वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

तपने और तपाने की आवश्यकता क्यों पड़ी ?

हम सभी जानते हैं कि 2 जून 1990 वाले दिन हमारे परमपूज्य गुरुदेव स्वेछा से स्थूल शरीर का त्याग करके सूक्ष्म में विलीन हो गए थे। जीवनपर्यन्त अपने बच्चों के मार्गदर्शन के  लिए विराट साहित्य छोड़े  जाने के बावजूद, अखंड ज्योति के अप्रैल 1990 के अंक में कुछ ऐसा अविस्मरणीय प्रकाशन हुआ जिसे हम गुरुदेव का अद्वितीय मार्गदर्शन कह सकते हैं।अखंड ज्योति के किसी भी लेख पर हम कोई टिप्पणी करें, ऐसी हमारी समर्था कहाँ लेकिन इस अंक में प्रकशित हुई विशेष लेख माला ने हमारे ह्रदय को जिस तरह प्रभावित किया है उसे शब्दों में लिपिबद्ध करना लगभग असंभव ही है। इस लेखमाला में एक से बढ़कर एक 19 आर्टिकल प्रकाशित हुए जो ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में प्रकाशित होने वाले वर्तमान दैनिक ज्ञानप्रसाद का आधार हैं । इन आर्टिकल्स में गुरुदेव द्वारा प्रदान किये गए ज्ञान एवं मार्गदर्शन का स्वध्याय करना, उसे समझना, अंतःकरण में उतारना, सरलीकरण करना, अपने साथिओं के लिए यह सुनिश्चित करते हुए  प्रकाशित करना कि साथिओं को समझने में कोई कठिनाई न हो, सुनिश्चित करना कि यह ज्ञान उनके अंतःकरण में इस गति एवं भावना के साथ सीधा उतरता जाये कि पढ़ते-पढ़ते ही उनके मन में कमेंट लिखने का उत्साह जागृत होता जाये, इतना ही नहीं, हर कोई साथी इसी सोच के साथ कमेंट लिखे कि उसके द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान अनेकों परिवारों में “ज्ञान की ज्योति” जलाने का प्रयास कर रहा है।  इस सामूहिक, जटिल प्रक्रिया से कितनों ने लाभ उठाया है इसके साक्षी स्वयं इस छोटे से परिवार के साथी हैं जिन्हें हम सदैव नमन करते हैं। 

विशेष लेखमाला में तो टोटल 19 आर्टिकल हैं लेकिन हमारी अल्पबुद्धि की लेखनी उन्हें कितने बना देती है इसके बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है। अभी तक हम इसी लेखमाला पर आधारित चार लेख प्रकाशित कर चुके हैं। आज का लेख जिसका शीर्षक  “तपने और तपाने की आवश्यकता क्यों पड़ी ?” एक ही भाग में प्रकाशित हो रहा,आज का लेख इस श्रृंखला का पांचवां लेख है जिसमें गुरुदेव उन परिजनों के प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं जिन्होंने पूछा था कि अगले दिनों आप एकान्तवास की साधना करेंगे और कठोर तपश्चर्या में निरत रहने का संकल्प साधेंगे। ऐसा क्यों? 

इसी प्रश्न के  समाधान के लिए आइये गुरुकुल की गुरुकक्षा में गुरुचरणों में समर्पित होकर गुरुज्ञान का अमृतपान करें।

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शान्तिकुञ्ज के सूत्र संचालक (हमारे गुरुदेव) के जीवन में घटित घटनाओं में से कुछ की जानकारी और प्रयत्नों की प्रतिक्रिया का तारतम्य समझ लेने के उपरान्त अनेकानेक आगन्तुकों ने अपनी जानकारी के आधार पर कई बातें पूछीं कि “अगले दिनों आप एकान्तवास की साधना करेंगे और कठोर तपश्चर्या में निरत रहने का संकल्प साधेंगे। ऐसा क्यों? जब धर्म धारण और सेवा साधना से ही ईश्वर भक्ति का प्रयोजन बहुत अंशों में पूरा हो जाता है तो एकान्त तपश्चर्या की अति कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाने का क्या कारण? इससे तो आपके  जनसंपर्क कार्यक्रमों का नियोजन, मार्गदर्शन एवं सेवा-सहयोग की अन्यान्य क्रिया-प्रक्रियाएँ जो इन दिनों चलती हैं, वे भी न बन पड़ेंगी। आपको कष्टसाध्य उपक्रम अपनाकर अनेक असुविधाओं से भरी जीवनचर्या बितानी पड़ेगी और संपर्क में आने वाले परिजन जो निरन्तर लाभ उठाते रहते हैं, उन्हें उनसे भी वंचित रहना पड़ेगा?”

