रयत्न हमें करना है।” वैसे तो यह समझा ही जाता है कि जिन पर प्रभु की विशेष कृपा होगी, जिनका कल्याण होने वाला होगा, उन्हीं की प्रवृत्ति इस ओर झुकेगी, उन्हीं की बुद्धि इसका महत्व समझेगी, सब कोई इसका महत्व नहीं समझेंगे और न इधर ध्यान देंगे लेकिन दूसरी तरह के लोगों की चिन्ता न करते हुए हमें तो अपने कर्तव्य का पालन करना है। घर-घर में गायत्री माता और यज्ञ पिता के सन्देश पहुँचा देने का यही 10 महीने का अवसर है और इस अवसर का हमें एक क्षण भी गँवाये बिना पूरा-पूरा उपयोग करना है।
इसके आगे कल वाले लेख में :
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कल वाले लेख को मात्र 364 कमैंट्स ही मिल पाए, 8 साधकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, सभी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।