वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

प्राणाग्नि के जखीरे पर आधारित लेख श्रृंखला का 14वां लेख-प्राणाग्नि के सदुपयोग से मनुष्य अपरिमित शक्ति का स्वामी बन सकता है।

परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य रचना “काया में समाया प्राणाग्नि का ज़खीरा” को आधार मान कर 27 जनवरी 2025 से आरम्भ हुई ज्ञानप्रसाद लेख शृंखला का आज समापन हो रहा है। आज 14वां लेख प्रस्तुत करते हुए जिस ऊर्जा एवं हर्ष का आभास हो रहा है उसका शब्दों में वर्णन करने में हम असमर्थ हैं। हमारे ह्रदय में उठ रही ऊर्जा एवं हर्ष का श्रेय हमारे समर्पित साथिओं को जाता है जिन्होंने हर बार की तरह इन लेखों को भी बढ़ चढ़कर सम्मान दिया, कमैंट्स/काउंटर कमैंट्स की प्रक्रिया का अनवरत पालन करते हुए, इस दिव्य ज्ञान का अमृतपान किया, जिसके लिए हमारे सभी साथी बधाई एवं धन्यवाद के हकदार हैं। कमैंट्स/काउंटर कमैंट्स की प्रकिया से प्राप्त हुआ ज्ञान लेख शृंखला को और भी रोचक, ज्ञानवर्धक और Informative बनाता रहा।

आज का ज्ञानप्रसाद लेख सही मायनों में सारे लेखों का बहुत ही सरल सा/संक्षिप्त सारांश है एवं ऐसी शिक्षा लेकर आया है जिसे अपनाने पर कोई शंका रहती ही नहीं है कि कोई भी मनुष्य अपरिमित शक्ति का स्वामी न बन सके। हम विश्वास से कह सकते हैं कि 13 लेखों में दिए गए ज्ञान एवं आज के लेख की शिक्षा का पालन करने से अनेकों परिवारों में व्याप्त अज्ञानता का नाश होगा, प्राण-विद्युत का सदुपयोग होगा, शारीरिक एवं आत्मिक स्तर में विकास होगा तथा 24 मार्च की वीडियो में दर्शाये गए प्रैक्टिकल की भांति हम सब साथिओं के शरीर सीरीज में कनेक्ट होकर, अनेकों जगमगाते बल्ब पूरे विश्व को प्रकाशमय बना देंगें, ज्योत से ज्योत जलाने का सिद्धांत सार्थक कर देंगें।इस प्रकार जब ज्ञान का प्रसार होगा,गुरुदेव प्रत्येक घर में विराजमान होंगें तो धरती पर स्वर्ग का अवतरण होकर ही रहेगा। आज का प्रज्ञागीत बचपन से अनवरत स्कूलों में बहुप्रचलित “ज्योत से ज्योत” का सन्देश ही लेकर आया है।

आज के ज्ञानप्रसाद के साथ हमने बायोलॉजी की प्राम्भिक कक्षाओं में लटकता एक चार्ट संलग्न किया है जिसे ध्यान से देखने पर पता चलता है कि कैसे हम सांस खींच कर वातावरण से प्राण वायु (ऑक्सिजन) लेते हैं जो फेफड़ों में जाकर रक्त साफ़ करती है, साफ़ रक्त हमारे शरीर में फैले 30 ट्रिलियन Cells को जीवन प्रदान करती है, हम प्राप्त हुई शक्ति से जीवन की अनेकों क्रियांए सम्पन्न करते हैं। हमारे शरीर के 5 लीटर रक्त का एक-एक कतरा,एक- एक Cell को एक अभिभावक की भांति पोषण प्रदान करता है। चित्र में नीला रंग गंदे रक्त के लिए एवं लाल रंग साफ़ रक्त के लिए प्रयोग किया गया है।

इसी इंट्रोडक्शन के साथ आज के आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ होता है। माँ गायत्री एवं गुरुदेव से निवेदन करते हैं कि हमें विवेक का दान दें। वीणा वादिनी, ज्ञान की देवी माँ सरस्वती से निवेदन करते हैं कि हमें इतना योग्य बना दें, हमारे सिर पर सदैव अपना हाथ धरना माँ ताकि हमारी लेखनी सदैव चलती रहे।

