वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

हम बिछुड़ने के लिए नहीं जुड़े हैं- भाग 2 

आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ भगवान् भोलेनाथ के चरणों में नमन करते हुए, महाशिवरात्रि के पावन पर्व को मनाते हुए करते हैं। 

आज का लेख “हम बिछुड़ने के लिए नहीं मिले हैं” शीर्षक से आरम्भ हुई लेख श्रृंखला का दूसरा एवं अंतिम भाग है। 

इस लेख को लिखते समय हमारे अंतःकरण में उठ रही चिंगारी रुपी  भावनाओं को  अपने साथिओं से शेयर करते हुए बता  रहे हैं कि दो भागों में प्रस्तुत हुए इस का ज्ञानअमृतपान अगर हमें झकझोड़ कर, कुछ करने को प्रेरित  नहीं करता तो सब व्यर्थ है। 

स्वामी विवेकानंद जी के दिव्य वचन “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत अर्थात उठो, जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उनके द्वारा परब्रह्म परमेश्वर को जान लो” के अनुसार अपने गुरु के लिए कुछ कर गुज़रने की अब हमारी बारी है। गुरुदेव ने तो सब कुछ तैयार करके, परोस कर, हमारे लिए रख दिया है, हमें तो केवल श्रेय ही लेना है। हमें संकल्पित होकर, पूर्ण रूप से स्वयं को समर्पित कर देना है। 

हमें क्या करना है ? उसका बहुत ही सरल शब्दों में विवरण दिया है, वीडियो में और दोनों लेखों में गुरुदेव कह  रहे हैं, “हम बिछुड़ने के लिए नहीं जुड़े हैं”, कदम-कदम पर गुरुदेव अपने साहित्य के माध्यम से  सूक्ष्म मार्गदर्शन देते रहेंगें। गुरुदेव ने अनेकों बार, अपने साहित्य में आग्रह किया है  कि जिस प्रकार माँ गायत्री ने मुझे मुर्गा बना दिया, उसी प्रकार आपको भी भोर का उद्घोष करने वाले बांग देते मुर्गों की भूमिका निभानी है, लोगों को नींद से जगाना है।  

लेख में लिखा गया एक एक शब्द इतना मार्मिक है कि अश्रुधारा का वेग रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था,एक उत्कृष्ट उदाहरण नीचे दे रहे हैं :  

हमारी इन्हीं  भावनाओं के आधार पर हम निवेदन कर रहे हैं कि इस लेख और वीडियो (एक बार फिर) का अमृतपान अपने गुरु के अंग संग होकर ही करें, विश्वास है कि आपका ह्रदय भी पुकार कर बोल उठेगा “ऐसा गुरु आज तक नहीं देखा”, आपके कमैंट्स आपकी भावनाओं के साक्षी होंगें। 

शब्द सीमा के बेड़िओं के कारण आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शेष भाग हमारे कमेंट में शामिल किया गया है। आशा की जाती है कि इस प्रयोग में भी कोई Confusion नहीं होगा।

इन्हीं शब्दों के साथ आज के गुरुज्ञान-सत्संग का गुरु मंदिर में शुभारम्भ होता है।

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गुरु उवाच : 

ध्वंस के लिए तो माचिस की एक तीली, आग की एक छोटी सी  चिंगारी ही काफी होती है लेकिन  निर्माण एक झोंपड़े का करना हो तो उसके लिए भी  ढेरों साधन सामग्री और श्रमशीलों की कुशल तत्परता चाहिए। 

मनुष्य बहुत बिगड़ चुका  है। वह इस स्तर का खोखला, उन्मादी,अनाचारी हो चुका  है कि उसे नरपशु कहना तो पशुओं का अनादर है। गुरुदेव ने आज के मनुष्य की तुलना  मरघट में कोलाहल करते प्रेत पिशाच से की है। So called मनुष्य कहलाये जाने वालों की एक बड़ी संख्या आज ऐसे ही लोगों की दिख रही है।  

इस लेख के पाठक, हमारे गुरुदेव, युगदृष्टा  की दिव्य दृष्टि को अवश्य ही सराह रहे होंगें क्योंकि उन्होंने 1990 में (35 वर्ष पूर्व) जिस प्रेत पिशाच की बात की थी आज 2025 में बिल्कुल वैसी ही दिख रही है। हमारे साथिओं ने आद चिन्मय जी का उद्बोधन अवश्य देखा/सुना होगा जिसमें वह कहते हैं, “आज हर गली नुक्क्ड़, चौराहे पर दुर्योधन और रावण गिद्ध की भांति हमारी माताओं, बहिनों की तरफ आखें फाड़े बैठा है।”

