वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

महेश्वर महाकाल स्वयं हैं नियंता

आज के आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद का शीर्षक,अखंड ज्योति सितम्बर 2011,पृष्ठ 5 में प्रकाशित लेख का ही है। यह अंक परम पूज्य गुरुदेव के जन्म (1911) को समर्पित शताब्दी अंक था। 74 पन्नों के इस दिव्य अंक में प्रकाशित कंटेंट को ध्यान से देखा जाये तो अधिकतर लेखों के शीर्षक “क्रांतिकारी” शब्द लिए हुए थे, इस दृष्टि से इस अंक को “क्रांतिकारी अंक” भी कहा जाये तो अनुचित न होगा।

आज के लेख को प्रकाशित करने से पूर्व हमने ऑनलाइन सोर्सेज से न जाने कितनी ही रिसर्च की कि कहीं से इस शंका का समाधान हो सके कि “परम पूज्य गुरुदेव स्वयं ही महाकाल हैं।” वैसे तो गुरुदेव के प्रति शंका करना उनका अनादर ही समझा जायेगा लेकिन करबद्ध, क्षमाप्रार्थी होकर कितने ही दिन रिसर्च करते रहे, अनेकों से पूछते भी रहे लेकिन समाधान गुरुदेव के साक्षात् सूक्ष्म मार्गदर्शन से ही मिला जब उन्होंने 2011 वाला 14 वर्ष पुराना अखंड ज्योति का अंक हमारे हाथ में थमा दिया। हमारा भटकना गुरुदेव द्वारा हमारी परीक्षा लेना ही हो सकता है। 

युगतीर्थ शांतिकुंज में, यां किसी भी गायत्री परिजन से यही सुनने में मिलता रहा कि गुरुदेव स्वयं ही महाकाल है। आद सरविन्द जी का फेवरेट स्लोगन है “गुरुदेव स्वयं महाकाल हैं और जिनके सिर पर महाकाल का हाथ होता है उनका कभी अनर्थ नहीं हो सकता।” बिहार स्थित मस्तीचक शक्तिपीठ में  गुरुदेव की महाकाल रुपी प्रतिमा भी स्थापित है। “शांतिकुंज महाकाल का घोंसला है” जैसे टाइटल से, गूगल सर्च में बहुत कुछ मिल जाता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से ही 2021 और 2023 में दो लेख प्रकाशित हुए हैं।    जिज्ञासाभरे सारे प्रश्नों का कारण हमारे विज्ञान के विद्यार्थी होना ही था। मैं न मानूं वाली  प्रत्यक्षवादी प्रवृति के मनुष्य जो ठहरे। 

आज के लेख में आद. बद्रीप्रसाद पहाड़िया जी और हिमालय से अवतरित पांच दिव्य ऋषिसत्ताओं के बीच हुए वार्तालाप का वर्णन है। इस वार्तालाप के बाद हमारी शंका का समाधान हुआ है जिसके लिए हम परम पूज्य गुरुदेव का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।   

हमारे साथिओं को स्मरण हो आया होगा कि वंदनीय माता जी के बाद,पहाड़िया जी को परमपूज्य गुरुदेव ने तपोभूमि मथुरा में दीक्षा प्रदान की थी।

तो आइये हम सब इक्क्ठे होकर, एक समर्पित परिवार की भांति,पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने गुरु के चरणों में शीश नवाते हुए इस भावना के साथ आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें कि हमारे  शरीर के एक-एक Cell में जीवनी-शक्ति का संचार हो। 

सद्बुद्धि की देवी माँ गायत्री एवं ज्ञान की देवी माँ सरस्वती हमारी लेखनी को चलाती रखें, ऐसी प्रार्थना करते हैं। 

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1958 का वर्ष था, मथुरा नगरवासी युगक्रांति के संचालक युगाधिपति भगवान महाकाल की महिमा अनुभव कर रहे। थे। अभी 11 वर्ष पहले ही देश को स्वाधीनता मिली थी। देशवासियों को एक ओर स्वाधीन होने का हर्ष था तो दूसरी ओर दो भागों में विभाजन से मिली स्वाधीनता का दुःख भी था। फिर भी वातावरण में कुछ अनूठा,अलौकिक घटित हो रहा था। शरद ऋतु का आगमन हो चुका था। युगक्रांति का बीजारोपण करने वाले विराट सहस्र कुंडीय महायज्ञ की तैयारियाँ जोरों से चल रही थीं। महायज्ञ की तिथि 23 से 26 नवंबर घोषित की गई थी।देश विदेश के कोने-कोने से गायत्री साधक आ रहे थे। इन आने वालों में से कोई भी ऐसा नहीं था, जिसने कठिन व्रत व तपश्चर्या के साथ सवा लाख गायत्री जप की साधना पूरी न की हो। अनेक उत्साही व्यक्तियों ने तो कई-कई सौ मील का रास्ता साइकिल से ही तय किया था। सौराष्ट्र से शशिकांत और ऋषिकेश नाम के दो सज्जन 600 मील से अधिक की साइकिल यात्रा करके मथुरा पहुँचे थे। अजब दत्त नाम के वृद्ध अंधे व्यक्ति तो अकेले ही कई सौ मील की पैदल यात्रा करके इस समारोह में पहुँच गए थे।

