7 अप्रैल 2025,सोमवार का ज्ञानप्रसाद – सोर्स:अखंड ज्योति अक्टूबर 1958
आज का आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख, उस लेख का दूसरा एवं समापन पार्ट है जिसका प्रथम पार्ट पिछले सप्ताह गुरुवार को प्रस्तुत किया था। पिछले सप्ताह भी लिखा था, आज फिर लिख रहे हैं कि सात दशक पूर्व जन्में इस परिवार ने जिस विशाल वृक्ष का रूप ले लिया है उस पर कुछ भी लिख पाना अंगारों को छू कर हाथ जलाने जैसा ही है।
परम पूज्य गुरुदेव गायत्री परिवार को एक ऐतिहासिक संगठन कहते हुए तीन श्रेणी के सदस्यों की बात कर रहे हैं जिन्हें समझना बहुत ही आवश्यक रहेगा। ज्यों ज्यों लेख आगे बढ़ेगा, अनेकों अति आकर्षक टेक्निकल शब्द (धर्मसेवक, ज्ञानमंदिर, उपाध्याय, धर्मफेरी, ज्ञानदीप, धर्मफेरी तीर्थयात्रा, आत्मदानी), आज के लेख को रोचक बनाते जायेंगें। विश्वास करते हैं कि इस शब्दावली से अधिकतर साथी परिचित ही होंगें, अगर कहीं शंका हो तो गूगल टीचर की सहायता ली जा सकती है, लेकिन जानने का प्रयास अवश्य किया जाना चाहिए। कईं बार साधारण से दिखने वाले शब्द अपने अंतःकरण में गूढ़ ज्ञान लिए होते हैं।
तो आइये गुरुचरणों में समर्पित होकर आज के ज्ञानामृत का पयपान करें।
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गायत्री-परिवार एक ऐतिहासिक संगठन
गायत्री परिवार द्वारा लोकहित के, युगनिर्माण के अनेक कार्यक्रम हाथ में लिये जा रहे है। इस संगठन में दो तरह के सदस्य हैं –
पहली श्रेणी के वोह सदस्य हैं जो अभी नये ही भर्ती हुए हैं, उन्हें उपासना और स्वाध्याय का चस्का लगाया जा रहा है। वे उपासना और स्वाध्याय के आवश्यक धर्म कर्तव्यों को न छोड़ने पायें इसके लिये वरिष्ठ सदस्य बार-बार प्रेरणा देते रहते हैं।
दूसरी श्रेणी में वरिष्ठ सक्रिय सदस्य हैं जिन्हें अपनी नियमित उपासना/स्वाध्याय करने के अतिरिक्त जनसेवा के दो कार्य (ब्रह्मदान, धर्मफेरी) भी करने होते हैं। पहली श्रेणी के सदस्यों के मस्तिष्क में पहली बात तो यह गहराई तक जमाई जाती है कि प्रत्येक सच्चे धर्मसेवक का यह एक आवश्यक कर्तव्य है कि भले ही वह स्वयं एक रोटी खाकर भूखा सो जाये लेकिन एक मुट्ठी अन्न या एक/दो पैसा रोज संसार में सद्ज्ञान फैलाने के लिये, ज्ञानयज्ञ के लिये, समयदान अवश्य करे। दूसरी बात जो इन वरिष्ठ श्रेणी की अन्तरात्मा में जमाई जाती है वह यह है कि जिस प्रकार नित्य कुछ न कुछ दान ब्रह्मदान के लिये करना आवश्यक है उसी प्रकार थोड़ा बहुत समय भी धर्मप्रचार में लगाया जाना चाहिये। घर बैठे बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते रहने से, योजनाएं बनाते रहने से कुछ काम चलने वाला नहीं है। धर्मप्रचार के लिए परिश्रम की, प्रदक्षिणा की, धर्मफेरी की सच्ची तीर्थयात्रा आवश्यक है। लोगों के घरों पर जाकर उन्हेंधर्म प्रेरणा देने में जिसे शर्म, झिझक, हेठी, तौहीन का अनुभव नहीं होता बल्कि प्रसन्नता अनुभव होती है वही “सच्चा धर्मसेवक” है।
