वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गायत्री परिवार के जन्म की पृष्ठभूमि -पार्ट 1

कल प्रकाशित हुए समुद्र मंथन के लेख को समझने/ जानने के लिए जब हम अखंड ज्योति के 1956 से 1958 के अंकों के देख रहे थे तो “गायत्री परिवार” शीर्षक से अनेकों लेख देखने का सौभाग्य मिला। जिज्ञासा उठी कि गुरुदेव ने तो वर्षो पूर्व हमें यह दिव्य परिवार भेंट कर दिया था, लेकिन इसके पीछे की पृष्ठभूमि क्या थी ? आज का आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख इसी जिज्ञासा का कुछ-कुछ समाधान कर रहा है। सात दशक पूर्व जन्में इस परिवार ने जिस विशाल वृक्ष का रूप ले लिया है उस पर कुछ भी लिख पाना अंगारों को छू कर हाथ जलाने जैसा ही है। 

कल वाले लेख पर कमेंट करते हुए आद पुष्पा बहिन जी ने आज की स्थिति के बारे में लिखा है। बहिन जी परिस्थितियां कब अनुकूल होती हैं ? सच्चे कर्मशील युगसैनिक ही उन्हें अनुकूल बनाते हैं। 

चलते हैं आज के लेख की ओर। 

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अक्सर  विचारशील लोगों की दृष्टि में पूजा-पाठ वाले लोगों का स्थान निकम्मे, आलसी, ठग, परावलम्बी, स्वार्थी एवं निराशावादी श्रेणी में गिना जाता रहा है लेकिन ऐसा नहीं है । स्वार्थी लोग जन्त्र मन्त्र की उधेड़बुन में इसलिए लगते हैं कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से भौतिक लाभ हों परन्तु  जिन पर माता का सच्चा अनुग्रह हो जाता है वे व्यक्तिगत सुख सुविधा पर विशेष ध्यान न देकर परमार्थ में अपना जीवन लगाने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। गायत्री-परिवार के अधिकाँश साधकों को माता की सच्ची कृपा प्राप्त हुई है और वे धर्म सेवा के मार्ग पर एक दूसरे से आगे बढ़कर निकलने की बाजी लगाये हुए हैं।

23 से 26 नवंबर 1958 में हुए सहस्र कुंडीय महायज्ञ को  सफल बनाने  के लिए अनेकों  परिजनों ने अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भी इतना समय, श्रम एवं सद्भाव लगाया  जिसे देखते हुए “सतयुग के तपस्वियों” की याद आ जाती है। लगता था  कि किसी जमाने के ऋषि मुनि इस युग के अनुरूप साधारण शरीरों में जन्म तो धारण किये हुए हैं लेकिन उनके अंतःकरण में व्याप्त भावनाएं प्राचीन युग जैसी ही हैं। इस प्रकार की आत्माओं को देखकर ही गुरुदेव ने  गायत्री परिवार जैसा संगठन रचने की योजना बनाई होगी।

यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि सहस्र का अर्थ 1000 होता है लेकिन जिस महायज्ञ की यहाँ बात हो रही है उसमें 1024  कुंड बनाये गए थे। यह कुंड 128 यज्ञशालाओं में समाहित थे  एवं प्रत्येक यज्ञशाला में 8 यज्ञकुंड थे। 

आने वाले दिनों में सहस्रकुण्डीय यज्ञ पर एक विस्तृत लेख श्रृंखला प्रस्तुत करने की योजना है जिसमें बहुत ही बारीकी से छोटी से छोटी बात को समझने का प्रयास रहेगा ताकि हम सब परम पूज्य गुरुदेव की शक्ति का अनुभव कर सकें।  