इन सभी में एवं ऐसे लाखों लोगों में साधना की श्रद्धा थी, तप की निष्ठा थी और सबसे बढ़कर “भगवान महाकाल के सहचर” बनने का उत्साह था। ऐसे निष्ठावान लोगों का उत्साह, उल्लास मथुरा की हवाओं में, यमुना के पावन जल में घुल रहा था। चारों ओर यही चर्चा थी कि आचार्य जी इस सहस्रकुंडीय महायज्ञ के माध्यम से कोई “विलक्षण आध्यात्मिक प्रयोग” करने जा रहे हैं। यह सूर्य की आध्यात्मिक ऊर्जा के संदोहन का ऐसा आश्चर्यकारी प्रयोग है, जिसके प्रभाव व परिणाम स्वरुप आने वाली इक्कीसवीं सदी में एक के बाद एक नई क्रांति को जन्म देते रहेंगे। By tapping the solar energy, so much unimaginable, unexpected  can be done.

इस यज्ञ के लौकिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप को लेकर चारों ओर कई तरह की चर्चाएँ हो रही थीं। विभिन्न प्रांतों के गायत्री साधकों को लेकर आठ नगर बसाए हुए थे, जो गायत्री तपोभूमि से लेकर प्रेम महाविद्यालय तक फैले हुए थे ।यह आठ नगर निम्नलिखित थे:

(1) नारद नगर (2) दधीचि नगर (3) व्यास नगर (4) पतंजलि नगर (5) वसिष्ठ नगर (6) याज्ञवल्क्य नगर (7) भरद्वाज नगर एवं (8) विश्वामित्र नगर 

महर्षियों के नाम पर बसे हुए इन नगरों में सचमुच ही ऋषियों की सूक्ष्म चेतना संव्याप्त थी। यहाँ पर उनका “अलौकिक आध्यात्मिक संरक्षण” था।

जब इस सहस्र कुंडीय महायज्ञ को प्रारंभ होने में कुछ ही दिन बचे थे तो  आचार्य जी से उनके एक निकटस्थ सहयोगी बद्रीप्रसाद पहाड़िया ने कहा, “गुरुदेव ! यज्ञ की तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकी हैं। सारी व्यवस्थाएँ सुचारु हैं। सभी लोग अपने-अपने दायित्व निभा रहे हैं। ऐसे में अब मेरे लिए क्या आदेश है ?” पहाड़िया जी पर गुरुदेव का आत्मीय प्रेम था। ये बांदा, उत्तर प्रदेश  के रहने वाले थे। बाद के दिनों में पहाड़िया जी  शांतिकुंज में रहे। जीवन के अंतिम वर्ष उन्होंने यहीं बिताए। उनके प्रश्न को सुनकर गुरुदेव पहले तो गंभीर हुए, फिर हल्के  से मुस्कराए और बोले,”अच्छा, मैं तुम्हें इस यज्ञ की व्यवस्था का सबसे महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपता हूँ। इसे बड़ी जिम्मेदारी से निभाना और शिकायत का कोई मौका न देना।” पहाड़िया जी ने कहा,“आप आज्ञा तो दीजिए गुरुदेव ! मैं जी-जान लगा दूँगा लेकिन काम क्या है ?” पहाड़िया जी की इस बात के उत्तर में गुरुजी बोले,”काम है अतिविशिष्टजनों के स्वागत का, उनकी देख-रेख करने का, उन्हें भोजन कराने का।”पहाड़िया ने कहा,”मैं यह काम बड़ी आसानी से कर लूँगा,आपको कोई शिकायत न होगी।” उनकी इस बात पर गुरुदेव बोले, ” पहले यह तो पूछ लो,यह अतिविशिष्ट व्यक्ति कौन हैं ?” गुरुदेव की इस बात पर पहाड़िया जी सोचने लगे कि  कोई केंद्रीय या प्रांतीय मंत्री, कोई वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी होंगे। अभी वे कुछ और आगे सोच पाते, इसके पहले ही उनके विचारों की कड़ियों को तोड़ते हुए आचार्य जी ने कहा, “मेरे लिए मंत्री/अधिकारी विशिष्ट/ महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट तो हिमालय में रहकर मानवता के हित के लिए निरंतर तप-निरत रहने वाली ऋषिसत्ताएँ हैं। इनमें से कई दिव्य ऋषि यहाँ इस यज्ञ में आने वाले हैं।” 

