इस हृदयस्पर्शी गीत के लिए कवि प्रदीप को नमन
31 मार्च, 2025 का ज्ञानप्रसाद- सोर्स कृत्य किसी का, श्रेय किसी को
आज सोमवार है, मार्च माह का अंतिम दिन। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से जब भी किसी लेख श्रृंखला का शुभारम्भ होता है तो वह सोमवार को ही होता है।
आज प्रस्तुत की जा रही लेख श्रृंखला का समापन मात्र दो ही भागों में हो जायेगा, आज इसका पहला भाग प्रस्तुत किया गया है।
हम अक्सर कहते आये हैं कि परम पूज्य गुरुवर हमसे जो कुछ भी लिखवाना चाहते हैं, हमारे हाथ में थमा देते हैं। हमें स्मरण ही नहीं आ रहा कि हम नई लेख शृंखला के लिए गूगल में क्या सर्च कर रहे थे कि अचानक एक लेख जिसका शीर्षक “कृत्य किसी का,श्रेय किसी को” था, प्रकट हो आया। शीर्षक इतना चुम्बकीय था कि पहले तो गूगल पर ही पढ़ना शुरू कर दिया, मात्र 8 पन्नों का,2225 शब्दों का छोटा सा लेख देखने में कुछ ऐसा लग रहा था कि इसमें बताई गयी सभी बातें आगे भी अनेकों बार प्रकाशित हो चुकी हैं, कुछ नया दिख नहीं रहा था। ज्यों ज्यों आगे बढ़ते गए,आँखें खुलती गयीं, भ्र्म छटते गए, गुरुवर की लेखनी ने ऐसा Mesmerize कर दिया कि निर्णय कर लिया कि इन्हीं आठ पन्नों को ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर प्रकाशित करना है।
हमारा निर्णय किस काम का, यह तो उस गुरु का निर्णय है जी ऊँगली पकड़ कर लिखवा रहे हैं। आंवलखेड़ा की पूजास्थली में दिव्य दर्शन की बात पढ़ी तो मन में प्रश्न उठा कि यह घटना तो अनेकों बार पढ़ चुके हैं, गुरुवर कहना क्या चाहते हैं, दादा गुरु द्वारा पूर्व जन्मों की फ़िल्म दिखाना, यह फ़िल्म भी तो अनेकों बार अपने अंतर्मन में देख चुके हैं, फिर जिज्ञासा उठी कि क्या गुरुदेव सच में हमें बुद्धू बना रहे हैं ? इस पुस्तक में कुछ भी नया नहीं है।
फिर अचानक अंतर्मन से आवाज़ आयी कि बुद्धू वाली बात नहीं है, अपनी बुद्धि का प्रयोग कर, इस पुस्तक में दिए गए तथ्यों को समझ, गूढ़ ज्ञान को पहले खुद समझ, फिर अपने परिवार के सूझवान साथिओं में ले जा,वहां चर्चा कर ताकि सभी समझ जाएँ कि गुरु पात्रता चेक करके, सारा विधान कायम करके, शिष्य से किस प्रकार कार्य करवाता है और कैसे उसे श्रेय देता है। करता सब कुछ गुरु है और श्रेय मिलता है शिष्य को, है न कितनी अद्भुत कार्यप्रणाली, जो सनातन है, पुरातन है, सदा सदा के लिए सत्य है।
वैसे तो हम हर लेख श्रृंखला से पहले भूमिका बनाते हैं लेकिन इस बार की भूमिका (एवं लेख) को विशेष ध्यान से पढ़ने के लिए करबद्ध निवेदन कर रहे हैं ताकि हमारी तरह आप भी इस भ्र्म में न रहें कि यह बातें तो पहले भी अनेकों बार पढ़ चुके हैं। यह पंक्तियाँ भी गुरुदेव ही हमसे लिखवा रहे हैं ठीक उसी प्रकार जैसे लेख में दादागुरु, गुरुदेव से सब कुछ करवाए जा रहे थे।