कहने को तो देश विदेश में अनेकों सभा सोसाइटियाँ मौजूद हैं एवं समय-समय पर  वे अपने रंग बिरंगे कार्यक्रम प्रदर्शित करके जनता को आकर्षित करती रहती हैं लेकिन  उनके भीतर “सच्चा जीवट” नाममात्र का  ही होता है। सच्चा जीवट का अर्थ हृदय की दृढ़ता, साहस, हिम्मत, और जिगरा होता है । यह किसी भी कठिन परिस्थिति में हार न मानने और दृढ़ता से आगे बढ़ने की क्षमता है। हृदय की दृढ़ता हो तो व्यक्ति के मन में किसी भी कार्य को करने की दृढ़ इच्छा शक्ति होती है  जो उसे कठिनाइयों के बावजूद आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। साहस, हिम्मत और जिगरा  से व्यक्ति किसी भी मुश्किल या खतरनाक स्थिति का सामना करने की क्षमता रखता  है।

गायत्री परिवार देखने में एक संस्था जैसा लगता  है लेकिन इसका वास्तविक भीतरी स्वरूप  बिलकुल वैसा ही है जैसा किसी कौटुम्बिक, घरेलू सुव्यवस्थित परिवार का होता है। परिवार के परिजन जहाँ युग निर्माण के महान मिशन को पूरा करने के लिए कदम से कदम मिलाकर कूच करने वाले सैनिकों की तरह साथ-साथ आगे बढ़ रहे हैं, साथ ही आपस में आत्मीयता, सुहृदयता, एकता, के तत्वों को विकसित करते हुए इस पृथकता के, व्यक्तिवाद के, स्वार्थपरता के युग में एकता, सामूहिकता एवं निःस्वार्थता के आदर्शों को क्रियान्वित करने के लिए भी आतुर हो रहे हैं।

सहस्र कुंडीय यज्ञ से लगभग दो वर्ष पूर्व परम पूज्य गुरुदेव ने गायत्री परिवार के बारे में परिजनों को शिक्षित करना शुरू कर दिया था। सितम्बर 1958 की अंखंड ज्योति में गुरुदेव ने, (1) “युग निर्माण का मंगलाचरण” (2) तप साधना द्वारा दिव्य शक्ति का अवतरण (3) महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद, शीर्षक से तीन लेख प्रकाशित किये।  इन तीन लेखों में यह बताया गया  कि गायत्री परिवार का आगामी सार्वजनिक कार्यक्रम उद्देश्य, लक्ष्य,विचार तथा अरमान क्या हैं? यह कोरी आकाँक्षाएं तथा अभिलाषाएं ही नहीं हैं। इन्हें शेखचिल्ली के सपने ही नहीं समझना चाहिए।

एक लाख व्रतधारी धर्मसेवकों की अन्तरात्माओं में जो हिलोरें उठ रहीं हैं उन्हें देखते हुए इस लक्ष्य  तक पहुँच सकना कुछ भी कठिन नहीं है। इतना विशाल लक्ष्य और इतना नया (केवल दो वर्ष) बाल-संगठन, इन दोनों की तुलना करने पर यह सब ऐसा लगता है मानों छोटे मुँह बड़ी बातें की जा रही हों। समय ही बता पायेगा  कि वस्तुस्थिति ऐसी ही बन चुकी है जिस पर आज नहीं तो कल सुसंस्कृत भारत के भावी नागरिक गर्व अनुभव कर सकेंगे।

जिन  संगठनों में स्वार्थपरायण, स्वार्थबुद्धि से एकत्रित हुए लोगों का जमघट रहता है वह क्षणिक उत्साह में कुछ ही दिन चमकते हैं। जब तक उन व्यक्तियों की स्वार्थ-सिद्धि होती है, तब तक वे उससे जुड़े  रहते हैं। कुछ ही दिनों में छोटे से कारण उपस्थित हो जाने पर रेत  के महल की तरह ऐसे संगठनों का  पतन होते देर नहीं लगती।  जो संगठन अपनी जड़ों में पूर्ण सच्चाई ,निःस्वार्थता, ईमानदारी,आत्मीयता एवं एक दूसरे के लिये मर मिटने की भावना लिए होते हैं, वोह छोटे, कम पढ़े-लिखे ,निर्धन लोगों के ही संगठन होने के बावजूद   फलते-फूलते एवं  दिन-दिन मजबूत होते जाते हैं। ऐसे संगठन अपने सामूहिक  प्रयत्न के प्रेम से सींचे गए वट वृक्ष की छाया में बैठ कर स्वर्गीय सुख शान्ति का अनुभव करते हैं। ऐसे संगठन आसानी से छिन्न-भिन्न नहीं होते।

