वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

ब्रह्मबीजों का ब्रह्मतेज सारे विश्व में फैल चुका  है-भाग 2 

हम सब प्रतक्ष्य देख रहे हैं कि ब्रह्मबीजों का ब्रह्मतेज सारे विश्व में फैल चुका  है, गायत्री परिवार गुरुदेव का सन्देश लेकर विश्व के ऐसे देशों, नगरों और गलिओं में जा पंहुचे हैं जिन्हें ग्लोब पर ढूंढ पाना भी आसान नहीं हैं। इस लेख की दिव्य पंक्तियों के पढ़ रहे सभी साथी इसी केटेगरी में आते हैं। कल तक उन्हें कोई जानता तक नहीं था, आज सेलिब्रिटी बन चुके हैं। 

लेकिन अनेकों ऐसे भी ही जिनकी जिज्ञासाओं का समाधान ही नहीं हो रहा, जिनकी प्रवृति ही ही शंका करना है। कल वाले लेख में भी वर्णन किया था कि 1990 की वसंत पंचमी को शांतिकुंज में इतने अधिक लोग आये जितने पिछले दस वर्षों में भी नहीं आये। इस भीड़ में अनेकों शंकाग्रस्त परिजन भी थे जिनका मुख्य प्रश्न था कि एक साधन रहित, अकेला व्यक्ति इतना बड़ा कार्य कैसे कर सकता है। जिस प्रकार हमें अपने अपने गुरु पर अन्धविश्वास है, इन लोगों को नहीं था, वह इस प्रश्न का उत्तर मांग रहे थे। गुरुदेव ने अनेकों उदाहरणों से उन सबको संतुष्ट किया। स्वार्थ को परमार्थ में बदलने वाला गुरुमंत्र एकदम सार्थक बताया गया, इसे तो OGGP में भी अनेकों बार देखा जा चुका है। एक अन्य प्रश्न साधना से सिद्धि से सम्बंधित था। सिद्धियां तो सभी को चाहिए लेकिन साधना क्या है,उसकी  तो  A,B,C तक का ज्ञान नहीं है। 

ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर लेकर आया है आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद। 

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अधिकांश जिज्ञासुओं ने एक जिज्ञासा प्रधान रूप से प्रकट की “एक साधन रहित एकाकी व्यक्ति सीमित समय में इतने भारी और इतने व्यापक काम कैसे कर सकता है, इसका रहस्य बचा है?”

पूछने वालों को उन सर्वविदित बातों का तो पता ही था जो कानों से सुनी और आँखों से देखी गई हैं।

मूल प्रश्न था युगचेतना उभारने वाला इतना साहित्य कैसे सृजा गया? उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन प्रसार कैसे सम्पन्न हुआ? इतना बड़ा परिवार कैसे संगठित हो गया, जिसमें पाँच लाख पंजीकृत और इससे पाँच गुना अधिक सामयिक स्तर पर सम्मिलित उच्चस्तरीय व्यक्तियों का समुदाय किस प्रकार जुड़ता चला गया और साथ चलता रहा? एक व्यक्ति के तत्त्वावधान में 2400 आश्रम-देवालय कैसे बन सके? शांतिकुंज , ब्रह्मवर्चस् गायत्री तीर्थधाम जैसे बहुमुखी सेवाकार्य में संलग्न संरचनाओं की इतनी सुव्यवस्था कैसे बन सकी? सुधारात्मक और सृजनात्मक आन्दोलन की देश व्यापी, विश्वव्यापी व्यवस्था कैसे बन गई? “रोता आये हँसता जाये” वाला उपक्रम अनवरत रूप से कैसे चलता रहा? आदि-आदि ऐसे विदित अगणित क्रिया-कलाप इन 80 वर्षों में घटित हुए हैं जिनकी इतने सुचारु रूप से चलने की सूत्र संचालक जैसे एक नगण्य एवं साधारण से व्यक्तित्व से आशा की नहीं जा सकती फिर भी वे कैसे सम्पन्न होते चले गए?

जड़ी बूटी चिकित्सा पर आधारित आयुर्वेद की नयी सिरे से शोध कैसे बन पड़ी व मनोरोगों के निवारण और मनोबल के संवर्द्धन की ब्रह्मवर्चस प्रक्रिया कैसे चलती रही? सात पत्रिकाओं का सम्पादन अकेले  प्रयास से कैसे चल पड़ा? लाखों शिक्षार्थी हर वर्ष प्रशिक्षण पाने से किस प्रकार लाभान्वित होते रहे? सृजनात्मक आन्दोलनों को इतनी गति कैसे मिल सकी जितनी कि अनेकानेक संगठन और समुदाय भी नहीं उपलब्ध कर सके?

