8 अप्रैल 2025 का ज्ञानप्रसाद- अखंड ज्योति अक्टूबर 1953
आज के आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद के कंटेंट से अधिकतर साथी परिचित होंगें क्योंकि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का कोई ही साथी होगा जो यज्ञ एवं उससे होने वाले स्वास्थ्य लाभों की जानकारी न रखता हो।
अक्टूबर 1953 की अखंड ज्योति में “यज्ञ द्वारा आरोग्य लाभ” शीर्षक से प्रकाशित लेख में दिया गया ज्ञान उस विशाल ज्ञान का अत्यंत ही छोटा सा स्वरूप है जिसे आजकल रिसर्च संस्थानों में “यज्ञोपैथी,यज्ञ थेरेपी” जैसे हाई फाई टाइटल के अंतर्गत रिसर्च डिग्रियां प्रदान की जा रही हैं। बड़े ही गर्व की बात है कि यज्ञ से सम्बंधित लुप्त होता पुरातन ज्ञान,आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति की सहायता से पुनर्जीवित हो रहा है। आज के लेख में पुरातन वेद ग्रंथों के अर्थ सहित मन्त्र दिए गए हैं जो यज्ञ की शक्ति को प्रमाणित कर रहे हैं। इसी प्रमाण के लिए, रोज़मर्रा के जीवन से भी कुछ उदाहरण देकर समझने का प्रयास किया गया है।
तो आइये आज के एकांकी (एक ही पार्ट वाला) ज्ञानप्रसाद लेख का अमृतपान करने के लिए विश्वशांति की प्रार्थना करते गुरुचरणों में समर्पित हो जाएँ।
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यज्ञ में आरोग्यवर्धक एवं रोग निवारक अद्भुत गुण हैं। जहाँ यज्ञ होते हैं। वहाँ सामूहिक रोगों की निश्चित रूप से कमी होती हैं। जलवायु का परिमार्जन एवं संशोधन होने से उनके रोग कारण दोष हट जाते हैं और आरोग्यवर्धक गुण बढ़ते हैं। फलस्वरूप अनेक रोगों से हम अपनेआप ही मुक्त हो जाते हैं । यज्ञ करना एक बड़ा अस्पताल खोलने के समान है जिससे अगणित रोग ग्रस्तों तथा भविष्य में बीमार पड़ने वाले लोगों का इलाज उनके घर बैठे ही हो जाता है। चिकित्सा पर जो धन, समय, श्रम, चिन्ता, काम में हानि आदि की कठिनाई होती है उससे अनेक रोग बन जाते हैं।
यज्ञ के आरोग्यवर्धक, रोग निवारक गुणों का वर्णन करने वाले अनेकों मंत्र वेद ग्रंथों में भरें पड़े हैं उनमें से कुछ एक ही अर्थ सहित नीचे दिए जा रहे हैं:
ममाग्ने वर्चोविहवेष्वस्तु वयं त्वेन्धाना स्तन्वं पुषेम अर्थात हे अग्नि, हम आपको यज्ञ में प्रदीप्त करते हैं, आप हमारे शरीर को पुष्ट और तेज को प्रदीप्त करो।
यदि क्षितायुर्यदि का परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीति एवं। तमाहरामि निऋर्तरुपस्था दत्वार्षमेन शत शारदाय अर्थात यदि रोगी अपनी जीवन शक्ति को खो भी चुका हो, निराशाजनक स्थिति को पहुँच गया हो, यदि मरणकाल भी समीप आ पहुँचा हो तो भी उसको मैं मृत्यु के चंगुल से बचा लेता हूँ और सौ वर्ष जीने के लिए पुनः बलवान कर देता हूँ।
सहस्त्राक्षेण शतवीर्येण शर्तायुषा हविषाहार्षमेनम्। इन्द्रौ यथैनं शरदो नयात्यति विश्वस्य दुरितस्य पारम। अर्थात हजारों शक्तियों से युक्त, सौ वर्ष की आयु देने वाले इस हवन द्वारा रोगों को मौत के पंजे से बचाता हूँ। प्रभु इसे समस्त पापों तथा रोगों से मुक्त करें।
कोई पदार्थ अपने स्थूल रूप में जितना शक्तिशाली होता है उसकी अपेक्षा वह सूक्ष्म रूप में अधिक प्रभावशाली एवं विस्तृत हो जाता है। आयुर्वेद ग्रन्थों में वर्णन है कि बादाम को साबुत खाने की अपेक्षा पीसकर खाने में अधिक गुण होते हैं। पीसने की अपेक्षा घिसकर खाना अधिक लाभदायक है। कारण स्पष्ट है, जो वस्तु जितनी बारीक होती जाती है, सूक्ष्म बनती जाती है उतने ही उसके गुण बढ़ते जाते हैं। रोटी के ग्रास यों ही अधकुचले निगल लिए जायं तो वह भोजन उतना लाभदायक न होगा जितना कि खूब चबा-चबाकर बारीक करके खाया हुआ भोजन। सोने/चाँदी का टुकड़ा खाने से किसी लाभ की आशा नहीं की जा सकती लेकिन देसी दवाओं में प्रयोग की जाने वाली सोना/चाँदी/हीरा भस्म के लाभ से शायद ही कोई अपरिचित हो ।
औषधिविद्या के ज्ञाता जानते हैं कि किसी औषधि को जैसे-जैसे रगड़ कर बारीक किया जाता है,वह उतनी ही अधिक प्रभावशाली बनती जाती है। इसका भी कारण यही है कि स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक प्रभावशाली होती है। यज्ञ में अर्पित की जाने वाली हवन सामग्री को अग्नि स्थूल से सूक्ष्म बना देती है जिसके फलस्वरूप उसकी शक्ति एवं उपयोगिता भी अनेकों गुना बढ़ जाती है।
विज्ञान के बहुत ही बेसिक Law of conservation of energy के अनुसार एनर्जी कभी भी खत्म नहीं होती है। यह केवल एक फॉर्म (Form) से दूसरी फॉर्म में बदल जाती है। कार्बोहायड्रेट, प्रोटीन, Fat आदि एक तरह की एनर्जी हैं जो खाने से शरीर को कार्य करने की शक्ति प्रदान करते हैं अर्थात Food energy gets converted to mechanical energy.