गुरुदेव कहते हैं कि “भ्रष्ट चिन्तन” ही दुष्ट आचरणों का निमित्त कारण है। दूषित चिन्तन से  विनिर्मित वातावरण ही उन अनेकानेक विभीषिकाओं, विपत्तियों, कठिनाइयों और अभावों एवं  अवरोधों का प्रमुख कारण है। ऐसी स्थिति  को साधनों के सहारे दूर नहीं किया जा सकता। साधन तो सबके पास हैं, आभाव तो किसी को किसी भी वस्तु का नहीं है। हम तो कहेंगें कि इस स्थिति का एक कारण पदार्थवाद भी है। जो चाहो घर बैठे फ़ोन से, Amazon जैसी साइट्स पर आर्डर करो, पैसे हैं यां नहीं, उधार (Credit card) से ही तो लेना है, चाहे यूरोप की वेकेशन करो, USA में डेस्टिनेशन वेडिंग करो, कोई समस्या नहीं है। यह है साधनों की प्रचुरता की सीमा और सबसे बड़ी बात तो और भी आश्चर्यजनक है कि ऐसा मध्यम आमदनी वाले परिवारों में भी प्रचलन है। हम कोई बड़े विश्वस्तरीय उद्योगपतियों की बात नहीं कर रहे, उनके पास तो पैसा है, वह अगर ऐसा राजसी जीवन व्यतीत  कर भी लें  तो कोई बड़ी बात नहीं।  

ऐसे नासमझों को उलटी चाल अपनाने से कहाँ समझाया जा सकता है । ऐसे बिगडैलों को कह कर  तो देखें, ऐसे-ऐसे तथ्य देंगें कि बुज़ुर्गों तक की बोलती बंद कर देंगें। वोह दिन गए जब बुज़ुर्ग कहा करते थे, “हमने तो दुनिया देखी है।”

क्या ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सभी सहकर्मी आँख मूँद कर, परिस्थिति के साथ समझौता करके, हथियार डाल कर आत्मसमर्पण कर दें ? कभी नहीं !!!! यह हमारे गुरु की शिक्षा नहीं है, यह हमारा संकल्प नहीं है। हम ब्रह्मकमल से फूट कर निकले ब्रह्मबीज हैं जिन्हें विश्व भर में गुरुदेव की लाल मशाल और युग क्रांति का झंडा लहराना है। हमें तो बस एक ही काम करना है, गुरुदेव के बताये निर्देशों का निष्ठापूर्वक, संकल्पित होकर, चिंगारी भड़कानी है, Nuclear chain reaction स्टार्ट करना है, बाकी सब गुरुदेव संभाल लेंगें। 

इसके लिये ऐसे प्रतिभावान व्यक्तित्व (ब्रह्मबीज) चाहिए जिन्होंने स्वयं को ऊँचा उठा लिया हो और दूसरों को पतन पराभव से उबारने लायक बल/ कौशल उपलब्ध कर लिया हो। ऐसे ही लोग “देवमानव” कहलाते है और उनके ही कार्य क्षेत्र में उतरने पर वे साधन विनिर्मित होते चले जाते हैं ।

इन दिनों चाहे ही पतन को बढ़ाने में लगे हुए लोगों की बहुलता है लेकिन फिर भी यह नहीं समझा जा सकता  कि मानवी गरिमा को उबारने एवं  सुरक्षित रख सकने वाले देवमानव बिल्कुल ही लुप्त हो गए हैं। वे अभी भी बहुत संख्या में हैं और रहेंगे। अगर ऐसा न होता तो  यह धरती रसातल को चली गई होती। आने वाले दिनों के स्वर्णिम नवसृजन के लिए ऐसे ही “उत्कृष्टता के पक्षधर” आदर्शवादियों की आवश्यकता पड़ेगी। उन्हीं के प्रयत्न-पुरुषार्थ से, पुण्य परमार्थ से समय को बदला और वातावरण को श्रेष्ठता से युक्त बनाया जा सकेगा। उन्हीं को तलाशना, संगठित, सुगठित एवं सुशिक्षित किया जाना इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