उपरोक्त प्रत्यक्षदर्शी कृत्यों को जिन्होंने  अंकुरित, पल्लवित और फलित होते देखा है, उनका समाधान एक ही निम्नलिखित उत्तर से हुआ: 

एक छोटी सी चिंगारी के अम्बार से मिल जाने पर प्रचण्ड अग्निकाण्ड बन सकता है। पारस को छूकर लोहे का सोना बनने वाली उक्ति प्रसिद्ध है। फिर भगवान के साथ रहने, पूरी तरह से  जुड़ने वालों की स्थिति वैसी क्यों नहीं हो सकती। विशाल बिजली घर  के साथ जुड़ जाने पर छोटे मोटे यंत्र उपकरण सहज ही चलते रहते हैं। पुराने समय में तो पावर स्टेशन से तारों और खम्बों के जरिये बिजली हमारे घरों तक आती थी, उससे हमारे घर प्रकाशमय होते थे,छोटे बड़े उपकरण चलते थे लेकिन वर्तमान युग  तो वायरलेस का युग है, जिस फ़ोन पर आप इस समय यह लेख पढ़ रहे हैं वोह हमारे साथ बिना किसी तार से जुड़ा हुआ है। हज़ारों किलोमीटर दूर बैठे आप हमें अपने लैपटॉप पर  लिखते देख भी  सकते हैं। 

आइये “मन” के मोबाइल फ़ोन में स्थित  भावना का बटन दबाएं और गुरुवर से सम्पर्क स्थापित कर लें। गुरुवर  की 4G,5G कनेक्टिविटी इतनी प्रबल है कि बिना किसी रोकटोक के सीधा अंतकरण में ही उतर जाते हैं।        

गुरुदेव अनेकों बार बता चुके हैं कि यह सारा खेल मात्र कठपुतली के खेल की तरह होता रहा। श्रेय लकड़ी के खिलौने को नहीं, बाजीगर की उस कलाकारिता को मिलना चाहिए जो पर्दे के पीछे रह कर उँगलियों में बँधे तारों के सहारे अद्भुत हलचल करते चलने लायक बनाता और नचाता रहता हैं।

कुछ का समाधान तो हो गया, लेकिन हजारों जिज्ञासु सन्देह ही प्रकट करते रहे और पूछते रहे कि जब लाखों की संख्याओं में गिने जा सकने वाले भगवद् भक्त गई गुजरी उपहासास्पद अवांछनीयताओं के बीच ही जीवन व्यतीत करते हैं, तब एक व्यक्ति ने ऐसा क्या अद्भुत किया जिसमें भगवान के अनुदान नरसी मेहता के हुण्डी बरसने तथा हनुमान,अर्जुन जैसे किन्हीं बिरलों को भगवत् सखा होने के रूप में मिलें। संदेह सही भी था लेकिन  जो उत्तर दिया गया वह भी कोई कम समाधान-कारक नहीं था। 

इस सन्दर्भ में गुरुदेव द्वारा दिए गए निम्नलिखित उत्तर को चीड़फाड़ (Dissect) करके अंतःकरण में उतारना ही ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक एक सदस्य  का परम कर्तव्य है :   

पात्रता के अनुसार उपलब्धियों का हस्तगत होना एक ऐसी वास्तविकता है जिसे हर कहीं चरितार्थ होते देखा जा सकता हैं। इसी परिवार के कुछ साथिओं की उपलब्धियां, पात्रता और उपलब्धि के सम्बन्ध को Certify करती हैं। खोटे सिक्कों को कोई नहीं पूछता, हर जगह ठुकराये ही जाते हैं। 24 कैरट सोने का मूल्य हर कोई जानता है उसे कहीं भी बेचा जा सकता है क्योंकि उसमें कोई खोट नहीं है। खरे सोने की पहचान तो जवाहरात के निपुण जौहरी को ही होती है। जब कोई तथाकथित भक्त, गुरु का शिष्य, भगवान से अपना स्वार्थ साधना चाहता है, छोटी छोटी बातों के लिए भगवान का सहारा लेता है तो ऐसे प्रपंची/ पाखण्डी का कार्य सिद्ध नहीं होता, तो वह पाखंडी भगवान को उलाहना देने और निरंकुश कहते रहने की शिकायत ही करता रहता है। भगवान् से कुछ पाने के लिए उसके विशाल खेत में श्रद्धा, समर्पण, निष्ठा, नियमितता आदि के बीज बोने के बाद, सिंचाई, गुड़ाई आदि करने के बाद ही लहलहाती फसल का अनुदान प्राप्त होता है। इसी समर्पण का साक्षात् रूप हमारे गुरुदेव हैं जिनकी श्रद्धा और पात्रता को देखकर ही दादागुरु हिमालय से आंवलखेड़ा की उस कोठरी में दौड़े दौड़े आये थे जिसे आज तक  करोड़ों श्रद्धालु नमन कर चुके हैं। श्रद्धावान पत्नी जब पूरी तरह से अपने पति को समर्पित हो जाती है,वह अपने पति की समूची सम्पत्ति, सहायता और सद्भावना की खुद ब खुद ही हकदार बन जाती है। 

आज के युग में तो ऐसे समर्पण एवं Understanding का आशा पति और पत्नी दोनों से की जाती है।     