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उच्च स्तर को प्राप्त योगीजनों, महापुरुषों को चरण स्पर्श करने पर, सिर पर हाथ फेरे जाने पर, वात्सल्य, थपथपाने, अनुदान, शक्तिपात आदि में जीवनी शक्ति की विद्युत ही प्रयुक्त होती है। किसी उच्च मनोभूमि के महायोगी के समीप बैठने से भी मन व अंतःकरण में हलचल मचा देने वाली यही “प्राण-विद्युत” है। यह सामान्य विद्युत से भिन्न स्तर की, उपकरणों की पकड़ से बाहर की शक्ति है एवं मूलतः अनुभूति का विषय है। इस शक्ति को मात्र भावनात्मक माध्यम से ही समझा एवं अनुभव  किया जा सकता है।

मनुष्य शरीर में स्थित “प्राण-विद्युत” के इन आकस्मिक विस्फोटों के कारणों का और उन्हें रोक सकने के उपायों का पता तो वैज्ञानिक ही लगा सकते हैं और वे लगा भी लेंगे लेकिन इतना सुनिश्चित है कि  ऐसे विस्फोट विरले ही होते हैं। यदि ऐसी घटनाएं आये दिन होनी शुरू हो जाएँ तो अवश्य ही इनकी दुकानदारी प्रचलित हो जाएगी  और इस “प्राण-विद्युत” के दुरूपयोग से उठने वाली समस्याएं सदुपयोग की जगह ले लेंगी। मनुष्य की ऐसी ही प्रवृति है,अपने स्वार्थ के लिए वह किसी भी हद तक गिर सकता है,ऐसे उदाहरण अक्सर हर दिन ही देखने को मिल रहे हैं।

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से मानव शरीर में व्याप्त “असीमित प्राणाग्नि” पर इतने विस्तार से चर्चा करने के बाद एक ही निष्कर्ष निकलता है कि इस “प्राणाग्नि के दुरुपयोग” से मानव भले ही आकस्मिक विस्फोटों की तरह पूरे तौर पर न जले, किन्तु भीतर ही भीतर  जलता रहता है, कुढ़ता रहता है। ईश्वर द्वारा प्रदान इस अनमोल रत्न (शरीर) का नाश करता रहता है। जलन, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि व्यसनों में लिप्त मनुष्य बहुमूल्य “जीवनी-शक्ति का दुरुपयोग” करते हुए, काम-विकार की नालियों में इस “जीवनी-शक्ति” को बहाए जा रहा है। बहुमूल्य “प्राणाग्नि” के दुरुपयोग से मनुष्य की शरीरिक और मानसिक शक्ति घटती है एवं ओजस् घटता है। कटुवचन, परनिन्दा, असत्य-कथन,कठोर वाणी द्वारा “प्राणाग्नि” को गलत ढंग से खर्च करने के यह कुछ एक उदाहरण हैं। ऐसी स्थिति में  व्यक्ति स्वयं तो  जलता ही है,औरों को भी चैन से नहीं जीने देता है। इस तथ्य का साक्षात् वैज्ञानिक उदाहरण तो हम सभी प्रतिदिन ही देखते हैं/अनुभव करते हैं। स्टोव के बर्नर पर रखे बर्तन के हैंडल को  छूते ही गर्मी का एहसास हो जाता है, इसके बावजूद कि बर्नर हैंडल से कितनी ही दूरी पर स्थित है। ठीक इसी तरह मनुष्य की जलन आस-पास के लोगों को अनुभव न हो, ऐसा संभव ही नहीं है।परिवार के किसी सदस्य की अमानवीयता, परिवार के दिव्य वातावरण को प्रभावित न करे, ऐसा हो ही नहीं सकता।

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मानवीय मूल्य, “प्राणाग्नि” के इसी सिद्धांत का पालन करने की दृष्टि से बार-बार दोहराये जाते हैं। सदैव यही प्रयास रहता है कि परिवार के किसी भी सदस्य के अंदर व्याप्त “प्राणाग्नि” का दुरूपयोग न हो, किसी की भी भावना आहत न हो।   

