वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

कृत्य किसी का, श्रेय किसी को- पार्ट 2 

कल आरम्भ हुई लेख श्रृंखला का समापन लगभग उसी वाक्य से हो रहा है जिससे शुभारम्भ हुआ था। 

कल लिखा था कि जीवात्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है लेकिन यह निश्चित है कि माता के सहयोग के बिना उसकी अदृश्य सत्ता मूर्तिमान नहीं हो सकती। आज लिख रहे हैं कि माता के अनुग्रह से ही तो बच्चा निर्वाह पाता और विकसित होता है। 

गुरुदेव की रचित निम्नलिखित पंक्तियाँ लेख के दोनों भागों का Crux है। यह पंक्तियाँ लेख के अंत में भी रिपीट हो रही हैं ताकि कमैंट्स लिखने में सुविधा हो सके। जिस किसी ने भी इन पंक्तियों को समझ लिया, समझो उसका तो बेड़ा ही  पार है : 

इन पंक्तियों को पढ़कर कोई इस भ्रम में न पड़े कि यह किसी व्यक्ति विशेष का पुरुषार्थ है। ऐसा कहना हमारे अहंकार को बढ़ाना और जिसकी अपार अनुकम्पा से यह बन पड़ा उसके प्रति कृतघ्नता प्रकट करना होगा। हमें सिर्फ कठपुतली की तरह नृत्य कर प्रशंसा-पात्र बनने का सुयोग अनायास ही मिला है। यह सारा खेल उसी हिमालयवासी देवात्मा का है जिसे हम अपना इष्टदेव मानते हैं और जिसकी ऊँगलियों में हमने अपने प्रत्येक अंग  के तार जोड़ दिये हैं। यह कठपुतली उसी आधार पर अनोखे नाच दिखाती रही है और जीवन की जो थोड़ी अवधि शेष है उसमें इससे भी बढ़कर कौतूहल कृत्य दिखाती रहेगी।

जब-जब हमारी बैटरी शिथिल पड़ती रही है, तब-तब हिमालय की कन्दराओं में बुलाया जाता रहा है और चार्ज करके इस प्रकार वापिस भेजा जाता रहा है (हमारी आद बहिन निशा जी आजकल बैटरी चार्ज  करा रही हैं) जैसे कि वह अपने में नवजीवन संचार अनुभव कर सके। प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी को इन कृत्यों का कर्त्ता उसी देवात्मा को मानना चाहिए जिसे हम अपना पिता,माता,सखा,सहायक मानते हैं और विश्वास करते हैं कि उसी के अनुग्रह से हमारा ईश्वर तक पहुँचना सम्भव हो सकेगा।

अब आगे चलते हैं : 

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मार्गदर्शक का उद्देश्य हमें “युगान्तरीय चेतना के आलोक” को व्यापक बनाने के कार्य में लगा देने का था । इसके लिए युग साहित्य सृजन के कार्य में जुटना था, सो प्रायः सभी आर्ष ग्रन्थों का अनुवाद और युग समस्याओं के स्वरूप और समाधान समझाने वाले साहित्य लिखने की आज्ञा हुई। इतने व्यापक क्षेत्र में इतना बड़ा काम करने में जब कभी असमंजस उभरा, तभी आत्मविश्वास ने, अनुभव ने साक्षी दी कि इतने बड़े सहायक के रहते कोई कार्य कठिन नहीं होना चाहिए। अपने शरीर के वजन जितना साहित्य कुछ ही दिनों में विनिर्मित हो गया। “हमारे हाथ इस तेजी से चले मानों उनमें बिजली की मोटर लग गई हो और संगृहीत ज्ञान का भण्डार उगला जा रहा हो ।” यह होते देखकर वह पुरातन गाथा स्मरण आती रही, जिसमें 

व्यास जी पुराणों को मुख से बोलते और गणेश जी लिखते गये थे। व्यास जी का मस्तिष्क और गणेश जी के हाथ दोनों ने साथ-साथ कार्य किया । 