इस तथ्य की परीक्षा करनी हो तो संसार में जन्में  अब तक के महामानवों (हमारे गुरुदेव समेत) की जीवनचर्या को साक्षी देने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। पुण्य और परमार्थ को उस बीज की तरह विकसित होते देखा जा सकता हैं जो आरंभ में एक नन्हीं  सी राई के बराबर होता है लेकिन  कुछ ही समय में विशालकाय बरगद वृक्ष की तरह उत्कर्ष के उच्च शिखर तक जा पहुँचता है। ईश्वर का अजस्र (Endless) अनुदान प्राप्त करने का एक ही तरीका है और हमेशा रहेगा कि स्वार्थ को परमार्थ में बदल दिया जाये । यह एक ऐसा शाश्वत सत्य है जिसे आज तक कोई भी नकार नहीं सका है, जिसने अविश्वास के वशीभूत नकारने का प्रयास किया वोह सीधा अँधेरे गड्ढे में गिरता गया है, हम सबके आगे-पीछे-दाएं-बाएं ऐसा होता ही रहता है। धर्मधारणा और सेवा साधना को जीवनचर्या का अभिन्न  अंग बनाया जाय। भगवान् के द्वार पर भिखारी बनकर नहीं, दानवीर, उदार,विशाल ह्रदय वाला बनकर पहुँचा जाय और जो कुछ भी भगवान् की कृपा से प्राप्त हुआ है उसे  असंख्यों गुना करके वापस लौटाया जाय। ऐसा करना ज़रा सा भी कठिन नहीं है।  कोई पेट काटकर, खर्चा घटाकर, स्वयं को दुविधा में डाल  कर, कठिन परिस्थिति में डालने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि भगवान् तो भावना के भूखे हैं, अंजलि भर जल से ही तृप्त हो जाते हैं। अगले सप्ताह शिवरात्रि है, रुद्राभिषेक में जल का कितना महत्व है हम सब जानते हैं। सूर्य भगवान को भी अंजलि भर जल ही अर्पित किया जाता है। 

साधना से सिद्धि का रहस्य :   

“साधना से सिद्धि” प्राप्त होने के रहस्य को जानने  के इच्छुकों को यही जताया और बताया गया है कि “सत्प्रवृत्तियों के धन” से मनुष्य  अपने को प्रखर, प्रामाणिक और साहसी, उदारचेता बना ले  तो इतने से ही  अनेकानेक कर्मकाण्डों की आवश्यकता पूरी हो जाती है, बदले में वह मिल जाता है जो सच्चे भगवद् भक्तों को मिलना चाहिए। पाखंडी मनुष्य दिन रात स्वार्थ पूरा करता हुआ, भगवान् से सौदेबाज़ी करता हुआ मंदिरों में नाक रगड़ता रहता है, भगवान्  को लाखों करोड़ों के आभूषण/भेंट सामग्री आदि  अर्पित करता है लेकिन कुछ नहीं मिलता, मिलती है तो केवल निराशा और फिर भगवान् को गालियां निकालता है। यह साधना नहीं है,कोई भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो पायेगी।     साधना स्वयं को संयमी और सुसंस्कृत बनाने के लिए  की जाती हैं। इसके लिए स्रष्टा की एकमात्र इच्छा को पूरा करना पड़ता है कि संयमशील, उदारचेता स्तर का परमार्थ परायण जीवन जिया जाय। साधु ब्राह्मण, सन्त, सुधारक और शहीद इसी स्तर के होते रहे हैं। उनकी साधारण सी पूजा उपासना भी राई से पर्वत बनती देखी जा सकती है/देखी गयी है। ईश्वर समर्पित मनुष्य ही देवमानव कहलाते हैं और उन्हीं में वे सिद्धियाँ विभूतियाँ प्रकट होती हैं जिनके बारे में एक व्यक्ति के माध्यम से बन पड़े अनेकानेक महान कार्यों की चर्चा एवं पूछताछ की जाती है।

आज और कल, दो भागों में प्रस्तुत किये गए आध्यात्मिक दिव्य ज्ञानप्रसाद से अधिक नहीं तो  कम से कम इतनी शिक्षा तो ली ही जा सकती है कि गुरुदेव  जिस विशाल खेत का उदाहरण अनेकों बार दे चुके हैं, “ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार” उसी का एक छोटा प्रारूप है। इस छोटे से खेत में सद्भावना, प्रेम, समर्पण आदि के बीज रोप (बीजारोपण) दिए जाएँ, खेत की भूमि की नियमितता से गुड़ाई और सिंचाई होती रहे, श्रद्धा के उर्वर का छिड़काव होता रहे, झाड़-कांटे,पत्थर आदि निकाले जाते रहें तो कोई कारण नहीं कि एक दिन विकसित हुए विशाल वृक्ष की शीतल छाया से हमारी अंतरात्मा तृप्त न हो जाये।

समापन, जय गुरुदेव

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कल के ज्ञानप्रसाद लेख को 513   कमेंटस मिले, 12  संकल्पधारी  साथिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी साथिओं का इस अद्भुत सहयोग  के लिए ह्रदय से धन्यवाद  करते हैं ,कमैंट्स संख्या, कमैंट्स क्वालिटी, साथिओं की गणना ही इस परिवार की रीढ़ की हड्डी है।  


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