हमारे साथी सोच रहे होंगें कि आज “अरुण जी क्या फेंके जा रहे हैं, कहाँ गुरुदेव और कहाँ अरुण जी” लेकिन गुरुदेव सच में हाथ पकड़ कर लिखवाये जा रहे हैं, विश्वास कीजिये।
इसी “अंतर्मन की आवाज़” से, शांतिपाठ से आज के आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ होता है,
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
अर्थात हे प्रभु संसार के सभी प्राणी सुखी रहें, रोग आदि कष्टों से मुक्त रहें, उनका जीवन मंगलमय हो और कोई भी दुःखी न रहें। प्रभु ऐसी हमारी प्रार्थना है।
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एक समर्थ मार्गदर्शक की भूमिका:
जीवात्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है । वह प्रकट, विकसित एवं समर्थ भी अपने ही पुरुषार्थ से होती है लेकिन इतना होने के बावजूद यह निश्चित है कि माता के सहयोग के बिना उसकी अदृश्य सत्ता मूर्तिमान नहीं हो सकती। पक्षियों के अण्डे मादा देती ही नहीं, उनका पालन भी करती है। मनुष्यों और पशुओं के अण्डे उनके पेट में पकते है और उसी की देखरेख में अपने पैरों पर खड़े होने योग्य बनते हैं।
मनुष्य के आध्यात्मिक और भौतिक जीवन को विकसित करने के लिए किसी “समर्थ सहयोगी” की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा न होने पर प्रगतिपथ अत्यन्त दुसह हो जाता है। एक समर्थ मार्गदर्शक का सच्चा सहयोग उपलब्ध हो जाने का अर्थ आधी मंजिल पूरी हो जाने के बराबर होता है। कुएं का अपना अस्तित्व एवं घड़े का अपना अस्तित्व है, दोनों अपने अपने साथ पर वंदनीय हैं लेकिन घड़ा, बाहुबलि होते हुए भी रस्सी के अभाव में प्यास बुझाने का सुयोग नहीं बन पाता ।
पात्रता की शर्त:
अध्यात्म क्षेत्र का सौभाग्य यहीं से आरम्भ होता है लेकिन उस उपलब्धि के पीछे पात्रता रूपी एक अनिवार्य शर्त जुड़ी हुई है। कोई भी माता पिता अपनी सुयोग्य कन्या का विवाह किसी अपंग भिक्षुक से नहीं करता, उसके लिए ऐसे वर की तलाश करता है जो बेटी को सुखी, सुसमुन्नत बनाने के उत्तरदायित्व का भार उठा सके। संसार में कभी भी सिद्ध पुरुषों की न कभी कमी हुई है, न होगी। यदि कमी है/होगी तो केवल “सुपात्र शिष्यों” की ही होगी। सुपात्र शिष्य, ऐसे शिष्य होते हैं जो अपनी “पात्रता” सिद्ध करने में सक्षम हों। कुपात्र शिष्य वोह होते हैं जिनकी पात्रता में शंका होती है,उनकी पात्रता विकसित नहीं हुई होती इसलिए वोह Unqualified होते हैं,इसलिए वे जहाँ भी जाते हैं, खोटे सिक्कों की तरह वापस लौटा दिये जाते हैं।
परम पूज्य गुरुदेव अपनी प्रगति के बारे में बताते हुए कहते हैं:
हमारी अपनी प्रगति का आधार “हमारी पात्रता” ही है । गायत्री मन्त्र की दीक्षा और यज्ञोपवीत संस्कार तो महामना मालवीय जी ने 10 वर्ष की आयु में ही कर दिया था । दीक्षा देते समय मालवीय जी ने कहा था, “यह ब्राह्मण की कामधेनु है, इसे श्रद्धापूर्वक अपनाना ।” पिताश्री ने समझाया कि “ब्राह्मण शब्द” का अर्थ ब्राह्मण जाति/ वंश से नहीं बल्कि गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से श्रेष्ठ,आदर्श मानव बनने से है । हमारे अन्तरंग का स्वाभाविक गठन उसी स्तर का होने से मालवीय जी द्वारा दर्शाए गए अनुबन्धों का पालन और अभ्यास करना कुछ कठिन नहीं पड़ा ।
15 वर्ष की आयु में हिमालयवासी ऋषिकल्प महान मार्गदर्शक का अनुग्रह घर की पूजा कोठरी में बैठे हुए हुआ । प्रकाशपुंज के मध्य एक सिद्ध पुरुष की झाँकी हुई । आश्चर्य भी हुआ और डर भी लगा लेकिन वह स्थिति देर तक न रही । इस हिमालयवासी मार्गदर्शक (दादागुरु) ने पिछले अनेक जन्मों के और फिर अन्तिम तीन जन्मों के दृश्य फिल्म की तरह दिखाए तो हमारे अंदर उठ रहे सभी डर ,शंकाएं उड़ते एक पल भी नहीं लगा। तीनों जन्म एक से एक महान थे। एक जन्म में जातिगत भेदभावों का, दूसरे में भारत को स्वतन्त्र कराने के निमित्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले व्यक्तित्व ढालने का, तीसरे में देश देशान्तरों में भारतीय संस्कृति का विस्तार करने हेतु अत्यन्त प्रतिभाशाली जीवन जिये गए थे। देखते ही आत्मबोध हुआ, निश्चय किया कि जो मार्गदर्शक पिछले जन्मों में ऊँगली पकड़ कर चलाता रहा है, उसी के चरणों में यह चौथा जन्म भी समर्पित होगा । मन, वचन और कर्म से किया गया यह समर्पण स्वीकार कर लिया गया।
आगे क्या करना, इसकी पहली मंजिल यह बताई गयी कि इस बार अपेक्षाकृत बड़ा बोझ उठाना है। बड़ा पुरुषार्थ करना है। बड़े कार्य के लिए, बड़ा परिश्रम, बड़ी शक्ति एवं उसी के अनुरूप आत्मबल भी संग्रह करना होगा । उनका तात्पर्य तपश्चर्या से, आत्म परिशोधन से था और साथ ही यह भी था कि सांसारिक ललक-लिप्साओं को अस्वीकार करने, दबावों और आकर्षणों के सामने न झुकने का साहस संचय किया जाय। लोग क्या करते हैं/कहते हैं, इसकी ओर ध्यान न देकर “आत्मा की पुकार” पर अकेले ही चल सकने की समर्थता अर्जित की जाय।
सिद्धांतों को कार्य रूप में परिणत करने के लिए साधन बताया गया:
गायत्री के 24 महापुरश्चरण। एक वर्ष में एक महापुरश्चरण के हिसाब से 24 वर्ष की साधना, अपने विश्वास की साक्षी रूप में अखण्ड घृत दीप की स्थापना करना । इन वर्षों में मात्र जौ की रोटी और गाय की छाछ पर निर्वाह करना । यह कर गुजरने के लिए संकल्प लिया, वचन दिया और विश्वास दिलाया। इसमें एक ही प्रमुख बाधा थी तथाकथित परिवारियों और सम्बन्धियों का प्रबल विरोध और हमारे अंतर्मन की भीतरी दुर्बलताओं का आक्रमण ।
इस प्रयास में समस्या आई कि स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने के कारण बीच-बीच में व्यवधान पड़ा । जो कार्य शेष रह गया था, उसे 1945 के बाद एकनिष्ठ होकर मथुरा में पूरा किया ।