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि गणेश जी और व्यास जी की तरह, हमने और हमारे मार्गदर्शक ने लेखन कार्य तो कर लिया लेकिन इस लेखन को प्रकाशित करने में अनेकों झंझट आये, इसे प्रकाशित करने के लिए कोई भी  तैयार न हुआ। ऐसी स्थिति में गुरुदेव को  अपनी निज की व्यवस्था करनी पड़ी। गुरुदेव बताते हैं कि उन्होंने 300 रूपये मूल्य के पुराने ज़माने के हैण्ड प्रेस से प्रकाशन का काम चालू किया जिसका विस्तार दर्जनों मशीनों, ऑटोमैटिक ऑफसेटों के रूप में दिख रहा है। 

जो लोग तपोभूमि के दर्शन कर चुके हैं उन्होंने वोह परिसर भी देखा होगा जहाँ अखंड ज्योति समेत गुरुदेव के दिव्य साहित्य का प्रकाशन होता है। इसके साक्षात् दर्शन के लिए हम यहाँ एक यूट्यूब लिंक दे रहे हैं जिससे विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। 

अखण्ड ज्योति और चार अन्य पत्रिकाओं की ग्राहक संख्या तीन लाख को पार कर गयी है। सस्ते ट्रेक्ट करोड़ों की संख्या में अनेकानेक भाषाओं में प्रकाशित हुए और देश-विदेश में जन-जन तक पहुँचे हैं। यह सारे नंबर, पुस्तक “कृत्य किसी का,श्रेय किसी को” के प्रकाशन के समय के हैं।    

दादागुरु  का परामर्श था कि उच्चस्तरीय सिद्धियों के अर्जित करने का एक ही तरीका है: “बोना और काटना।” बाजरा, मक्का आदि का एक दाना बोये जाने पर हजार दाने  उत्पन्न करता है । भगवान का व्यवहार भी ऐसा ही है। जिस प्रकार धरती माता 1000 दाने देने से पहले 1 दाना मांगती है ठीक उसी प्रकार भगवान् लिये बिना किसी को कुछ नहीं देते । समर्पण और त्याग का सिद्धांत शाश्वत, सनातन एवं पुरातन है। त्याग का उदाहरण,परम पूज्य गुरुदेव से बढ़कर और कौन सा हो सकता है। 

हमारे ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार जैसे छोटे से परिवार में भी यह सिद्धांत पूरी तरह दिखता है, जिसने भी त्याग किया, समयदान किया,उसे ही  सेलिब्रिटी बन पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, सभी लोग उसी की बात करते दिखते हैं। 

भगवान द्वारा सुदामा से तंदुल, गोपियों से दही, शबरी से बेर, बलि से भूमि, कर्ण से दाँतों में चिपके सोने आदि की मांग भी इस शाश्वत सत्य को प्रमाणित कर रहे हैं। गुरुदेव बता रहे हैं कि हमसे जो कुछ आशा की गयी हमने दिया। उत्तराधिकार का दावा प्रस्तुत करने वाले कुटुम्बियों को इसमें से एक कानी कौढ़ी भी न मिली। समर्पण और त्याग के बाद  श्रम और सद्भाव का योगदान आता है। रात्रि के समय उपासना, दिनभर जनता जनार्दन के सेवा कार्य। भावनाओं की दृष्टि से हमारे  पास जो तप और पुण्य था उसका एक-एक कण पिछड़ों को उठाने, आगे बढ़ाने में लगा दिया। अब सूझ ही नहीं पड़ता कि हमारे  पास देने के लिए  कुछ भी बचा हो। हो सकता है कि जमा पूँजी कम और दान अनुदान का पलड़ा भारी  होने के कारण रामकृष्ण परमहंस की तरह गले के कैंसर का शिकार होना पड़े।

