वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

साहित्य प्रचार-प्रसार में गुरुदेव द्वारा किए गए आविष्कार

https://youtu.be/hd-2T2WsxIc?si=tFayp0dsnp-gULzM
6 मार्च 2025 का ज्ञानप्रसाद- सोर्स अखंड ज्योति अप्रैल 1990
कल प्रकाशित हुए ज्ञानप्रसाद लेख में वर्णित परिस्थितिओं को देखते हुए हमारे हृदय में जिज्ञासा उठी कि गुरुदेव के साहित्य के प्रचार-प्रसार का महत्वपूर्ण कार्य किस प्रकार निभाया जाए। गुरुदेव के लिए भी तो ऐसी कठिन परिस्थिति आई होगी, उन्होंने भी तो इसका सामना किया होगा। गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी रिक्शे पर बैठ कर मथुरा की गलियों में, घर-घर में अखंड ज्योति बांटने जाते थे।
आज के ज्ञान प्रसाद लेख में गुरुदेव के उन आविष्कारों का वर्णन है जो उन्होंने साहित्य प्रचार के लिए आरंभिक दिनों में किए। आज भी शांतिकुंज द्वारा, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार द्वारा साहित्य प्रचार के लिए जो साधन प्रयोग किए जा रहे हैं, सभी का आधार गुरुदेव के अविष्कार ही हैं।
आज प्रस्तुत किया गया लेख,अखंड ज्योति अप्रैल 1990 पर आधारित लेख श्रृंखला का अंतिम लेख है।सोमवार से हम एक बार फिर से “काया में समाया प्राणाग्नि का जखीरा” पर आधारित लेख श्रृंखला की ओर रुख करेंगे जिसके तीन लेख हम पहले प्रस्तुत कर चुके हैं।
आज के प्रज्ञा गीत को सुनने के साथ अगर पढ़ा भी जाए तो सोने पे सुहागा हो सकता है, इसलिए इसके लिरिक्स भी शेयर कर रहे हैं।
काल का पहिया घूमे भैया
लाख तरह इन्सान चले
ले के चले बारात कभी तो
कभी बिना सामान चले
राम कृष्ण हरि …

जनक की बेटी अवध की रानी
सीता भटके बन बन में
राह अकेली रात अन्धेरी
मगर रतन हैं दामन में
साथ न जिस के चलता कोई
उस के साथ भगवान चले
राम कृष्ण हरि …
हाय री क़िस्मत कृष्ण कन्हैया
स्वाद न जाने माखन का
हँसी चुराये फूलों की वो
कंस है माली उपवन का
भूल न पापी मगर पाप की
ज्यादा नहीं दुकान चले
राम कृष्ण हरि …

अजब है कैसी प्रभु की माया
माला से बिछुड़ा दाना
ढूँढे जिसे मन सामने है वो
जाये न लेकिन पहचाना
कैसे वो मालिक दिखे तुझे जब
साथ तेरे अभिमान चले
राम कृष्ण हरि …

कर्म अगर अच्छा है तेरा
क़िस्मत तेरी दासी है
दिल है तेरा साफ़ तो प्यारे
घर में मथुरा काशी है
सच्चाई की राह चलो रे
जब तक जीवन प्राण चले
राम कृष्ण हरि …