अक्सर कहा जाता है कि किसी वस्तु को अग्नि में जलाने से वह नष्ट (ख़त्म) हो जाती है लेकिन यह सरासर ग़लत है । विज्ञान के उपरोक्त सिद्धांत के अनुसार कोई भी पदार्थ कभी नष्ट नहीं हो सकता, उसका केवल रूपांतरण होता रहता है। जो वस्तु अभी प्रतक्ष्य मूर्त रूप में दिखाई दे रही थी,अग्नि से Decompose होती है, जल से Dissolve होती है या किसी अन्य प्रकार से नष्ट होती है तो उसके समस्त परमाणु ज्यों के त्यों अक्षुण्य रहते हैं। इन प्रक्रियों से उनका रूप भले ही बदल जाय लेकिन अस्तित्व बराबर बना रहता है।
यज्ञ के दौरान अर्पित की गयी हवन सामग्री देखने में तो जल कर दिव्य भस्म बन रही है, दिव्य धूम्र आकाश में जा रहा है, लेकिन यह दोनों ही उस हवन सामग्री के बदले हुए रूप हैं,अर्थात हवन सामग्री का रूपांतरण हो जाता है। जो हवन सामग्री स्थूल रूप में डिब्बे में बंद थी अब वह सूक्ष्म होकर धूम्र रूप में विशाल क्षेत्र में फैलकर अपना व्यापक प्रभाव दिखाती है। वैज्ञानिकों ने इस प्रक्रिया को Diffusion का नाम दिया है, इसका बहुप्रचलित उदाहरण Perfume हो सकता है जिसकी कुछ बूँदें स्प्रे करते ही आसपास में प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। अपनी रोज़मर्रा ज़िंदगी से इस सिद्धांत के अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं। स्थूल की तुलना में सूक्ष्म की अधिक शक्ति के इस सिद्धान्त के आधार पर ही यज्ञ की उपयोगिता समझी जा सकती है।
रोग के कीटाणुओं की बात करते ही कोरोनाकाल आँखों से सामने घूम जाता है। इन कीटाणुओं को बिना माइक्रोस्कोप के देखना तो असम्भव है लेकिन उनका घातक परिणाम सब जानते हैं। साधारणतया एक इंच में करोड़ों नहीं तो हज़ारों/लाखों कण तो होते ही हैं । दवा लेने में टेबलेट, Syrup, इंजेक्शन, तीनों में से सबसे प्रभावशाली मार्ग इंजेक्शन ही है इससे भी अधिक प्रभावशाली Vapours हैं क्योंकि इस तरीके से दवाई के परमाणु श्वास के साथ, रोम-रोम में प्रचुर मात्रा में पहुँच जाते हैं । Tablet खाने पर वह पहले पेट में पचती है,फिर रक्त में मिलती है,फिर रक्त के माध्यम से उस अंग तक पंहुचती है।
हवन की प्रक्रिया से औषधि को इस Three-step प्रक्रिया का सामना किये बिना ही शरीर के किसी भी भाग तक आसानी से पहुँचाया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि हवन द्वारा औषधियों के प्रभाव शरीर के गहरे से गहरे स्थान तक पंहुचाये जा सकते हैं। यज्ञ कुंड में अर्पित की जाने वाली औषधि-युक्त हवन सामग्री सूक्ष्म होकर निकटवर्ती लोगों के शरीर में प्रवेश करती हैं और रक्त में ऐसा प्रभाव छोड़ देती हैं कि फिर वहाँ रोगों का आक्रमण नहीं हो सकता और “पूर्ण सुरक्षा” की उचित व्यवस्था स्वयं ही हो जाती है। विज्ञान इसी प्रक्रिया को “इम्युनिटी” कह कर समझाता है। अक्सर धारणा बनी हुई है कि अश्वमेध यज्ञों/महाकुम्भ जैसे बड़े-बड़े आयोजनों में अधिक जनसमूह इकट्ठा होने के कारण रोग आदि बढ़ने का भय होता है लेकिन रोग तो दूर उलटे इन आगन्तुकों को स्वास्थ्य लाभ होता था।