गुरुदेव ने घोषणा करते हुए कहा कि गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति को इस संगठन का एक शंखनाद, मंगलाचरण एवं शिलान्यास कहा जा सकता है। जिस प्रकार प्राचीन काल में अश्वमेध यज्ञों के द्वारा असंगठित स्वेच्छाकारी राज्यों को एक बड़ी केन्द्रीय राज सत्ता के अंतर्गत संगठित किया जाता था, उसी प्रकार इस महायज्ञ का कार्यक्रम देकर धर्म सेवा के लिये उत्कंठित आत्माओं को सारे देश में से ढूँढ़-ढूँढ़ कर एक संगठित सूत्र में पिरो दिया गया है। महायज्ञ का इतना विशाल कार्यक्रम बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता के निर्धन साधकों के बलबूते पर सफल बनाने की कड़ी परीक्षा के रूप में उपस्थित किया गया है। प्राचीन काल में कभी-कभी कोई गुरु अपने विशिष्ट शिष्यों की निष्ठा को परखने एवं बढ़ाने के लिये उन्हें गुरुदक्षिणा के रूप में कोई कठिन काम पूरा करने का आदेश देते थे। उस आदेश की पूर्ति के लिये किस शिष्य ने कितना प्रयत्न किया, कितना त्याग किया, उस आधार पर उनकी पात्रता/कुपात्रता का पता लगाया जाता था। यह पात्रता ही अन्त में गुरुकृपा या भगवान की कृपा के रूप में उन्हें सत्परिणामों के समीप पहुँचाती थी।

महायज्ञ  के विशाल कार्यक्रम ने गायत्री परिवार के परिजनों को कड़ी परीक्षा की कसौटी पर चढ़ा दिया है। प्रसन्नता की बात है कि खोटे सिक्के, नकली गहने, बहुत कम निकले हैं, अधिकाँश ने स्वयं  को खरा सोना साबित किया है। निकट भविष्य में जब इस युग के अभूतपूर्व सहस्रकुण्डीय यज्ञ  का इतिहास लिखा जायगा तब सारा संसार देखेगा कि इतना छोटा लगने वाला संगठन भीतर ही भीतर कितना मजबूत था, उसमें कितनी तीव्र भावना एवं निष्ठा भरी हुई थी, धर्म सेवा के लिये एक दूसरे से आगे बढ़ने की किस प्रकार होड़ लगी हुई थी एवं अनेकों  ने कितनी विषम परिस्थितियों में रहते हुये कितने बड़े-बड़े साहसपूर्ण तप त्याग के उदाहरण उपस्थित किये।

गायत्री परिवार के लक्ष्य  और संगठन को सफल बनाने के लिये कई आत्माएं ऊँचे पर्दों को, अच्छी आजीविका को, आराम की जिन्दगी को ठोकर मार कर अपनेआप को, अपने स्त्री बच्चों को राष्ट्र माता के लिये अर्पण करने जा रहे हैं। ये गृहस्थ में रहते हुए भी साधुओं के समान अपरिग्रही रहेंगे और रूखी सूखी रोटी, फटा टूटा कपड़ा पहन कर किसी प्रकार के वेतन आदि की स्वप्न में भी इच्छा किये बिना, राष्ट्र में सद्ज्ञान की ज्योति के लिए अपने को तिल-तिल करके जलाने के लिये तैयार होंगे।