उपासना और स्वाध्याय के अतिरिक्त ब्रह्मदान और धर्मफेरी का पालन करने वाले वरिष्ठ सक्रिय धर्मसेवकों की अब एक विशेष श्रेणी बनाई जा रही है जो “उपाध्याय” के नाम से पुकारी जायगी। प्राचीनकाल में धर्मशिक्षक लोग ही उपाध्याय कहलाते थे। “उपाध्याय” गोत्र इसी श्रेणी के लोगों का प्रतीक है लेकिन अब तो इस गोत्र वाले भी नाममात्र के ही उपाध्याय हैं। गायत्री परिवार की यह विशिष्ट श्रेणी सचमुच के “उपाध्याय” के कर्तव्य पालन का व्रत धारण करेगी। हर उपाध्याय के घर पर उसका एक व्यक्तिगत “गायत्री ज्ञानमन्दिर” होगा। इस छोटे से संस्थान का वह स्वयं ही संस्थापक संचालक, संरक्षक, प्रधान, मन्त्री तथा कार्यकर्ता होगा। उसका परम पवित्र कर्त्तव्य होगा कि अपने घर के इस देवमन्दिर के पास ज्ञान की, सत्साहित्य की, अधिकाधिक सम्पत्ति जमा करे।
“ज्ञान की देवी गायत्री को रेशमी वस्त्रों और सुनहरी आभूषणों से नहीं,सद्ग्रन्थों से, सत्साहित्य से सजाया जाता है।”
अपना ज्ञानमन्दिर इस दृष्टि से खूब सम्पत्तिवान् एवं सुसज्जित हो, इसके लिये प्रत्येक उपाध्याय अपना पेट काटकर भी कुछ त्याग निरन्तर करे तो अनुचित नहीं होगा । गुरुदेव ने गायत्री परिवार की परिभाषा का वर्णन करते हुए आगे कहा है कि केवल सत्साहित्य और सद्ग्रन्थों के सजाने मात्र से कार्य पूरा न होगा बल्कि उपाध्याय को साहित्य पढ़ने/पढ़ाने के लिए भी प्रयास करना पड़ेगा, इस ओर से उदासीन लोगों को चस्का लगाने के लिये,उनके घरों पर भी जाना पड़ेगा। अपने मोहल्ले वालों की खुशामद भी करनी पड़ेगी, अपनी पुस्तकें लोगों को पढ़ने के लिए देनी,उनसे वापिस लाने के लिये जाना होगा। इस कार्य के लिए कुछ समय लगाना, पैदल चलना, “एक श्रेष्ठ धर्मफेरी तीर्थयात्रा समझेगा।”
इस प्रकार “प्रत्येक ज्ञानमन्दिर व्यक्तिगत एवं छोटा संस्थान होते हुए भी ज्ञानप्रसार का, धर्म प्रसार का, एक अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र होगा। इस ज्ञानदीप की किरणें अपने आस-पास के क्षेत्र में धार्मिकता का प्रकाश फैलाकर अनेक आत्माओं के अन्त:स्थल में जीवन ज्योति प्रकाशित करने का ठोस काम करेंगी।
उपाध्यायों और हज़ारों ज्ञानमन्दिरों के जलाये हुए ज्ञानदीप, मनुष्य के अंतःकरण की अंधेरी रात में भी दीपावली की झिलमिल आभा पैदा करेंगे जिससे “तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय,मर्त्यु माँ मृतंगमय” की दिव्य किरणें बिखर पड़ेंगी।
बृहदारण्यकोपनिषद् के इस श्लोक का अर्थ है: मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
तीसरी उच्च श्रेणी के आत्मदानी वे लोग होंगे, जो स्वयं को सभी प्रकार की धर्मसेवा के लिए समर्पित कर देंगे, अपनी व्यक्तिगत वासना और तृष्णाओं को तिलाँजलि देकर शरीर और मन से हर घड़ी धर्मसेवा की बात ही सोचेंगे। व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा चाहे वह धन जमा करने की हो, विलास करने की हो या सूक्ष्म जगत में ऋद्धि सिद्धि की हो या कारण क्षेत्र में स्वर्ग मुक्ति की हो, तीनों को ही, वासनाओं और कामनाओं को छोड़कर गीता के अनासक्त कर्मयोगी की तरह धर्मसेवा के लिये स्वयं को भगवान को समर्पित करेंगें ।