अब तो पहाड़िया जी के चौंकने की बारी थी। अब वे युगऋषि की बातें अधिक ध्यान से सुनने लगे। गुरुदेव कह रहे थे, “वोह तुमसे स्वतः मिल लेंगे। तुम उन्हें ठहराना, भोजन कराना। वे जिस पत्तल में भोजन करें, उसे कहीं इधर-उधर मत फेंकना बल्कि धरती में कहीं गड्ढा खोदकर गाड़ देना।” आचार्य जी की बातों ने पहाड़िया जी को और अधिक सतर्क कर दिया, उनकी उत्सुकता व जिज्ञासा और भी बढ़ा दी।

यज्ञ के पहले वाले ही दिन प्रातः काल जब पहाड़िया जी यमुना के तट पर भ्रमण कर रहे थे, तभी पाँच दीर्घकाय व्यक्ति अचानक उनके सामने प्रकट हो गए। पहाड़िया जी समझ भी न पाए कि ये कहाँ से, किस ओर से अचानक कैसे आ गए। इन्हें देखने पर लगता था कि इनकी लंबाई आठ फीट या इससे कुछ अधिक ही होगी। इनमें से तीन तो दिगंबर थे, दो ने कटि पर मात्र कौपीन पहन रखी थी। इन पाँच में दो गौर वर्ण के थे, तीन का रंग थोड़ा साँवला था लेकिन  सभी की जटाएँ लंबी थीं, चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी। उन सबकी आँखें तो जैसे दोपहर का सूर्य ही हो। पहाड़िया जी ने उनकी ओर एक नज़र  देखकर अपनी पलकें झपका लीं। बस, उनके कानों में एक व्यक्ति के शब्द पड़े, ” अरे पहाड़िया जी! तुम परेशान न हो। आचार्य जी ने तुम्हें हम सबके बारे में पहले ही बता  रखा है तुम तो हमें सारी यज्ञभूमि के दर्शन कराओ।” यह बात सुनकर पहाड़िया जी को होश आया। उन्होंने सभी को साष्टांग प्रणाम किया और उनके साथ-साथ चल दिए। वे उनके साथ यज्ञ समारोह के सभी दिन रहे और उनकी उसी रीति से व्यवस्था की जैसा कि उनसे कहा गया था।

अब अंतिम दिन आ गया। अब इन अलौकिक महापुरुषों को विदा होना था। पहाड़िया जी के मन में अनेक सवाल थे लेकिन  “न पूछने” का बंधन  था। उनकी यह बेचैनी इन अंतर्यामी दिव्य महर्षियों से छिपी न रह सकी । उनमें से एक गौर वर्ण के महर्षि ने कहा,”पहाड़िया जी! आचार्य जी ने तो तुम्हें ही अनुशासन और प्रतिबंध में बाँधा है, हम सबको नहीं। हम तुम्हारी जिज्ञासाओं का समाधान किए देते हैं: 

आचार्य जी, जिन महाकाल की बात कहते हैं, वह उनसे भिन्न कोई अन्य सत्ता नहीं है। प्रकट रूप में जिन्हें संसार युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा के रूप में जानता है, वही अदृश्य व सर्वव्यापी स्वरूप में महेश्वर महाकाल हैं। युग परिवर्तन इन्हीं का सुनिश्चित संकल्प है। युग परिवर्तन की चर्चा करते समय तुम्हारे गुरुदेव कहते हैं कि युगक्रांति एवं युग परिवर्तन का संकल्प तो भगवान महाकाल का है। मैंने तो केवल इसकी जानकारी देने एवं इससे संबंधित व्यवस्था जुटाने का काम करना है। यह महायज्ञ उनके द्वारा की जाने वाली युगक्रांति का प्रथम उद्घोष है। इस यज्ञ का स्थूल स्वरूप जितना व्यापक है, उससे हजारों गुना व्यापक इसका सूक्ष्म स्वरूप हैं, जिसके प्रभाव और परिणाम केवल इस सदी में ही नहीं, अगली पूरी इक्कीसवीं सदी में आते रहेंगे। अपने कार्य का थोड़ा सा हिस्सा आचार्य जी अपने इस वर्तमान शरीर में रहकर करेंगे और बाकी बचा हुआ संपूर्ण कार्य वे शरीर छोड़ने के बाद करेंगे। उनके महाप्रयाण के बाद  क्रांतियों एवं परिवर्तनों की बाढ़ सी आ जाएगी। जीवन का कोई क्षेत्र एवं विश्व का ऐसा कोई कोना नहीं बचेगा जिसमें  क्रांति एवं परिवर्तन की झलक न दिखाई दे । इस संपूर्ण युगक्रांति के संचालक स्वयं आचार्य जी होंगे, जिन्हें तुम महाकाल के रूप में भी अनुभव कर सकते हो। उनके द्वारा इस सहस्रकुंडीय यज्ञ के माध्यम से जो क्रांति का प्रवाह उत्पन्न किया जा रहा है, उसी का एक अंश युग निर्माण मिशन के माध्यम से प्रकट होता रहेगा।” 

पहाड़िया जी स्तब्ध हुए सुनते रहे और ऋषि अदृश्य हो गए।

समापन। जय गुरुदेव 

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