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प्राणाग्नि के जखीरे पर आधारित लेख श्रृंखला का 10वां लेख- प्राणों का संचय कितना सरल, कितना महत्वपूर्ण ?

प्राणाग्नि पर चल रही वर्तमान लेख श्रृंखला में आज प्रस्तुत किया गया आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद भी अपनेआप में बहुत ही महत्वपूर्ण है। आर्थिक दृष्टि से हर कोई संपन्न होना चाहता है, जिधर से भी मिल जाये, उलटे/सीधे मार्ग से धन का संचय कर, अधिकतर लोग बैंक बैलेंस को बढ़ाना चाहते हैं  लेकिन कभी प्राणों का संचय, उसके बैंक बैलेंस पर भी विचार किया है ? 

आज के आध्यात्मिक ज्ञानप्रसाद लेख में इसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा की जा रही है। मनुष्य का एक-एक प्राण अमूल्य है, ईश्वर ने उसे गिन  कर एक निश्चित मात्रा प्रदान की है, न 1 कम और न ही 1 ज़्यादा, इसलिए उस प्राण का सदुपयोग करना बहुत आवश्यक है क्योंकि हमने ईश्वर को पाई-पाई का हिसाब चुकाना है। 

इसी संक्षिप्त भूमिका से आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ होता है। 

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आधुनिक उपकरणों से मानव शरीर के अन्दर छिपे प्राणाग्नि के जखीरे को समझने में काफी सहायता मिल पायी है। इस सम्बन्ध में उपनिषद्कार पहले ही लिख चुके हैं कि 

प्राण को अंगारा एवं प्राणाग्नि को उससे निकलने वाली धधकती ऊर्जा (लौ) के रूप में समझा जा सकता है। जड़-जगत में तरंगों के रूप में तथा चेतन-जगत में विचारणा एवं सम्वेदना के रूप में व्याप्त यह प्राण-प्रवाह, इलेक्ट्रिक एनर्जी  का सूक्ष्मतम स्वरूप है। ईश्वर के अनुदान के रूप में, मानव शरीर अदृश्य अन्तरिक्ष जगत से “ब्राह्मी प्राणशक्ति” लगातार ग्रहण करता रहता है, Absorb करता रहता है।

यही “ब्राह्मी प्राणशक्ति” व्यक्ति को ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी बनाती है। इसी शक्ति के खर्च होने पर जीवन में होने वाले परिणाम निरुत्साह, रुग्णता, हताशा, अवसाद के रूप में प्रकट होते हैं। जिस प्रकार जीवन के हर पहलू में संयम की आवश्यकता होती है,ठीक उसी प्रकार संयमी  मनुष्य इस “ब्राह्मी प्राणशक्ति” को बढ़ाते चलते हैं जिसका परिचय वोह बढ़ी-चढ़ी प्रतिभा/ प्रखरता के रूप में देते हैं।

प्राण सूक्ष्म शरीर का अंग है। प्राणोँ से ही कारण, सूक्ष्म व स्थूल शरीर चेतन दिखते हैं और क्रियाशील हो पाते हैँ। स्थूल शरीर युक्त जीवों  के उपरोक्त तीनोँ शरीरों में  आत्मा (चेतना) व्याप्त रहती है।

शरीरों  की क्रियाशीलता का कारण ये प्राण ही हैं । लोग बोलते हैं कि उस व्यक्ति  के प्राण पखेरू उड़ गये। इसका सीधा अर्थ यह होता है कि आत्मा उसके तीनों शरीरों से निकल गयी है। 

प्राण कभी भी निष्क्रिय नहीं  होते क्योंकि सूक्ष्म में  तो चेतना व्याप्त है अर्थात प्राण सक्रिय हैं । बस यह चेतनता जो कुछ समय पूर्व व्यक्ति  के स्थूल शरीर में  रहते हुए साकार रूप मेँ दिख रही थी अब वही निराकार रूप  को प्राप्त हो चुकी होती है।

स्थूल शरीर की मृत्यु के बाद आत्मा मात्र दो शरीरों (कारण व सूक्ष्म) में  ही सीमित हो उन्हीं में  व्याप्त रहती है।

“प्राण विद्युत” अर्थात Life electricity व्यक्ति के चेहरे एवं  आंखों में चमक लाती है। वाणी में मिठास और सिंह जैसी गर्जन भी इसी इलेक्ट्रिसिटी के कारण होती है। इसी के माध्यम से प्रभावशाली व्यक्तित्व बन पड़ता है। इस “प्राण विद्युत” की विशेषता है कि सम्पर्क में आने वालों को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींचती और अपनी विशेषताओं से प्रभावित करती है। बहुत बार देखा गया है कि ऋषि आश्रमों के इर्द-गिर्द अद्भुत “प्राण” छाया रहता है और उसका प्रभाव हिंसक  पशुओं तक भी पड़ता है। सिंह और गाय के एक घाट पर पानी पीने की घटनाएं ऐसे ही क्षेत्रों में दृष्टिगोचर होती हैं। नारद के प्रभाव से वाल्मीकि ओर बुद्ध के सान्निध्य में अंगुलिमाल का कायाकल्प हो जाना ऐसे ही प्रचण्ड प्राण प्रहार का प्रतिफल है। 

कुसंग और सत्संग में यही प्राण ऊर्जा विशेष रूप से काम करती है।

चार वर्ष पूर्व ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से “मनोनिग्रह” के महत्वपूर्ण विषय पर एक विस्तृत लेख श्रृंखला प्रकाशित की गई थी। लगभग एक माह तक चली इस लेख श्रृंखला का आधार श्रीरामकृष्ण मिशन के  स्वामी बुद्धानंद जी की पुस्तक The Mind and its control रहा था।

निग्रह का शाब्दिक अर्थ कंट्रोल, बचत,फिजूल खर्ची न करना आदि होता है। घर में बड़े बुजुर्ग धन की फिजूल खर्ची, बिजली की फिजूल खर्ची, Tap  से बहते पानी की फिजूल खर्ची आदि को लेकर  पीछे पढ़े ही रहते हैं । ऊर्जा का संचय अर्थात Energy conservation इतना प्रचलित विषय है कि इसके बारे में जितना भी लिखा जाए, कम ही रहेगा। Bright sunny day में बल्ब का जलते रहना कोई समझदारी नहीं है। सोलर लाइट का उपयोग करके हम सीधा अपने बिजली के बिल में कटौती करके धन का संचय करते हैं, बचत करते हैं।

यदि मनोनिग्रह (मन का कण्ट्रोल) महत्वपूर्ण है तो प्राण-निग्रह ( प्राण का कण्ट्रोल) उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। 

जिस प्रकार धन बचा कर समझदार व्यक्ति बैंक बैलेंस बढ़ाने की समझदारी करते हैं,उसी प्रकार “प्राण” की बचत करके हम “जीवन का बैंक बैलेंस” बढ़ा सकते हैं, प्राण-निग्रह से दीर्घायु की संभावना बढ़ती है।

“प्राण-निग्रह” का अर्थ है प्राणों को नियंत्रित करना या जीवनी शक्ति को अपने नियंत्रण में रखना। यह योग और ध्यान की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जहाँ सांसों और शरीर की ऊर्जा को नियंत्रित करके मन और शरीर को शांत किया जाता है।  प्राण-निग्रह में सांसों को नियंत्रित करना, ध्यान लगाना और शरीर को शांत करना शामिल है, इससे तनाव कम होता है, मन शांत होता है, और शरीर में ऊर्जा का प्रवाह बेहतर होता है। इंद्रियों को नियंत्रित करना भी प्राण-निग्रह से संबंधित है, क्योंकि इंद्रियों को नियंत्रित करने से भी  मन को  शांत किया जा सकता है। 

संसार में हर कोई दीर्घजीवी होना चाहता है, सबकी इच्छा रहती है हम अधिक दिन तक जीवित रहें, कुछ बातों का नियमपूर्वक  पालन करने से मनुष्य अपनी आयु बढ़ा सकते हैं। प्रत्येक प्राणी के जीवन और उसकी आयु का समय उसके श्वासों पर निर्भर है। उसके प्रारब्धानुसार उसे निश्चित श्वास प्रदान किये जाते हैं जो न कभी कम और न अधिक हो सकते हैं। तभी तो कहा जाता है कि इन अति मूल्यवान सम्पदा को जितना हो सके बचा कर रखना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य दिन रात के 24 घंटों में 21600 श्वास लेते हैं। यह सरल सा गणित इस आधार पर बताया गया है कि मनुष्य एक मिंट में 15 श्वास लेता है। अगर प्राणायाम यां किसी अन्य सरल साधन से कोई मनुष्य 15 के बजाए 14 श्वास लेता है तो वोह केवल एक ही दिन में 1440 श्वास संचय कर सकता है। यह नंबर एक माह में 43200 हो जाता है और एक वर्ष में पांच लाख से भी ऊपर जा पंहुचता है। इस गणित से देखा जा सकता है कि प्राण संचय से आयु का समय कितना बढ़ाया जा सकता है। 

मनुष्य अपनी ही असावधानी से,अपने ही क्रियाकलापों से श्वास को आवश्यकता से अधिक खर्च करता है । इसी का परिणाम होता है कि ईश्वर द्वारा प्रदान अनुपम संपदा  के दुरुपयोग के कारण उसकी आयु का समय घट जाता है। 

साराँश यह है कि मनुष्य इस कार्य में स्वतन्त्र है कि ईश्वर दत्त श्वासों के कोष को चाहे जितनी शीघ्रता से लुटा दे या कंजूसी से कम खर्च करते हुए बैंक बैलेंस बढ़ा ले। इसी कारण भजनानन्दी तथा योगियों की आयु अधिक होती है, अधिक सोने वाले और विषय लम्पट पुरुषों की आयु कम होती है वह अपनी जीवन यात्रा शीघ्र समाप्त कर देते हैं । “लम्पट” शब्द का अर्थ है व्यभिचारी, विषयी, कामी, कामुक, स्वेच्छाचारी है।

श्वास बचाने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आलसी बन कर बैठे रहने में सबसे कम श्वास चलता है और  इससे आयु बढ़ जायगी। हर किसी को जीवन निर्वाह के लिए सब  कार्य करने पड़ते हैं। आप सब कार्यों को नियमित रूप से करते रहिये। यदि आप अपने सामर्थ्य से अधिक परिश्रम करेंगे तो अवश्य रोगग्रस्त हो जायेंगे।  जिन लोगों के दौड़-धूप के कामों में श्वास अधिक व्यय हो जाते हों उन्हें  विषय भोग कम करके कुछ प्राणायाम करना चाहिए अथवा शीर्षासन करके उस कमी को पूरा कर लेना चाहिए। शीर्षासन में कुंभक  होने से श्वास कम चलता है। यदि बैठे रहने के सिवाय आपको कुछ काम नहीं हैं तो परमात्मा का भजन करो और यथाशक्ति श्वास कुंभक करते रहो इससे आपका स्वास्थ्य ठीक रह कर लोक-परलोक का आनन्द प्राप्त होगा।

जब हम श्वास/प्राण संचय आदि की बात कर रहे हैं तो सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या हम प्राण संचय करने के लिए संकल्पित हैं ? क्योंकि संकल्प लेना तो आसान होती है, निभाना बहुत ही कठिन होता है। हर साल नव वर्ष पर फैशन के लिए Weight loss,Gym membership इत्यादि के संकल्प तो लिए जाते हैं लेकिन थोड़ी देर में ही सब हवा हो जाते हैं।  

प्रण, प्रतिज्ञा,वचन, संकल्प, दृढ निश्चय, कसम खाना  सभी समानार्थी शब्द हैं। सभी का परिणाम तो मनुष्य द्वारा कुछ करने/न करने से ही सम्बंधित है। 

सदियों से यह कहावत चरितार्थ होती आई है, “रघकुल रीत सदा चली आई,प्राण जाए पर वचन(प्रण) न जाई।”। मर्यादा पुरषोतम भगवान श्रीराम  की प्राण प्रतिज्ञा के कारण ही सूर्यवंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है। कोई भी सैनिक जब युद्ध के लिए  प्रस्थान करता है तो मन मे विजय का प्रण करता है कि “मातृभूमि की रक्षा करते हुए प्राण की आहुति भी दे दूगा लेकिन पीठ नहीं दिखाऊंगा।”। रोज ही पढ़तें और सुनते हैं कि आतंकवादियों से लड़ते हुए प्राण न्यौछावर कर दिए। यह उनका प्रण ही होता है जो प्राण  से भी प्यारा होता है। 

“भीष्म प्रतिज्ञा” महाभारत काल से प्रसिद्ध और सर्वविदित है। देवव्रत अपनी प्रतिज्ञा के कारण ही “भीष्म पितामह” बने और अपने प्रण के सम्मान के लिए आजीवन अविवाहित रहे, राजकीय पद से दूर रहे एवं अंत में अपने प्रण की खातिर ही रणभूमि में प्राण त्याग दिए। 

यदि कोई व्यक्ति  बात-बात पर कसम खाता है, प्रण लेता है  तो निश्चित ही ऐसे प्रण, प्राण से अधिक मुल्यवान नहीं हो सकते हैं। ऐसे में प्रतिज्ञा का भंग होना स्वभाविक ही है। 

गायत्री परिवार में भी “कोई एक बुराई छोड़ने” का संकल्प दिलवाया जाता है लेकिन कितने लोग इस संकल्प का पालन करते हैं? जो कर पाते हैं वह कहां से कहां पहुंच जाते हैं, किसी से भी छिपा नहीं है। शांतिकुंज से दीक्षा लेकर आते हैं यानि दीक्षित का सर्टिफिकेट लेकर आते हैं, दीक्षा के समय संकल्प भी दोहराये जाते हैं लेकिन कौन-कौन उन सकल्पों का पालन कर पाता  है।  

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में ऐसी महान संकल्पित आत्माओं का वास है जिन्हें हम सब वर्षों से Track कर रहे हैं।

आज के ज्ञानप्रसाद लेख की शिक्षा यही है कि अगर हम सब (लेखक समेत)  “प्रण-रुपी” जन्म घूंटी की एक भी बूँद का अमृतपान कर लेते हैं तो उसे प्राणों से भी ऊपर समझना चाहिए, तभी परम पूज्य गुरुदेव का सपना साकार कर पायेंगें। 

जय गुरुदेव 

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