गुरुदेव कह रहे हैं कि इस दिशा में हमारे प्रयत्नों ने अपने ढंग का कीर्तिमान स्थापित किया है। हमने युगशिल्पियों का एक बड़ा समुदाय, मिशन की पत्रिकाओं के साथ जोड़ कर इस स्तर का विनिर्मित किया है जिन्होंने स्वयं तो  सफलता प्राप्त की ही है लेकिन उसके उपरान्त दूसरों को सहारा देने, उभारने और तराशने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। ऐसे देवमानवों (ब्रह्मबीजों) के लिए गिरों को उठाने और उठों को उछालना एक स्वाभाविक विषय बन गया है। 

पाँच लाख को पच्चीस लाख बनाना, इस Multiplication process को निरन्तर जारी रखना, अमावस की रात के घुप्प अंधेरे को समाप्त कर  जगमगाती दीपावली की चर्चा करते रहना और इसके लिए योजना बनाते रहना ही इन देवमानवों के हृदय की पुकार है। नवसृजन के आधार, उपकरण, औजार या साधन यही वह समुदाय है, जिसे शान्तिकुञ्ज के महागरुड़ (हमारे गुरुदेव) ने अंडों  की तरह अपने पंखों के नीचे छिपा रखा है। इस समुदाय को समर्थ एवं परिपुष्ट बनाने के प्रक्रिया इसी तन्त्र के अंतर्गत चल रही है। 

इस तथ्य में तनिक भी शंका नहीं है कि परम पूज्य गुरुदेव ने  इस प्रयोजन के लिए अपने जीवन के अस्सी पुष्प सुनियोजित गुलदस्ते के रूप में समर्पित किए हैं और देवमानवों की एक ऐसी समर्थ मण्डली विनिर्मित की है जो नवयुग के अवतरण में ब्रह्ममुहूर्त की तरह अपना परिचय दे सकें, भोर का उद्घोष करने वाले बांग देते मुर्गों की भूमिका निभा सकें। शांतिकुंज में इन दिनों यही सृजन कार्य होना है। इस समुदाय के संपर्क में आए परिजनों द्वारा ही अनेकों  बहुमुखी गतिविधियों का सूत्र संचालन होना है। हर वसन्त पर्व इसी की स्मृति को ताज़ा कराता है। 

इस वसन्त में अब तक बन पड़े प्रयासों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण निश्चय निर्धारण होने जा रहे हैं।

पिछले वसन्त पर्व पर ऐसे ही परिजनों को सूक्ष्म संकेतों से आमंत्रित किया गया । वे अपनी निजी उमंगों से विवश होकर उस आयोजन में सम्मिलित होने के लिए चल पड़े, इसी का संक्षिप्त विवरण इन पंक्तियों में प्रस्तुत किया जा रहा है।

जो नहीं आ सके उनके आवश्यक निजी परिश्रम एवं स्तर जानने के लिये एक पत्र भेजा गया है ताकि उस जानकारी के आधार पर यदि घनिष्ठता में कोई कमी रह गई हो तो पूरी किया जा सके। आदान-प्रदान का सिलसिला इस रूप में चल सके, जिसमें सबके लिए एक प्रकार से श्रेय साधना ही सन्निहित है।

शांतिकुंज में प्रत्यक्ष आना या अपने-अपने स्थान पर रह कर व्यवस्थित कार्य करने वाले, दोनों ही वर्गों में उत्कृष्ट परिजन हैं  जिन पर गर्व किया जाता है क्योंकि उज्ज्वल भविष्य के  आधार स्तम्भ यही परिजन हैं।

इन दोनों ही वर्गों के साथ लेखनी या वाणी के माध्यम से प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बन्ध बने रहे हैं और उस आधार पर युगचेतना का प्रकाश अधिकाधिक विशिष्ट विस्तृत, सार्थक एवं सफल होता रहा है।

1989 के वसन्त से गुरुदेव  के एकान्त साधना में चले जाने पर एक असमंजस सा खड़ा हो गया था  कि इतने बड़े समुदाय के साथ जो घनिष्ठता पनपती थी, प्रगति की प्रक्रिया चलती रही है उसमें गतिरोध लगेगा, व्यवधान पड़ेगा। पारस्परिक जोड़ने वाला स्नेह, बन्धन टूट जाने पर वह उपक्रम कैसे कार्य करेगा, जिससे उज्ज्वल भविष्य के आकाश पर छाया और सक्रियता का परिचय दिया जा सके?