पिछले  गायत्री महायज्ञ में 27 व्यक्तियों ने नरमेध-आत्मदान-किया था। वे सभी ऐसे थे जिनके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं थीं, और किसी व्यापार सर्विस आदि की प्रलोभनमयी परिस्थितियों में नहीं थे। इस बार के दुस्साहस उनसे भी बढ़ चढ़ कर हैं। अच्छी आमदनी की सम्मानपूर्ण, निश्चित आजीविकाओं को लात मार कर अपना ही नहीं, अपने स्त्री बच्चों को भी साधु जीवन बिताने के लिये, अनेक गुना परिश्रम करने के लिए तत्पर होना सचमुच ही इस घोर स्वार्थपरता और खुदगर्जी के जमाने में बहुत कठिन है लेकिन यह असम्भव भी संभव होने जा रहा है। इन्हें देखकर परिवार के वे लोग जो बाल बच्चों की जिम्मेदारियों से निवृत्त हो चुके हैं लेकिन मोहमाया  की फाँसी से छूट कर सार्वजनिक धर्मसेवा के लिये आगे कदम बढ़ाने का साहस नहीं कर पाते, अवश्य ही प्रेरणा प्राप्त करेंगे। ऐसे साधु बाबाओं को भी प्रेरणा मिलेगी/शर्म आएगी  जो काम से जी चुराने की मानसिक दुर्बलता के कारण लाल पीले कपड़े पहने,अपना निकम्मापन छिपाये इधर से उधर मटरगश्ती करते, रोटी हराम करते फिरते हैं। इन उदाहरणों से अनेकों लोगों में  धर्म की नाव पार करने में, योगदान देने की उत्सुकता जागृत हो सकती है। 

आज ब्राह्मण परम्परा, ऋषि परम्परा का लोप होता जा रहा है। अपने चरित्र और ज्ञान द्वारा जन साधारण का मानसिक स्तर मानवीय गुणों से परिपूर्ण बनाने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर उठाए रखने वाले आत्मत्यागी साधु ब्राह्मण आज ढूँढ़े नहीं मिलते। भारतभूमि को देवभूमि बनाने की महान प्रक्रिया का एकमात्र आधार इसी देश की विशेषता थी। इस विशेषता का नष्ट हो जाना, सच्चे साधु ब्राह्मणों का अभाव हो जाना हमारी महान आध्यात्मिक सम्पत्ति के नष्ट हो जाने का एकमात्र कारण है। इस अभाव की पूर्ति करने का दृढ़ संकल्प, गायत्री परिवार के सुसंगठित रूप में उपस्थित हुआ है। लगता यही है कि युग की पुकार पर जैसे हजारों लाखों नर-नारी बौद्ध धर्म के भिक्षु/भिक्षुणी बनकर भौतिकता और विलासिता के गर्त में डूबी हुई जनता को उबारने के लिए अपने सुख सौभाग्य को लात मार कर सेवा में संलग्न हुए थे, वैसी ही पुनरावृत्ति अब फिर होने जा रही है। राजनैतिक गुलामी के बन्धनों की बेड़ियाँ काटने के लिए यदि युग की पुकार हजारों लाखों व्यक्तियों को गोली, जेल और तबाही को गले लगाने के लिए प्रस्तुत कर सकती है तो कोई कारण नहीं कि मानवता, नैतिकता, आस्तिकता और साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए युग की पुकार सुनने वाले कुछ आत्मदानी व्रतधारी आगे कदम बढ़ाने को तैयार न हों।

यह युग-यात्रा आरम्भ हो चुकी है, कदम मिलाकर लोग आगे बढ़ रहे हैं और आगे तीव्र गति से सहस्रों धर्मसेवक इस चतुरंगिणी ( सेना के चार अंग: हाथी,घोडा,रथ और पैदल) सेना में सम्मिलित होकर रहेंगे। इस प्रकार भारत की अन्तरात्मा की पुकार प्राचीनकाल जैसा ऋषियुग अवतरित करने की आकाँक्षा में परिणित होकर रहेगी। लगता है यह सपने साकार होने की घड़ी अब निकट ही आ पहुँची है।

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कल वाले लेख को 548 कमेंट मिले एवं 12 साथिओं ने संकल्प पूरा किया है, सभी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। 


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