जिस समय गुरुदेव ने इस लेख की रचना की होगी उस समय मनुष्य अपनेआप को बहुत बड़ा ज्ञानी समझते हुए, “आध्यात्मिक विज्ञान” से दूर भाग रहा था, उसे घृणा और अपेक्षा की दृष्टि से देख रहा था और उसी भेड़चाल में, अन्धानुकरण को अपनी बुद्धिमत्ता और प्रगतिशीलता मान रहा था लेकिन परम पूज्य गुरुदेव के अथक प्रयास से आज वोह स्थिति नहीं है। मनुष्य ने Scientific spirituality के बेसिक तथ्यों को समझने का प्रयास किया है, विश्व भर के Research organisations ने यज्ञ को मान्यता देते हुए,उसके लाभ पर ध्यान देना आरम्भ किया है। यज्ञ के फील्ड में अनेकों शोधकार्य हो रहे हैं।
केमिस्ट्री के शोधकर्ताओं ने अग्नि और धुँए के वायु पर प्रभाव स्टडी करने के लिए गहरी शोध की है। उन्होंने विभिन्न पदार्थों के जलने से उत्पन्न धुओं की Properties की जाँच करके पता लगाया है कि अनेकों वस्तुएँ ऐसी हैं जो अपने साधारण रूप की अपेक्षा जलने पर बहुत लाभदायक बन जाती हैं। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ऐसी रिसर्च का जीता जागता स्वरूप है।
शक्कर जलाने से जो गैस बनती है वोह वायु में छाये हुए हैजा, क्षयरोग , चेचक आदि के रोग कीटाणुओं को दूर करती है। गन्ने की साधारण खाँड की अपेक्षा मुनक्का, छुहारा, किशमिश मीठे पदार्थों से जो गैस उत्पन्न होती है उसमें बैक्टीरिया के नाश के इलावा पोषण के भी विशेष गुण हैं । Chemist शॉप पर Formalin नामक बिकने वाला Liquid घरों को कीटाणुओं से मुक्त करने में प्रयोग किया जाता है।फार्मेलिन लकड़ियों को जलाकर बनाई हुई गैस का द्रव रूप ही है। साधारण लकड़ियों की गैस से बनी फार्मेलिन जब इतनी उपयोगी है तो हवन में प्रयुक्त होने वाली सामग्री का यज्ञ धूम्र कितना उपयोगी होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
देव संस्कृति विश्वविद्यालय एवं विश्व के अनेकों रिसर्च संस्थानों में हो रही रिसर्च ने आरोग्य वृद्धि और रोग निवारण के लिए प्राचीन सिद्धांतों को समझना शुरू कर दिया है। हमारे पुरातन ऋषि मुनि आरोग्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान होते थे। वह सूक्ष्म वैज्ञानिक परीक्षा द्वारा जान लेते थे कि इस समय वायुमण्डल में किस विकार के बढ़ जाने से कौन सा रोग फैला हुआ है और उसके निवारण के लिए किन औषधियों का हवन करना चाहिए। व्यक्तिगत रोगों के लिए भी ऐसे हवनों का आयोजन किया जाता था। रोगी के शरीर में कौन सी व्याधि बढ़ी हुई है, कौन से तत्व घट-बढ़ गये हैं उनकी पूर्ति करने एवं शरीरगत धातुओं का संतुलन ठीक करने के लिए किन औषधियों की आवश्यकता है वह उनका निर्माण करते थे और उन औषधियों की हवन सामग्री बना कर, वेद मन्त्रों से आहुतियाँ दिला कर हवन कराते थे ।
गर्व की बात है कि आज होमियोपैथी, एलोपैथी की भांति यज्ञोपैथी भी स्वास्थ्य लाभ की दिशा में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है। नीचे दिए गए लिंक से अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरुदेव के सूक्ष्म मार्गदर्शन में, DSVV में इस दिशा में कैसे विशाल ज्ञानकोष का संग्रह हो रहा है।
अंत में इतना ही कह कर समापन करते हैं कि लुप्त हो रही पुरातन यज्ञ चिकित्सा एक बार फिर से सनातन गौरव की ओर अग्रसर हो रही है।
जय गुरुदेव
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परिस्थितिवश कल वाले ज्ञानप्रसाद लेख को मात्र 337 कमेंट ही मिल पाए एवं 8 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूरा किया। सभी का हृदय से धन्यवाद् करते हैं।