बड़े पैमाने पर स्पष्ट दिखाई दे सकने वाली हानियां तो शरीर की आग से जल उठने की घटनाओं जैसी ही विरली होती हैं। भीषण दुष्परिणाम तो कभी-कभी ही सामने आते हैं लेकिन  “प्राण-विद्युत” के असन्तुलन से, उसके ‘लीक’ होने से मनुष्य को एवं उसके सम्पर्क क्षेत्र में आने वाले अनेकों लोगों को तेज झटके लगने के उदाहरण नित्य ही देखे जा सकते हैं। हमारे समाज में ऐसे ढीले-पोले व्यक्तित्वों की कोई कमी नहीं है जिनके मन, बुद्धि, अन्तःकरण में से  “प्राण-विद्युत” निरन्तर “लीक’ होती रहती है। ऐसे लोगों के सम्पर्क में जो कोई भी आता है, उनके कटुवचनों, कुचालों, दुर्भावनाओं और दुर्व्यवहार के रूप में “लीक” हो रही “प्राण-विद्युत” के झटकों से आहत हो जाता है। दूसरी ओर जो लोग इस प्राण-विद्युत का सदुपयोग करते हैं, वे स्वयं भी सुख-शान्ति पाते हैं, दूसरों को भी लाभ पहुंचाते हैं। ऐसे लोग अपनी इसी विद्युत क्षमता से धरती पर नंगे पाँव चलकर भूमि के गर्भ में छिपी अनेक धातुओं के भण्डार की सही-सही जानकारी दे देते हैं। ऐसी क्षमताओं से सम्पन्न अनेक लोग आये दिन देखे जाते हैं और उनकी चारों ओर प्रसिद्धि फैलते देर नहीं लगती। उन्हें स्वयं भी इस परोपकार से प्रसन्नता होती है, दूसरों को भी वे उपयोगी एवं महत्वपूर्ण लगते हैं। 

आन्तरिक क्षेत्र में क्रियाशील प्राण-शक्ति के सदुपयोग से मिलने वाले लाभ तो और भी कई गुने अधिक हैं। साहस, शौर्य, बौद्धिक-प्रखरता, सत्संकल्प और सक्रियता सही दिशाधारा में नियोजित किये जाने पर प्रगति, उत्कर्ष, सफलता, सन्तोष और शान्ति के शतमुखी अनुदानों की वर्षा होती है। पौराणिक ग्रंथों  में कहा गया है ‘‘प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या’’ अर्थात् प्राण रूप प्रज्ञा में  मेरा वास है । इस प्राण-प्रज्ञा के द्वारा सत्संकल्प, सत्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव के आधार पर जीवन के सदुद्देश्य की प्राप्ति ही प्राणाग्नि का विकास  एवं सदुपयोग है। जीवन में उत्कृष्टताओं की उपलब्धि इसी “जीवन्त प्राण-शक्ति” द्वारा होती है। इसे ही प्रतिभा कहा जाता है। यही वह विद्युत तत्व है जो अपना परिचय कभी संकल्प बल के रूप में, कभी प्रचण्ड जीने की इच्छा के रूप में, कभी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले अग्नि के दहकते शोलों के रूप में देता रहता है। यदि इस महाशक्ति का सुनियोजन सोचा जा सके एवं नष्ट होने से बचा कर प्रसुप्त पड़ी सामर्थ्य को जगाने में इसका सदुपयोग हो सके तो “मनुष्य अपरिमित शक्ति का स्वामी” हो सकता है। अपनी जाग्रत सामर्थ्य से वह ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करते हुए स्वयं की  आत्मिक प्रगति  तथा समाज के कल्याण का पथ प्रशस्त करता रह सकता है।

समापन, जय गुरुदेव 

इसी के साथ आज की आध्यात्मिक गुरुकक्षा का समापन होता है, कल एक और अतिरोचक लेख प्रस्तुत करने की इच्छा है। 


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