हमने जो कुछ अनुदान दिए उसका प्रतिदान हमें हाथों-हाथ मिलता रहा। 75 वर्ष की आयु में स्वस्थता और कार्यक्षमता उतनी ही बनी हुई है, जितनी किसी नवयुवक की होनी चाहिए। हमने प्यार बाँटा  और प्यार ही पाया है । उसी का प्रतिफल है कि प्रायः बीस लाख व्यक्ति अपना बहुमूल्य समय हमारे  संकेतों पर अहर्निश नवनिर्माण के लिए नियोजित किये हुए हैं। धन सम्बन्धी बोया हुआ बीज कितना फला, इसका अनुमान गायत्री तपोभूमि मथुरा  और युग निर्माण योजना आश्रम की भव्यता देख कर लगाया जा सकता है । हरिद्वार स्थित शांतिकुंज  और ब्रह्मवर्चस् की इमारतें ही नहीं, कार्य पद्धतियाँ भी ऐसी ही हैं जिन्हें  देख कर ऋषि प्रयासों की पुनरावृत्ति अनुभव की जा सकती है। ब्रह्मवर्चस् में जो अनुसंधान विज्ञान और अध्यात्म की दृष्टि से प्रयोग किये जा रहे हैं,उन्हें  देखकर इन दोनों ही Fields  के अनुभवी Researchers आश्चर्यचकित रह गये हैं ।

नवयुग का संदेश व्यापक करने के लिए देश देशान्तरों में 2400 गायत्री शक्तिपीठों के नाम से भव्य भवन बने हुए हैं/बन रहे हैं और अपने-अपने क्षेत्र में नवसृजन का वातावरण बना रहे हैं। इसी प्रकार प्रज्ञा संस्थान, स्वाध्याय मण्डलों की संख्या अब बढ़ते-बढ़ते 24000 तक जा पहुँची है। 

यह हमारी प्रत्यक्ष कार्यकर्त्ता  भुजाएँ हैं। इन्हें देखकर सहस्र भुजा वाला पुरातन काल का महाबली भी अपने को पिछड़ा हुआ अनुभव कर सकता है। यह जनसेवा कार्यों का बहुचर्चित परिचय है जिसे कोई भी चर्मचक्षुओं से देख सकता है। 

इस प्रकार सोचते तो कितने ही व्यक्ति रहे हैं लेकिन  इन शक्ति स्रोतों को व्यवहारतः उभारने और कार्यान्वित करने का यह प्रथम प्रयोग है जिसे अपने ढंग की अभूतपूर्व सफलता का श्रेय दिया जा सकता है।

यह सारी घटनाएं ऐसी हैं जो “प्रत्यक्ष” हैं, जिन्हें हम सब देख रहे हैं। इसके इलावा अनेकों “परोक्ष घटनाएं” हैं जो दिखाई नहीं दे रही हैं, ऐसी घटनाएं प्रतक्ष्य से कम नहीं, बहुत ज़्यादा ही हैं। परोक्ष घटनाओं में, दुर्गुणों को छोड़ने और सद्गुणों को अपनाने की ऐसी प्रक्रिया है जिसकी लपेट में जो लोग आ चुके हैं उनकी तो गणना करना ही असंभव है । 

गायत्री परिवार में एक प्रथा है कि जब भी कहीं गायत्री यज्ञ करवाया जाता है, वहां उपस्थित हुए लोगों के द्वारा देवदक्षिणा प्रस्तुत करने के संकल्प लिए जाते हैं। देवदक्षिणा के स्थान पर एक बुराई छोड़ने का संकल्प लिया जाता है और अच्छाई का  प्रसाद ग्रहण किया जाता है। गुरुदेव द्वारा रची गयी इस प्रथा से हो रही नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति का लेखा-जोखा लेने वाले दाँतों तले ऊँगली दबाये बिना नहीं रह सकते। आलराउंड  परिवर्तन का यह तूफानी अभियान “प्रज्ञा अभियान” अभी रूका नहीं है बल्कि दिन दुगनी  रात चौगुनी गति से आगे बढ़ता जा ही रहा है । अदृश्य वातावरण के परिशोधन के लिए प्रतिदिन  24  करोड़ गायत्री जप का हो रहा सामूहिक अनुष्ठान अपना अदृश्य प्रभाव किस कदर उत्पन्न करता रहा, इसका और अनुमान अगली पीढ़ी भली प्रकार लगा सकेगी।