वैसी ही जिज्ञासा अन्य अनेकों परिजनों के मन में उठ रही थी। वियोग जन्य व्यथा उन्हें भी कष्ट दे रही थी। सो उपस्थितजनों में से प्रत्येक व्यक्ति इसका कारण और समाधान जानने के लिए उत्सुक था।

प्रश्न अधिक गंभीर और उलझन भरा था। सो उस संबंध में चर्चा के अवसर पर मात्र उन्हें ही सम्मिलित रखा गया जिन्हें अध्यात्म विधा की पृष्ठभूमि के साथ पहले से भी अधिक गहराई स्तर तक समझने का अवसर मिलता रहा था ।

कहा गया है कि अब तक जो सेवा और साधना चलती रही है उसका प्रभाव स्थूल जगत तक, पदार्थ जगत तक ही मार्गदर्शन और सीमित अनुदान दे सकने जितनी क्षमता अर्जित कर सकता है लेकिन आने वाला   समय असाधारण रूप से विकट है, उसके लिए इतनी सीमित क्षमता पर्याप्त न होगी। विशिष्ट स्तर की प्रचंडता उत्पन्न करने के लिए उच्चस्तरीय तपश्चर्या से कम में काम नहीं चलता। भगीरथ, दधीचि, ध्रुव आदि ऋषियों को उस  स्तर की तपश्चर्या की आवश्यकता पड़ती है जो प्रत्यक्ष शरीर में अधिक बढ़ी-चढ़ी क्षमता उत्पन्न करने तक सीमित न रहे, बल्कि सूक्ष्म और कारण शरीर की गहराई में प्रवेश करके उच्चस्तरीय प्राणचेतना का ऐसा भंडार संचय कर सके जो महाविकट परिस्थितियों से लोहा ले सके एवं असाधारण समय में अपनी सामर्थ्य का परिचय दे सके। ऐसी तपश्चर्या से ही सूक्ष्म जगत में व्याप्त विकृतियों का नाश हो सकेगा।

इन दिनों विकृतियों और समस्याओं के घनघोर बादल छाये हुए हैं। समस्त ब्रह्मांड प्रदूषण से भर गया है। जलवायु में विषाक्तता की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि इससे प्रकृति ने भी विद्रोह खड़ा कर दिया है। विविध प्रकार के प्रदूषण अपने-अपने क्षेत्र में ऐसे संकट खड़े कर रहे हैं जो तथाकथित वैज्ञानिक  उपायों/ उपचारों से नियंत्रण में नहीं आ रहे हैं। दुर्भिक्ष, युद्धोन्माद, राजनीतिक विग्रह, अपराधों की बाढ़, विचार विकृति का तूफानी प्रवाह आदि सब मिल जुलकर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रहे हैं, जिससे इस धरती पर जीवधारियों का निर्वाह कठिन हो गया है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों की वृद्धि नियन्त्रण से बाहर हो गई है, व्यवहार में शालीनता एक दुर्लभ सी आइटम बन कर रह गई है।

ऐसी स्थिति को सुधारने के लिए “असाधारण शक्ति प्रवाह” विनिर्मित करना आवश्यक होगा। देवत्व को पराजित होने से बचाने के लिए उसी दिव्य शक्ति को अवतरित होना होगा जो महाकाली की तरह दैत्यसत्ता से लोहा ले सके, उसे परास्त कर सके। ऐसी दिव्य शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रचण्ड तप के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। तप शक्ति से ही देवसत्ता का अवतरण संभव होता आया है। ऋषि तपस्वियों द्वारा अपनाया गया  परिचित इलाज  इन दिनों भी अपनाये जाने की आवश्यकता पड़ गई है। 