विचारों के परिष्कार के लिए एवं भ्रान्तियों विकृतियों के निराकरण में “साहित्य” का बहुत बड़ा योगदान है। गुरुदेव का साहित्य उनका प्राण है, इस दिव्य साहित्य को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने में ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार द्वारा निरंतर नए-नए प्रयोग और प्रयास किये जाते रहे हैं। समय की डिमांड को देखते हुए शान्तिकुंज से भी आधुनिक प्रयास किये जाते हैं, जो प्रयास आज से 50 वर्ष पहले किये जाते थे आज उन्हीं को आधार बनाकर, टेक्नोलॉजी का प्रयोग करते हुए गुरुदेव के विचारों को घर-घर पहुँचाया जा रहा है। करोड़ों नहीं तो लाखों परिजन केवल एक ही उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं और वह उद्देश्य है “गुरुदेव के साहित्य का प्रचार-प्रसार।”
कल वाले लेख में वर्णन की गयी स्थिति तो देखते हुए हमारा कर्तव्य और भी गंभीर हो जाता है कि नियमितता से, निरंतर, अपनी समर्था अनुसार गुरुकार्य में योगदान दें, तभी हम गुरु के सच्चे सुपुत्र कहलाने के हकदार हो पायेंगें। अगली पंक्तियों में जब हम झोला पुस्तकालय और ज्ञानरथ की बात करते हैं तो स्वयं ही समझ आ जाती है कि आज के युग में गुरुदेव के विचारों का प्रचार करना कितना सरल हो गया है। एक अच्छा फ़ोन (जो लगभग हर किसी के पास होता है) और इंटरनेट कनेक्शन, केवल इन्हीं दो चीज़ों से अकल्पनीय कार्य किया जा सकता है ।
“झोला पुस्तकालय योजना” आरम्भ करते समय गुरुदेव के मन में उन कार्यशील परिजनों की पिक्चर थी जो अकेले ही उनके विचारों का प्रसार करने में समर्थ थे। झोला पुस्तकालय का आविष्कार करते समय गुरुदेव ने कहा था कि यह सर्वसुलभ है और इसके माध्यम से अपने संपर्क क्षेत्र में शिक्षितों के साथ संपर्क बढ़ाया जाय। शिक्षितों की अन्तरात्मा को स्पर्श करने वाले युगसाहित्य को एक छोटे से झोले में लेकर उन तक पहुँचा जाय। गुरुदेव का साहित्य घर बैठे उनके पास पंहुच जायेगा जिसे नियत अवधि में पढ़कर वापस करने के लिए सहमत किया जाता था ।
गुरुदेव ने अपनी आर्थिक स्थिति, परिजनों की गरीबी,अशिक्षा और सत्साहित्य के प्रति अरुचि को देखते हुए उस समय यह आशा नहीं की थी कि युग चेतना को प्रोत्साहन देने वाला साहित्य अभीष्ट मात्रा में लिखा, छापा प्रकाशित किया जा सकता है। यह एक ऐसी समस्या थी जो नए नए स्वतंत्र हुए राष्ट्र (भारत) को उपयुक्त दिशा निर्देशन प्रदान करने में आड़े आ रही थी। झोला पुस्तकालय का आविष्कार इन्हीं परिस्थितिओं को देखकर किया गया था। इस प्रयोग के अंतर्गत हर शिक्षित को पढ़ाने और हर अशिक्षित को सुनाने का संकल्प था। यह योजना स्वयंसेवी और समयदानियों द्वारा निष्ठापूर्वक चलाई गयी। इस आविष्कार की ही विशिष्टता ही थी कि लाखों लोगों को घर बैठे, बिना कुछ खर्च किये नवयुग का संदेश मिलना शुरू हो गया था।
इसी प्रयास का कुछ बड़ा रूप एवं गुरुदेव का एक और अविष्कार “ज्ञानरथ” था। “युग साहित्य को युग देवता का संदेश” मानते हुए उसे साइकिल के पर सुसज्जित रूप से इस स्तर का बनाया गया था कि बाहर से देखने वालों को एक छोटा देवालय ही प्रतीत होता था। इसे खींचते धकेलते हुए परिजन अपने क्षेत्र में शिक्षित नर-नारियों तक झोला पुस्तकालय की भाँति सत्साहित्य देने, पढ़ाने और वापस लेने का उपक्रम चलाते थे और घर-घर, जन-जन तक अपनी पँहुच बनाते थे। इस ज्ञानरथ में झोला पुस्तकालय की तुलना में आकर्षण भी अधिक रहता थे और संपर्क भी अधिक बड़े क्षेत्र में एवं अधिक लोगों तक बनता हैं था ।
गुरुदेव द्वारा इसके आगे का आविष्कार प्रज्ञाकेन्द्र थे जिन्हें अचल और ज्ञानरथों को चल “प्रज्ञा मन्दिर” मानकर इस योजना को चलाया गया। ज्ञानरथ जो बहुत दिनों से सफलतापूर्वक चलता जा रहा था, अब उसमें कुछ और नये एवं सशक्त उपकरण (लाउड स्पीकर आदि) जोड़ दिये गये जिनके कारण वह प्रज्ञा वाहन जिधर से भी गुजरता, अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाती। गुरुदेव के अनुसार यह ऐसी प्रेरणाएँ थीं जिन्हें मनोयोगपूर्वक हृदयंगम करना बहुत आवश्यक था।
नवनिर्मित ज्ञानरथों में मोटर वाली छोटी बैटरी से चलने वाला टेपरिकार्डर और लाउडस्पीकर फिट कर दिया गया जिसके माध्यम से जनसमुदाय की प्राण प्रेरणा को झकझोरने वाला युग संगीत सुनने को मिलता एवं छोटे-छोटे किन्तु सारगर्भित प्रवचन/ परामर्श सुनने को मिलते रहते थे ।
यह ज्ञानरथ निर्जीव होते हुए भी एक सजीव वक्ता और प्राणवान संगीत से अपने रास्ते में मिलने वाले परिजनों से ऐसा कुछ कह और गा जाते जो उनके व्यक्तित्व/विचारधारा में परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने में अति सहायक होते।
एक पूरे दिन में बैटरी की बिजली प्रायः खर्च हो जाती, उसे नये सिरे से सशक्त बनाने के लिए मात्र इतना ही करना पड़ता था कि दिन का कार्य समाप्त होने पर रात को घर की बिजली के प्लग के साथ “चार्जर” उपकरण द्वारा जोड़ दिया जाता। सवेरा होने से पहले बैटरी, दूसरे दिन का दायित्व पूरा करने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाती है। इस प्रयास में बिजली का खर्च कुछ पैसों का ही बैठता हैं, जिसकी व्यवस्था बनाना इन ज्ञानरथ चलाने वालों में से किसी के लिए कुछ भी कठिन नहीं पड़ता।
शुरू शुरू में ज्ञानरथ केवल साहित्य का लाभ पहुँचाने के लिए झोला पुस्तकालय स्तर की सेवा साधना में ही निरत रहते थे लेकिन बाद में वे अपने छोटे से कलेवर में दिन भर प्रवचन और गायन करते रहने पर भी न थकने वाला माध्यम साबित हुए। इसलिए उसकी उपयोगिता अनेक गुनी अधिक बढ़ गई । पुराने की तुलना में नये ज्ञानरथों की लागत तो कुछ बढ़ गई लेकिन वह इतनी नहीं कि औसत नागरिक उसे अपनी सीमित सामर्थ्य में ही जुटा न सके। इस प्रयास में स्वाध्याय और सत्संग के दोनों ही प्रयोजन एक साथ जुड़ जाते हैं।
इन्हीं दिनों गुरुदेव ने दीवारों पर “आदर्श वाक्य” लिखने का प्रयोग किया । गेरू, काजल, नील, पीली रामरज, मुल्तानी मिट्टी, खड़िया आदि को एक डिब्बे में डालकर बड़ी दवात के रूप में विनिर्मित किया गया और बालों के ब्रुश या बाँस जैसे किसी लकड़ी के उपकरण को कलम बनाकर जहाँ भी खाली दीवार दिख पड़ी, वहीँ सुन्दर अक्षरों में आदर्श वाक्य लिखे जाते रहे जिन्हें उधर से रास्ता निकलने वाले व्यक्ति नजर डालते ही प्रेरणा प्राप्त करते रहे । (1 ) हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा, हम बदलेंगे-युग बदलेगा। (2 ) नर और नारी एक समान, जाति वंश, सब एक समान। (3 ) इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य का अवतरण जैसे दर्जनों आदर्श वाक्य गढ़े गये,उनमें से जहाँ जिनका चयन उपयुक्त दिखता , उसे वहाँ लिखा जाता रहा। इस प्रकार हर दीवार, खण्डहर, टीले, पत्थर को “बोलती दीवार” बनाया जा सकता है। Facebook wall इसी “बोलती दीवार” का अति आधुनिक रूप है।
इस वर्ग में एक अन्य योजना “स्टीकर” चिपकाने की भी आती है। यह भी अनेकों प्रकार के तथा नाम मात्र की लागत से भरे पूरे है। इन्हें किवाड़ों पर, अलमारियों पर, अटैचियों पर, फर्नीचरों पर कहीं भी चिपकाया जा सकता है। प्लास्टिक से बने और पक्की स्याही से अंकित एवं मजबूत गोंद से सटे होने के कारण छोटे बड़े साइज के यह स्टीकर ऐसे हैं जिन्हें वर्षों के लिए स्थायी रहने की स्थिति में चिपकाया जा सकता है। इनकी कीमत कुछ पैसे मात्र होने से हर किसी को खरीदने और घर सजाने के लिए सहमत किया गया । गुरुदेव कहते कि यदि उन्हें मोटरों, ताँगों, रिक्शों आदि पर चिपका दिया जाय तो उनमें बैठने वाले भी ऐसे विचार हृदयंगम करते चलेंगें जिन्हें इन दिनों समझना और समझाना बहुत महत्वपूर्ण है ।
इस प्रकार की प्रचार सामग्री के सस्ते-महँगे अनेक प्रकार के उपकरण विनिर्मित किये गये, रूमालों, साड़ियों, दुपट्टों पर भी ऐसे ही कुछ प्रेरणाप्रद सन्देश सटा देने की भी योजनाएँ बनती और चलती रहीं ।
साक्षरता की, प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था बनाना अपनी जगह आवश्यक है। “अशिक्षितों की अन्धों में गणना होती है” इसलिए गुरुदेव के निर्देश अनुसार प्रत्येक शिक्षित परिजन को अपने संपर्क क्षेत्र में से अशिक्षित नर-नारियों को, बालकों-वृद्धों को तलाश करके उनके साथ संपर्क साधा गया । उनकी सुविधा का समय खोजा गया और अपने घर बुलाकर अथवा उनके घर जाकर हर किसी को साक्षर बनाने का प्रयत्न किया गया । अपने देश का कोई भी नागरिक अशिक्षित न रहे, इसके लिए विद्या विस्तार में हर शिक्षित को “विद्या ऋण” चुकाने के लिए बिना पढ़े हुए को पढ़ाने को एक आवश्यक कर्तव्य की तरह अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसी प्रयास का दूसरा चरण यह है कि साक्षरता के उपरान्त दिव्य प्रेरणाएँ पढ़ने की जिज्ञासा उठे जिससे व्यक्तित्व विकास में, लोकमानस के परिष्कार की अभीष्ट प्रगति प्रेरणा का भी समावेश हो पाया।
हम सब देख सकते हैं कि युग साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने के लिए झोला पुस्तकालय, ज्ञानरथ, दीवारों पर आदर्शवाक्य लिखने और प्रेरक स्टीकर चिपकाने वाले गुरुदेव के अविष्कार आज भी कितने ही सार्थक और शक्तिशाली हैं।
अंत में इतना ही कहना चाहेंगें कि शक्ति सभी के पास है, उसका सदुपयोग करना ही बुद्धिमता है; बुद्धि सभी के पास है, सद्बुद्धि की तलाश होनी चाहिए; ज्ञान अनेकों के पास है लेकिन उसके प्रचार- प्रसार का साधन ढूढ़ने की आवश्यकता है। आज टेक्नोलॉजी अपने चरम पर है, यदि हम आज भी कुछ न कर पाए तो फिर कभी नहीं कर पायेंगें।
समापन, जय गुरुदेव


कल वाले लेख को 503 कमेंटस मिले, आज 11 संकल्पधारी साथिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी का धन्यवाद् करते हैं ।


Leave a comment