गुरुदेव ने इस समस्या के समाधान के लिए सभी परिजनों को उपलब्ध माध्यमों से यह सूचित किया कि कोई यह न समझे कि दीप बुझ गया और प्रगति का क्रम रुक गया। दृश्य शरीर रूपी गोबर की मशक चर्मचक्षुओं से दिखे या न दिखे, विशेष प्रयोजनों के लिये नियुक्त किया गया प्रहरी (चौकीदार) अगली शताब्दी तक पूरी जागरूकता के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाता रहेगा।

पक्षी सुदूर अन्तरिक्ष में इतनी दूर उड़ जाते हैं कि खुली आँखों से दीख नहीं पड़ते फिर भी वे अपने घोंसले का, दुधमुँहे बच्चों का पूरा ध्यान रखते हैं। बच्चे भी समय पर उनके द्वारा खुराक मिलने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। गाय अपने बछड़े सहित जंगल में चरने चली जाती है। संयोगवश कभी दोनों बिछुड़ भी जाते हैं, फिर भी एक दूसरे को ढूँढ़ने और पुकारने में कमी नहीं रहने देते। 

हमारे पाठकों का परिवार  अगले दिनों बढ़ तो सकता है, घटेगा नहीं। मिशन की पत्रिकाओं के रूप में “प्रकाश चेतना,गुरु चेतना” हर महीने अपने पाठक परिजनों के यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से पहुँचती है। गुरुदेव के अनुसार हर दिन के एक लेख को एक प्रवचन समझा जाय तो यह मान्यता उचित है कि परिजनों और अभिभावकों के बीच “दैनिक मिलन सत्संग” संभव हैं। परिजन एक महीने में ढाई रुपये का व्यक्तिगत अनुदान पत्रिका के चन्दे के रूप में प्रदान करते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष न सही परोक्ष मिलन एवं नियमित आदान प्रदान का क्रम चलता रहता हैं। इसी माध्यम से विचारों का ही नहीं, प्राणचेतना का शक्ति प्रत्यावर्तन भी बन पड़ता हैं।

अब इस संदर्भ में आगे भी यही प्रक्रिया चलेगी। सभी परिजनों के परिचय, जन्मतिथि, फोटोग्राफ संग्रह कर लिये गए हैं। इस आधार पर शांतिकुंज से जन्मदिन के अवसर पर एक प्रेरणापूर्ण सन्देश एवं अनुदान पहुँचा करेगा। मिलन की आँशिक पूर्ति इस प्रकार हो जाया करेगी। शांतिकुंज परिवार में संचालक अपना सूक्ष्म शरीर, अदृश्य अस्तित्व बनाए रखेंगे। इस परिसर में आने वाले, रहने वाले अनुभव करेंगे कि उनसे अदृश्य, किन्तु समर्थ प्राण प्रत्यावर्तन और मिलन का आदान-प्रदान भी हो रहा है। इस प्रक्रिया का लाभ अनवरत जारी रहेगा।

युगसन्धि पुरश्चरण के अंतर्गत सभी साधकों को अपने-अपने यहाँ कुछ साधना करते रहने के लिए कहा गया है । वह साधना तो चलेगी ही, साथ ही एक अनुबन्ध यह भी जोड़ा गया है यदि संभव हो तो वर्ष में कभी भी पाँच दिन के लिए शांतिकुंज आकर एक सत्र सम्पन्न कर लें ।

ऐसा करने का लाभ लगभग वही होगा जैसे हम सब अपने फोन को USB केबल से जोड़ कर चार्ज करते है। फोन की धीमी पड़ी बैटरी की तरह, हमारे परिजन भी नई शक्ति को फिर से अर्जित करने में समर्थ होंगे।

गुरुदेव कहते हैं कि इसे एक सच्चाई मानकर चलना चाहिए कि ऐसे सशक्त सूत्र मजबूती के साथ परस्पर बाँधे गए हैं जो बिछुड़ने की स्थिति आने ही नहीं देंगे, भले ही हम लोगों में से किसी का दृश्यमान शरीर रहे या न रहे।

समापन, जय गुरुदेव 

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सोमवार के  ज्ञानप्रसाद लेख को 528( 17 कमैंट्स वीडियो के) कमेंटस मिले,13  संकल्पधारी  साथिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी साथिओं का इस सहयोग  के लिए ह्रदय से धन्यवाद  करते हैं। कमैंट्स संख्या, कमैंट्स क्वालिटी, साथिओं की गणना ही इस परिवार की रीढ़ की हड्डी है।


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