दादागुरु को जाँचना था कि साधक को अपनी श्रद्धा और गुरु की महान योजना पर विश्वास हुआ या नहीं। इसको चेक करने के लिए उन्होंने अनुष्ठान की पूर्णाहुति के लिए मथुरा में सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ करने का आदेश दिया, साथ ही यह समझाया कि अब तक सभी ने “बोने” के उपरान्त ही कुछ महत्वपूर्ण पाया है । गायत्री के द्रष्टा विश्वामित्र ने अपना राजपाट छोड़ा और शिष्य हरिश्चन्द्र से भी छुड़ाया था । त्याग के यह उदाहरण देते हुए दादागुरु ने कहा, “समय आ गया कि तुम्हें भी वही कर गुजरना चाहिए ।”
गुरुदेव बताते हैं कि दादागुरु की बात हमारे अन्तरंग में बैठ गयी और हमने “ईश्वर के विराट् रूप जनता जनार्दन के खेत” में बोना शुरु कर दिया। पैतृक सम्पदा के रूप में लम्बी चौड़ी जमींदारी थी, उसे बेचकर जन्मभूमि आंवलखेड़ा में एक हाईस्कूल बनाने के अतिरिक्त गायत्री तपोभूमि के निर्माण में भी वह पैसा काम आया। गायत्री तपोभूमि के ऐसे आश्रम की स्थापना हुई जो युग परिवर्तन के क्षेत्र में महती भूमिका सम्पादित कर रहा है। इसके अतिरिक्त उसी अवसर पर “सत्पात्र विचारशील धर्मप्रेमियों का एक अखिल भारतीय संगठन” खड़ा किया। यह कार्य भी उसके साथ जुड़े हुए थे।
हमारा मन अचकचाया कि साधन और सहयोग के अभाव में इतना बड़ा कार्य कैसे बन पड़ेगा लेकिन मार्गदर्शक की एक मुस्कान भरी झाँकी ने सभी संदेहों का निवारण कर दिया। दादागुरु की मुस्कान में संदेश था कि जब घोड़े हाँकने वाले इतने समर्थ सारथी का हाथ सिर पर है तो झूठ-मूठ गाँडीव चलाने और विजयश्री का वरण करने में अपना जाता ही क्या है।
समय आया और वे तीनों कार्य इस प्रकार, एक साथ कुछ ही दिनों के प्रयत्न से सम्पन्न हो गये, मानों वे पहले से ही किये हुए रखे हों । जिन साधकों को मथुरा के 1958 में सम्पन्न हुए गायत्री महायज्ञ का स्मरण है, वे अभी भी आश्चर्यचकित होकर वर्णन करते हैं कि 5 लाख व्यक्तियों के निवास, भोजन आदि का प्रबन्ध किस प्रकार अकेले प्रयत्न से सम्पन्न हो गया । गायत्री तपोभूमि आश्रम की निर्माण भी हुआ और गायत्री परिवार का विशालकाय संगठन भी खड़ा हो गया।
इस चमत्कार से हमारा मन “आत्मविश्वास” से भर गया कि सौंपे गये किसी भी कार्य को कर गुजरना कठिन न होगा।
आज के ज्ञानप्रसाद लेख को यहीं पर रोकने के लिए साथिओं से क्षमाप्रार्थी हैं, इसके आगे का अमृतपान कल ही उचित रहेगा।
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शनिवार के विशेष विशेषांक को 804 कमेंट,17 संकल्पधारिओं और 17 नॉन संकल्पधारिओं के समयदान, ज्ञानदान एवं श्रमदान से ही संभव हो पाया है जिसके लिए सभी साथी हमारी व्यक्तिगत सराहना के पात्र हैं।
परम पूज्य गुरुदेव ने 1958 के किसी अंक में गायत्री परिवार के बारे में लिखा है कि किसी भी बड़े कार्य के लिए जनशक्ति का बड़ा योगदान होता है, विचारक्रांति एक विश्वस्तरीय क्रांति है, इसे केवल जनशक्ति ही सार्थक कर पायेगी।