गत कुछ वर्षों का संस्था को एक बड़ा कटु अनुभव है। वह यह कि कामचोर, शारीरिक परिश्रम में अपमान समझने वाले, विद्या पढ़ने और मानसिक श्रम से दूर भागने वाले, लापरवाह एवं दुर्गुणों से भरे हुये साधु-बाबा जी प्रकृति के लोग आत्मदानी बनकर मुफ्त की रोटी तोड़ने के लिये हमारे परिवार में आ घुसते हैं। ऐसे लोगों की इच्छा केवल मुफ्त की रोटी खाने और समय काटने तक ही नहीं रहती बल्कि वह और भी अनेक प्रकार के नैतिक-अनैतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं। इन लोगों को जब रोका जाता है तो इतने दिन के प्राप्त हुए लाभों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करके चुपचाप चले जाना तो दूर उलटे अपने मिशन की जड़ पर ही कुल्हाड़ा चलाने को उतारू हो जाते हैं।
ऐसे लोगों के सम्बन्ध में अब आगे से बहुत सावधानी बरती जायगी। बहुत सोच समझ कर, बहुत ठोक बजाकर, ही किसी का आत्मदान स्वीकार किया जायगा। कठोर परख रखते हुए ही संस्था को सच्चे आत्मदानी मिलेंगे, भले ही वे थोड़े हों लेकिन जो मिलेंगे, सच्चे ही मिलेंगे और ठोस काम करेंगे।
उच्च श्रेणी के सदस्यों की सदा से बड़ी कमी है। गायत्री माता इसे भी पूरा करेगी। जब इतनी कमियाँ पूरी हो गई, होती जा रही हैं तो गायत्री परिवार आत्मदानियों की प्यास के कारण,प्यासी न मरने पायेगी । देवता-तुल्य कोई सज्जन मनुष्य अपना जीवनअमृत टपका कर युग की इस प्यास को भी तृप्त करने के लिए निकल ही आयेंगें । युग निर्माण की खेती को उपजाने के लिए, स्वयं को गला देने के लिए सदा-तत्पर आत्मदानियों का बीज चाहिए। इस बीज के बिना यह ऋषिभूमि बंजर ही पड़ी रहे ऐसी बात नहीं है। दधीचि की आत्मा कहीं आकाश में घूम रही होगी तो किन्हीं जागृत आत्माओं में अपनी प्रेरणा अवश्य भर देगी।
राष्ट्र की अन्तरात्मा का कायाकल्प करना जितना आवश्यक है, उतना कठिन भी है। इससे निहित स्वार्थों को चोट पहुँचती है। जब किसी की अनैतिक, अनुचित स्वार्थपरता को चोट पहुँचती है, वे तिलमिलाते हैं और इस महाअभियान को जैसे भी बने, नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। अब कानूनी स्थिति, राजसत्ता का इतना विकास तो हो गया है कि प्राचीनकाल के असुरों की तरह अपने बाहुबल के आधार पर किसी का सिर काट लेना तो सरल नहीं रहा है लेकिन दूसरे नई तरह के हथियार निकल आये हैं। जनता में मतिभ्रम पैदा करके उस आन्दोलन या संस्था के प्रति लोगों में अश्रद्धा या असहयोग के भाव पैदा कर देना, इस तरह के हथियार हैं । इस हथियार से किसी भी श्रेष्ठ आन्दोलन को बिना तलवार के आसानी से मारा जा सकता है। निहित स्वार्थ वाले लोग इस प्रकार के हथियार जन्मकाल से ही चलाते रहे हैं लेकिन प्रसन्नता इतनी ही है कि परिवार के हर सदस्य ने यह समझ लिया है कि नैतिक और धार्मिक क्राँति करने वालों को, युगनिर्माण की महान् प्रक्रिया पूर्ण