मथुरा और हरिद्वार के आश्रमों द्वारा साहित्य प्रकाशन, अन्यान्य भाषाओं में उसका अनुवाद, प्रचारक कार्यकत्ताओं का प्रशिक्षण, अध्यात्मवादी विज्ञान का नवजीवन, वातावरण को उलट कर सीधा करने जैसे प्रयास में सैकड़ों की संख्या में उच्च शिक्षित ऐसे व्यक्ति संलग्न हैं जो हजारों रूपये मास की आजीविका को लात मारकर, मात्र अन्न-वस्त्र पर निर्वाह कर रहे हैं।

युग साहित्य में अब तक प्रज्ञा पुराण के पाँच खण्डों का निर्माण और अगले दिनों भी उस प्रयास का गतिशील रहना ऐसा कार्य है, जिसे इस युग के किन्हीं विद्वानों ने एकाकी या सामूहिक रूप से कर गुजरने की कल्पना या चेष्टा नहीं की ।

इन पंक्तियों को पढ़कर कोई इस भ्रम में न पड़े कि यह किसी व्यक्ति विशेष का पुरुषार्थ है । ऐसा कहना हमारे अहंकार को बढ़ाना और जिसकी अपार अनुकम्पा से यह बन पड़ा उसके प्रति कृतघ्नता प्रकट करना होगा। हमें सिर्फ कठपुतली की तरह नृत्य कर प्रशंसा-पात्र बनने का सुयोग अनायास ही मिला है। यह सारा खेल उसी हिमालयवासी देवात्मा का है जिसे हम अपना इष्टदेव मानते हैं और जिसकी ऊँगलियों में हमने अपने प्रत्येक अंग  के तार जोड़ दिये हैं। यह कठपुतली उसी आधार पर अनोखे नाच दिखाती रही है और जीवन की जो थोड़ी अवधि शेष है उसमें इससे भी बढ़कर कौतूहल कृत्य दिखाती रहेगी।

जब-जब हमारी बैटरी शिथिल पड़ती रही है, तब-तब हिमालय की कन्दराओं में बुलाया जाता रहा है और चार्ज करके इस प्रकार वापिस भेजा जाता रहा है जैसे कि वह अपने में नवजीवन संचार अनुभव कर सके। प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी को इन कृत्यों का कर्त्ता उसी देवात्मा को मानना चाहिए जिसे हम अपना पिता,माता,सखा,सहायक मानते हैं और विश्वास करते हैं कि उसी के अनुग्रह से हमारा ईश्वर तक पहुँचना सम्भव हो सकेगा। माता के अनुग्रह से ही तो बच्चा निर्वाह पाता और विकसित होता है।

अति सुंदर लेख, नमन करते हैं ,जय गुरुदेव 

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कल वाले लेख  को 603 कमेंट मिले।  यह सब 15 संकल्पधारिओं /नॉन संकल्पधारिओं  के समयदान, ज्ञानदान एवं श्रमदान से ही संभव हो पाया है जिसके लिए सभी साथी हमारी व्यक्तिगत सराहना के पात्र हैं।

परम पूज्य गुरुदेव ने 1958 के किसी अंक में गायत्री परिवार के बारे में लिखा है कि किसी भी बड़े कार्य के लिए जनशक्ति का बड़ा योगदान होता है, विचारक्रांति एक विश्वस्तरीय क्रांति है, इसे केवल जनशक्ति ही सार्थक कर पायेगी।


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