नवयुग का अवतरण आज के  समय की “सतयुग की वापसी” है। इस उपलब्धि के लिए जितना मानवी पुरुषार्थ आवश्यक है उससे कहीं अधिक दैवी सहयोग चाहिए।

सत्प्रयोजनों में आसुरी शक्तियाँ सदा आक्रमण करती हैं और विघ्न उपस्थित करती हैं। विश्वामित्र के यज्ञ को असफल करने में निरत सुबाहु, मारीच, ताड़का आदि के उपद्रवों का सामना करने के लिये भगवान राम लक्ष्मण की सहायता आमंत्रित की गयी थी। कालनेमि, अहिरावण, और सुरसा जैसे दानव, हनुमान जी  को असफल करने जा रहे थे। इन सबका सामना दिव्य शक्ति के माध्यम से ही संभव हो सका था। आने वाले  दिनों में भी ऐसी ही प्रचण्ड सामर्थ्य उपार्जित की जानी है।

यह सर्वविदित है कि भस्मासुर, वृत्तासुर, महिषासुर, अघासुर आदि ने दैवी प्रयोजनों में कितने विघ्न उत्पन्न किये थे। 

इस बार सतयुग की वापसी वाली प्रस्तुत दैवी योजना पर भी ऐसे ही आसुरी संकट आते रहेंगे और अपनी भरपूर सामर्थ्य लगाते रहेंगे। उनका सामना भी समान स्तर की दैवी शक्ति से ही किया जा सकता है।

परिजनों में से अनेकों अवगत हैं कि शांतिकुंज की युग निर्माण योजना को कितने दुरात्माओं ने समय-समय पर अपनी छोटी सामर्थ्य के अनुरूप चिकोटी काटने और डंक मारने में कमी नहीं रहने दी। वे आक्रमण तो आसानी से रद्द और निरस्त कर दिये गये लेकिन  भारत के भीतर, पड़ोस में तथा विश्व के हर कोने में जो आतंकवादी-आक्रामकता छाई हुई है वह न जाने कब, क्या अड़ंगा खड़ा कर दें, इसे कोई नहीं जानता। ऐसी दशा में विश्वशान्ति की रक्षा के लिए ऐसी सतर्कता और शक्ति चाहिए जैसी कि वन्य पशुओं से लोहा लेने के लिए  सारे परिवार को चाहिए होती है। भले ही हम आक्रमणकारी न हों लेकिन सामाजिक हमलावारों से आत्मरक्षा करने के लिए कुछ तो करना ही होगा। आज के समय की यह एक बहुत ही  बड़ी व्यापक और भयंकर समस्या हैं जिससे निपटने के लिए उस स्तर की तैयारी हर हालत में अपेक्षित हैं, जैसी कि शांतिकुंज के सूत्रधार अपनी  प्रचण्ड एकांत तपश्चर्या द्वारा समर्थ आत्मशक्ति का संग्रह कर रहे हैं।

गुरुदेव बता रहे हैं कि संकटों की कोई कमी नहीं है और  उनसे कोई भी क्षेत्र बचा नहीं है। तोप बन्दूक के धमाके हुए बिना भी विश्वयुद्ध जैसी  परिस्थिति बनी रह सकती है जो आतंक, आशंका, विपत्ति और अराजकता जैसी अवांछनीयता बनाये रखे। शीत युद्धों ( Cold war) की  अनेकों किस्में ऐसी भी हैं जो उत्पात और उपद्रव जैसी परिस्थितियाँ बनाये रखें और अपनी परिधि में उन्मादी अशान्ति खड़ी किये रखें । हर किसी विपत्ति को काबू करने के लिए  पुलिस, शासन, कचहरी और जेल जैसे प्रताड़ना माध्यमों की ही जरूरत नहीं पड़ती। शान्ति की परिस्थितियाँ बनाये रखने के लिए भी “बड़ी क्षमता, (तप की शक्ति, ज्ञान की शक्ति)” हाथ में रहनी चाहिए। प्रस्तुत तपश्चर्या को ऐसी ही “शक्ति साधना” समझा जा सकता है। 