करने वालों को, ऐसे विरोधों, और लाँछनों को आघातों को सहना ही होगा। अब यह संगठन इस स्वाभाविक प्रतिक्रिया को समझ गया है और विरोधियों के बुरे से बुरे दुष्प्रचार को विफल कर देने लायक अपना मनोबल इक्क्ठा कर चुका है। जैसे-जैसे हमारा अभियान बढ़ेगा वैसे-वैसे निहित स्वार्थों का विरोध भी तीव्र होगा। इस आँधी तूफान से यह नन्हा-सा आन्दोलन भूमिसात् न हो जाय इसके लिए अन्य प्रयत्नों के साथ हमें इस ओर भी पूरा-पूरा ध्यान रखना होगा।
गायत्री-परिवार तपस्वी सच्चरित्र, सेवाभावी, आस्तिक, एवं धर्मव्रती लोगों का एक उच्चकोटि का संगठन बनने जा रहा है। सम्मिलित परिवार के रूप में गायत्री-परिवार के सदस्य लोग मिल जुल कर, कौटुम्बिक सहकारी समिति के आधार पर, बड़े पैमाने पर सम्मिलित आजीविका, सम्मिलित कृषि, सम्मिलित उद्योग धंधे, सम्मिलित विशाल भोजनशाला, सम्मिलित निवास नगर,सम्मिलित खेल कूद, मनोरंजन, उपासना, हवन, कीर्तन, विचार-विनिमय, श्रमदान आदि कार्यों की, अपने बच्चों को जीवनोपयोगी शिक्षा देने की, अपने विचार के लोगों में विवाह शादी करने की, योजनाएं बनाई जा रही हैं। हम में से कोई व्यक्ति अपने पीछे अनाथ परिवार छोड़ जाय तो उसके परिवार के भरण पोषण की सम्मिलित जिम्मेदारियाँ रखने का विचार किया जा रहा है। इन आदर्शों और उद्देश्यों पर अनेकों गायत्रीनगर, ऋषिनगर बसाने की तैयारियाँ हो रही हैं। यह कार्यक्रम जैसे-जैसे आगे बढ़ेगा वैसे-वैसे जनसाधारण को एक नया प्रकाश, एक नई प्रेरणा, एक नया वातावरण प्राप्त होगा और उससे प्रभावित होकर लोग अपने व्यक्तिगत जीवन को मानवता के श्रेष्ठ आदर्श से परिपूर्ण बनाने की ओर अग्रसर करेंगे।
युगनिर्माण का कार्य कठिन है लेकिन गायत्री परिवार द्वारा जिस प्रचण्ड शक्ति का शुभारम्भ हो रहा है उसे दबाना कठिन है। कठिन कार्य भी मनुष्य ही करते हैं। गायत्री परिवार का उद्देश्य, ऐसे मनुष्य उत्पन्न करना है जो कठिन कार्य कर सकें। यह निश्चित है कि जिस शक्ति की प्रेरणा से यह महान कार्य आरम्भ हुआ है वही इसे सफल भी बनाएंगीं।
1958 के ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान को गुरुदेव ने एक ऐतिहासिक आयोजन बताया है। यह आयोजन देवपूजा की उपासनात्मक प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं है। इसके द्वारा युगनिर्माण का ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया जाना है। प्रश्न केवल हमारी पात्रता का है। सत्पात्र ही ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी होते हैं। हम सब अपनी पात्रता बढ़ाने की प्रतिज्ञा करके इस महायज्ञ की पूर्णाहुति में सम्मिलित होने आवें तभी इस यज्ञ की और याज्ञिकों के व्रत की सच्ची सार्थकता है।
समापन
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शनिवार के स्पेशल सेगमेंट को टोटल 591 कमेंट मिले,9 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूरा किया है, सभी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं