वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

प्राणाग्नि के जखीरे पर आधारित लेख श्रृंखला का चौथा लेख -जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकुल स्थित पावन यज्ञशाला में ज्ञानयज्ञ की आहुतियां देने के लिए परम पूज्य गुरुदेव के  हम सब समर्पित बच्चे आज सोमवार को गुरुचरणों में समर्पित होते हैं, निवेदन करते हैं कि हमें विवेक का दान दें। वीणा वादिनी, ज्ञान की देवी माँ  सरस्वती से निवेदन करते हैं कि अपने बच्चे को इतना योग्य बना दो एवं उसके सिर पर हाथ धरो माँ  ताकि उसकी लेखनी  सदैव चलती रहे।

आज का ज्ञानप्रसाद लेख आरम्भ करने से पहले साथिओं को बताना चाहेंगें लगभग डेढ़ माह के अंतराल के बाद एक बार फिर से हम “काया में समाया प्राणाग्नि का जखीरा” दिव्य पुस्तक पर आधारित लेख श्रृंखला को Resume  कर रहे हैं। परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस को समर्पित लेख श्रृंखला के कारण इस दिव्य पुस्तक पर आधारित लेख श्रृंखला को बीच में छोड़ा गया था। 30 जनवरी 2025 को इस श्रृंखला का तीसरा लेख प्रस्तुत किया गया था, आज का लेख इस श्रृंखला का चौथा लेख है। 

स्वाभाविक है कि इस लेख श्रृंखला से सम्बंधित उस समय जो पृष्ठभूमि दी गयी थी, हमारी तरह हमारे साथी भी भूल गए होंगें लेकिन धुंधला सा स्मरण तो होगा  ही कि प्राण, प्राणशक्ति आदि की बात हो रही थी। उस पृष्ठभूमि को फिर से रिपीट करना  तो अनुचित ही होगा लेकिन आज के लेख के साथ कनेक्ट करने के लिए इतना तो कह ही सकते हैं कि संस्कृत की जिन निम्नलिखित पंक्तियों को देखकर हम कांप उठे थे, उन्हें यथाशक्ति समझने का प्रयास करेंगें : 

यो वै प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। —सांख्यायन

यावद्धयास्मिन् शरीरे प्राणोवसति तावदायुः। —कौषीतकि

प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठान्ः। —शतपथ

संस्कृत के उपरोक्त श्लोकों की भांति आज के लेख में 9 श्लोकों का वर्णन है। हमारी तरह साथिओं के लिए भी उचित रहेगा कि संस्कृत भाग को छोड़कर केवल हिंदी में दिए गए “अर्थ भाग” को ही समझने का प्रयास किया जाये। हमने साथिओं की सुविधा के लिए हिंदी भाग को Quote/Unquote (“  “) में दर्शाया है। इन श्लोकों के अर्थ को समझने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि प्राणशक्ति का अस्तित्व वेदों और उपनिषद जैसे पुरातन ग्रंथों से चला आ रहा है जिससे वर्तमान लेख श्रृंखला के अध्ययन को मोहर लगती है।

आज के लेख में गायत्री साधना, गायत्री मंत्र उपासना, गुरुदेव के साथ-साथ गायत्री मंत्र उच्चारण करने को प्राणशक्ति की फैक्ट्री कहा गया है एवं यह फैक्ट्री कहीं बाहिर नहीं, अपने अंदर ही है। वर्तमान लेख श्रृंखला में प्रकाशित हुए सभी लेख एवं आने वाले लेख तभी  सार्थक होंगें जब उन्हें इस भावना से समझा जायेगा। 

तो इन्हीं शब्दों के साथ आज के ज्ञानयज्ञ का शुभारम्भ होता है। 

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गायत्री साधना मनुष्य को “प्राणयुक्त” बनाती है , प्राण से भरपूर करती है और उसमें प्रखरता उत्पन्न करती है। गायत्री का अर्थ ही है प्राणों का उद्धार करने वाली। इस प्रकार प्राणवान और विभिन्न शक्तियों में प्रखरता उत्पन्न होने से पग-पग पर सफलताएं, सिद्धियां प्राप्त होती हैं। “प्राण की न्यूनता” ही समाज में, मनुष्य के आसपास उठने वाली  विपत्तियों का, अभावों और शोक-सन्तापों का कारण है। 

दुर्बल पर हर दिशा से आक्रमण होता है, दैव भी दुर्बल का घातक होता है। प्राणहीन मनुष्य मृत लाश ही तो है, प्राण पखेरू उड़ते ही मनुष्य मृतक घोषित कर दिया जाता है। प्राणहीन व्यक्ति का तो भाग्य भी साथ नहीं देता। जिस प्रकार मृत लाश को नोचने के लिए चील, कौए टूट  पड़ते हैं वैसे ही प्राणहीन,बलहीन,सत्ताहीन,अर्थहीन,शरीरहीन, ज्ञानहीन मनुष्य पर विपत्तियां टूट पड़ती है। 

इसलिए हर बुद्धिमान, विवेकवान व्यक्ति  को “प्राण का आश्रय” लेना ही चाहिए। ऐसा इसलिए कहना उचित हो जाता है कि जिस मनुष्य ने अपने अंदर “प्राण” का संचय कर लिया बाकि की सारी  सम्पदाएँ उसके पास स्वयं ही दौड़ी-दौड़ी आएंगीं। 

ज्ञानप्रसाद लेखों में अनेकों बार “जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं” का उदाहरण दिया जा चुका है। आज फिर उसी सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि हिम्मत और उत्साह ही सही जीवन की निशानी है। संघर्षशील जीवन उत्सव सा होता है एवं नया जोश, नई चुनौती लेकर आता है  सही जीवन का अर्थ ही जोश, उत्साह, हिम्मत और जिंदादिली है । हलचल, हिम्मत, साहस ही जीवन की निशानी है। जो लोग हर क्षण उत्साह की तरंग में रहते हैं, उनकी जीवन जीने की शैली मनोरम होती है। जो जीवन के हर खतरे को चुनौती समझकर झेलते हैं, उनका जीवन उत्सव-जैसा बन जाता है। उन्हें हर क्षण नया काम मिला रहता है। वे अपने मन में स्फूर्ति और नवीनता का अनुभव करते हैं। ऐसे लोग कभी भी  मन में निराशा और ग्लानि अनुभव नहीं करते बल्कि उन्हें खतरों से जूझते हुए भी एक हर्ष और संतोष प्राप्त होता है। सुभाषचंद्र बोस ने जिंदादिली से जीवन जिया, इसलिए उनके जीवन का क्षण-क्षण प्रेरणामय बन गया। इसके विपरीत कायर, आलसी और निकम्मे लोग हर रोज़  कई बार मरते हैं। उन्हें पग-पग पर अपमान सहना पड़ता है। यदि मनुष्य यह सोच ले कि उसे एक-न-एक दिन मरना ही है तो वह खुलकर जिएगा, हिम्मत से जिएगा। आज का प्रज्ञा गीत यही प्रेरणा लेकर आया है।

1.प्राणो वै बलम्। प्रापणों वै अमृतम्। आयुर्नः प्राणः राजा वै प्राणः अर्थात “प्राण ही बल है, प्राण ही अमृत है। प्राण ही आयु है। प्राण ही राजा है।”

2.यो वै प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः अर्थात “जो प्राण है, सो ही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है, सो ही प्राण है।”

3.यावद्धयास्मिन् शरीरे प्राणोवसति तावदायुः अर्थात “जब तक इस शरीर में प्राण हैं तभी तक जीवन है।”

4.प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठान्ः अर्थात “प्राण ही इस शरीर रूपी नौका की सुप्रतिष्ठा है।”

5.एतावज्ज्न्मसाफल्यं देहिनाभिह देहिषु। प्राणैरयैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा अर्थात ‘‘प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाणी द्वारा केवल श्रेय का ही आचरण करना देहधारियों का इस देह में जन्म साफल्य है।’’

6.या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि। या च मनसि सन्तताशिवां तां कुरुमोत्क्रमीः अर्थात  “हे प्राण, जो तेरा रूप वाणी में निहित है तथा जो श्रोत्रों, नेत्रों तथा मन में निहित है, उसे कल्याणकारी बना, तू हमारी देह से बाहर जाने की चेष्टा मत कर।”

प्राणस्येद वशे सर्व त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम्। मातेव पुत्रान रक्षस्व प्रज्ञां च विधेहिन इति अर्थात ‘‘हे प्राण, यह विश्व और स्वर्ग में स्थित जो कुछ है, वह सब आपके ही आश्रित है। अतः हे प्राण! तू माता-पिता के समान हमारा रक्षक बन, हमें धन और बुद्धि दे।’’ 

व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नहीं, इस सृष्टि का कण-कण इसी प्राण शक्ति की ज्योति से ज्योतिर्मय हो रहा है। जहां जितना जीवन है, प्रकाश है, उत्साह है, आनन्द है, सौन्दर्य है वहां उतनी ही प्राण की मात्रा विद्यमान समझनी चाहिए। उत्पादन शक्ति और किसी में नहीं, केवल प्राण में ही है। जो भी सृजन, आविष्कार, निर्माण और विकास क्रम चल रहा है, उसके मूल में परब्रह्म की यही परम चेतना काम करती है। जड़ पंच तत्वों के चैतन्य की तरह सक्रिय रहने का आधार यह प्राण ही है। 

वैज्ञानिकों ने Atomic theory को इस चर्चा के साथ जोड़ते हुए निष्कर्ष निकाले एवं कहा कि  परमाणु (Atoms) भी इसी प्राण ऊर्जा से सामर्थ्य ग्रहण करते हैं और प्राण ऊर्जा की प्रेरणा से ही अपनी धुरी तथा कक्षा में Revolve और Rotate करते हैं। विश्व ब्रह्माण्ड में समस्त ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियां इसी प्रेरणा शक्ति से प्रेरित हैं। 

अपने उन पाठकों के लिए जिन्होंने कभी भी साइंस पढ़ने का साहस नहीं किया,साइंस की सरल भाषा में कहना चाहेंगें जिस प्रकार धरती सूर्य के इर्द-गिर्द भी घूमती (Revolve) है और अपने Axis पर  भी घूमती (Rotate) है ठीक उसी तरह हमारे शरीर के परमाणु Revolve और Rotate करते हैं। Rotation से दिन रात बनते हैं जबकि Revolution) से मौसम बदलते हैं।    

7.उपनिषद्कार ने कहा है कि प्राणद्धये व खल्विमान भूतानि जायन्ते। प्राणानि जातानि जीवन्ति। प्राण प्रयस्त्यभि संविशन्तीति अर्थात  “प्राण शक्ति से ही समस्त प्राणी पैदा होते हैं। पैदा होने पर प्राण से ही जीते हैं और अन्ततः प्राण में ही प्रवेश कर जाते हैं।”

8.सर्वाणि हवा इमानि भूतानि प्राणमेवा। भिषं विशन्ति, प्राणमयुम्युंजि हते अर्थात “ये सब प्राणी, प्राण में से ही उत्पन्न होते हैं और प्राण में ही लीन हो जाते हैं।”

9.अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा, च परा च पथिमिश्चरन्तम। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसा न आवीवर्ति भुवनेष्यन्तः अर्थात  ‘‘मैंने प्राणों को देखा है एवं साक्षात्कार किया है।”

यह प्राण ही सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह कभी भी नष्ट नहीं होने वाला है। यह भिन्न-भिन्न मार्गों अर्थात् नाड़ियों से आता, जाता है, मुख और नासिका द्वारा क्षण-क्षण में इस शरीर में आता है और फिर बाहर चला जाता है। यही प्राण शरीर में वायुरूप में व्यापक है। समस्त विश्व में जहाँ कहीं भी  यह प्राणशक्ति जितनी अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती है वहां उतना  ही उत्साह और जीवन  दिखाई देने लगता  है। 

यदि ईश्वर के इस महान शक्तिपुंज पुत्र को केवल प्रकृति द्वारा प्रदान किये गए  साधनों के उपभोग तक ही सीमित रखा जाय तो  केवल शरीर-यात्रा  ही सम्भव हो सकती है। ऐसा मनुष्य अधिकांशतः नर-पशुओं की तरह केवल सामान्य जीवन ही जी सकता है। लेकिन यदि यह शक्तिपुंज पुत्र अध्यात्म विज्ञान का सहारा लेकर अपनी प्राणशक्ति को अधिक मात्रा में बढ़ाने का प्रयास कर सके तो वह अपनी  गई-गुजरी स्थिति से ऊंचे उठकर उन्नति के उच्च शिखर तक पहुंच सकता है। 

स्वयं को हीन समझते रहना, उसी  स्थिति में पड़े रहना, मानव जीवन में सरलतापूर्वक मिल सकने वाले आनन्द, उल्लास से वंचित रहना, मनोविकारों और उनकी दुःखद प्रतिक्रियाओं से विविध विधि कष्ट-क्लेश सहते रहना ही तो नरक है। देखा जाता है कि इस धरती पर रहने वाले अधिकांश नर-तनुधारी नरक की यातनाएं सहते हुए ही समय बिताते हैं। आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण सभी महत्वपूर्ण सफलताओं से वंचित रहते हैं। इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए प्राणऊर्जा  का उत्पादन (Manufacturing of Life Energy ) करना बहुत ही आवश्यक है, इस ऊर्जा के उत्पादन की फैक्ट्री तो मनुष्य के अंदर है,अंतर्मन में ही है, गायत्री मंत्र में ही है, गुरु साहित्य में ही है। 

इतने अधिक विश्वास और शक्ति से यह शब्द लिख पाना केवल तभी संभव हो सकता है जब उसे बार-बार, अनेकों बार, अनेकों साधकों द्वारा  Try किया गया हो, Test किया गया हो और फिर Certify किया गया हो, इसलिए ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के इस सूत्र को  short name,  TTC कह कर पुकारा गया है।

शेष अगले लेख में। 

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आज के लेख का अंत संकल्प सूची से न होकर निम्नलिखित  शोक सन्देश से किया जा रहा है जिसे हमारी आद बहिन मंजू मिश्रा जी ने व्हाट्सप्प पर भेजा है : 

आदरणीय भैया जी सादर प्रणाम।  मेरी नंद दिल्ली में एम्स में भर्ती थी जो अब इस दुनिया में नहीं है।  मन काफी खिन्न है 4   तारीख को वे हम सभी को छोड़ कर चली गई है, अत्यधिक व्यस्तता बढ़ी हुई है।  कृपया क्षमा कीजियेगा मन मै एक टीस सी उठती रहती है।  लेख कभी पढ़ पाती हूँ और कभी नहीं। 

परम पूज्य गुरुदेव दिवंगत आत्मा को अपने चरणों में स्थान दें। 


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