अवांछनीयताओं, अनाचारों, आपदाओं, मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों, अनीतियों और विडम्बनाओं से जूझने के लिये भी कारगर (Expert) हथियार चाहिए। सीधे साधे तरीके से तो नशेबाजी, दहेज वाली बरबादी भरी शादियों जैसी कुरीतियों तक से छुटकारा नहीं पाया जा सकता तो विषम परिस्थितियों को लेख-लेक्चर जैसे दुर्बल साधनों से कैसे निरस्त किया जा सकेगा?

बुद्ध और गाँधी ने मात्र उपदेश ही नहीं दिये थे, ऐसे संघर्ष भी खड़े किये थे जो व्यापक अनाचार को निरस्त कर सकें। दयानंद, विवेकानंद, गुरु गोविन्द सिंह जैसे भी इसी वर्ग में गिने जा सकते हैं। उनकी सफलता के साथ अन्य कारण भी जुड़ें हुए रहे होंगे लेकिन “आत्मशक्ति की बहुलता” का विद्यमान आधार भी इस संदर्भ में नकारा नहीं जा सकता। आज की अप्रिय परिस्थितियों के निराकरण के लिए ऐसी ही “आत्मशक्ति” की आवश्यकता है।

अगले दिनों अनेक खाई खंदकों को पाटना आवश्यक होगा। साथ ही टीलों को भी झुकने के लिए विवश करना होगा, समतल भूमि तभी बन सकेगी और उसी पर कोई भव्य निर्माण संभव हो सकेगा। खेत उगाने और उद्यान लगाने के लिए भी तो समतल भूमि चाहिए। ऐसे प्रसंगों में प्रायः बुलडोजर प्रयुक्त करने पड़ते हैं। रेगिस्तानों को हरे भरे बनाने के लिए समतल करके नहरों का, जल स्रोतों का प्रबंध करना पड़ता है। ऐसी ही एक व्यवस्था “आत्मशक्ति” की उपलब्धि  है। गंगा अवतरण  का श्रेय भगीरथ को  है और मन्दाकिनी को अवतरित करने में महातपस्विनी अनुसुइया का पुरुषार्थ काम आया था। पाताल गंगा अर्जुन के धनुषबाण से प्रादुर्भूत हुई थी और उसी से भीष्म पितामह की प्यास बुझी थी। तपते सूर्य की किरणों से समुद्रों से भाप के अम्बार उठते हैं। बादलों का जन्म उन्हीं अंबारों से होता हैं। वर्षा ऋतु ही हरीतिमा और खाद्य-सम्पदा का उत्पादन करती हैं। 

यह तप की ही गरिमा है। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए प्रचुर साधन सामग्री की आवश्यकता पड़ेगी। उसका उत्पादन मात्र यंत्र उपकरणों से ही नहीं होगा। अपेक्षित “तप शक्ति” ही है, जो हिमालय को पिघला सके तो हाहाकारी प्यास को अपने बलबूते शान्त कर सके। ऐसे ही अनेक कारण हैं जो उस तपश्चर्या के साथ जुड़े हुए हैं, जो शांतिकुंज के सूत्र-संचालक द्वारा इसी बसंत पर्व से कठोर अनुबंधों के साथ आरंभ की गयी है।

समापन, जय गुरुदेव 

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कल महाशिवरात्रि महापर्व के कारण हमारे अधिकतर साथी व्यस्त रहे जिसके कारण संकल्प सूची सिकुड़ कर 336 कमैंट्स तक ही सीमित रह गयी है। मात्र 8 संकल्पधारी  साथिओं ने ही 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी साथिओं का इस सहयोग  के लिए ह्रदय से धन्यवाद  करते हैं। कमैंट्स संख्या, कमैंट्स क्वालिटी, साथिओं की गणना ही इस परिवार की रीढ़ की हड्डी है।


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