वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

प्राणाग्नि के जखीरे पर आधरित लेख श्रृंखला का तीसरा   लेख- गायत्री साधना से प्राणशक्ति का संग्रह हो सकता है।

परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य रचना “काया में समाया प्राणाग्नि का जखीरा” मात्र 43 पन्नों की कोई साधारण सी पुस्तक नहीं है। 2010 में प्रकाशित हुए  रिवाइज्ड एडिशन के अध्ययन से जो

ज्ञानप्राप्ति होती है, उसे शब्दों में वर्णन कर पाना लेखक की समर्था से परे है। इसी पुस्तक पर आधरित लेख श्रृंखला का आज तीसरा एवं मध्यांतर-वाला लेख है। सोमवार से  परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस के लेख आरम्भ किये जायेंगें, कल आद. राकेश/वंदना जी की 32 मिंट की एक और वीडियो प्रस्तुत की जाएगी। शनिवार को स्पेशल प्रकाशन तो होता ही है।

आज के लेख में “प्राणशक्ति” के संग्रह में गायत्री साधना के योगदान की सरल सी चर्चा है। 

तो आइये चलें आध्यात्मिक गुरुकक्षा की ओर। 

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जीवन/मरण के लिए, समर्थता/ दुर्बलता के लिए, कायरता/साहसिकता के लिए,स्ट्रैस/पराक्रम के लिए मानव जीवन में प्राणशक्ति का  उपयोग पग-पग पर होता है। प्राणशक्ति की न्यूनता एवं अधिकता,उत्कृष्टता एवं निकृष्टता ही मानव जीवन का आधारभूत कारण है जिसे समझ पाना कठिन तो है लेकिन इतना भी कठिन नहीं की इसे समझने का प्रयास ही न किया जाये। मंगलवार वाला ज्ञानप्रसाद कुछ कठिन सा था,सहपाठिओं के कमैंट्स बता रहे थे कि कइयों को तो इसे समझने के लिए  तीन बार तक भी पढ़ना पड़ा लेकिन हमें इतना संतोष है कि फिर भी हमारा प्रयास कुछ लाभदायक तो साबित हुआ ही है, सभी का धन्यवाद् करते हैं।    

मनुष्य की सबसे बड़े कमज़ोरी यही है कि उसे सब कुछ Instant Coffee की भांति एकदम पलक झपकते ही चाहिए। Water tap की भांति टूटी खोली और “प्राणशक्ति” का गिलास भर लिया। यह “प्राणशक्ति” है, अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रांड नामक  एनर्जी ड्रिंक नहीं है जिसे पीते ही कुछ समय बाद आप अपना कैलोरी कंटेंट देख सकते हैं। ऐसे बाहरी उपचारों से एनर्जी प्राप्त करने में तनिक सा ही सुधार/परिवर्तन सम्भव होता है। प्राणशक्ति आत्मा का विषय है, उसके लिए अंदर जाकर, अंतर्मन में उतर कर डुबकी लगनी पड़ती है। हीरे, मोती रत्न प्राप्त करने के लिए सागर में कितना नीचे उतरना पड़ता है, यह सर्वविदित है। 

परम पूज्य गुरुदेव ने विचार क्रांति का उद्घोष देकर न जाने कितने ही परिवारों का कायाकल्प कर दिया है लेकिन “प्राणशक्ति” के सन्दर्भ में एक तथ्य समझना बहुत आवश्यक है कि विचारशक्ति और प्राणशक्ति में एक बेसिक अंतर् है। विचारों की विशेषता है कि वह दूर-दूर तक जा सकते हैं। उन्हें पत्रों, लेखों, टेलीफोन आदि के माध्यम से अन्यत्र भी भेजा जा सकता है। किन्तु “प्राणशक्ति” में कमी है कि वह एक सीमित क्षेत्र में ही रहता है। उसका कहने लायक प्रयोग समीपवर्ती परिधि में ही हो सकता है। जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जाती है वैसे ही प्राण प्रभाव का क्षेत्र सीमित  होता जाता है। किन्हीं महाप्राणों की बात अलग है जो अपेक्षाकृत बड़े क्षेत्र को,उसमें रहने वाले समुदाय को अनुप्राणित करें। प्राण की  सचेतन ऊर्जा की तुलना जलती आग से की जा सकती है जो निकटवर्ती को ही अधिक प्रभावित करती है। आग से दूर जाते ही उसकी रोशनी भले ही दिखती रहे लेकिन गर्मी में तो निश्चित रूप से कमी होती ही जाती है।

ऋषि आश्रमों में गाय और सिंह निर्भय होकर एक ही घाट पर पानी पीते थे, किन्तु उस “प्रभाव परिधि” से बाहर निकल जाने पर फिर से वोह  “आक्रामक,आक्रान्त” की रीति-नीति अपनाने लगते हैं। ऋषि आश्रम को  “प्राणशक्ति का इंद्रजाल” कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी।  

यहाँ पर परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य  उपदेश का उदाहरण बिल्कुल सटीक बैठता है। गुरुदेव ने अनेकों वीडियो संदेशों में बार-बार युगतीर्थ शांतिकुंज आने का आग्रह किया है। वर्ष में कम से कम एक बार तो बैटरी चार्ज करने के लिए शांतिकुंज अवश्य ही आना चाहिए। यह उपदेश इतना सार्थक और प्रभावशाली है कि 1980s में जब हम पहली बार शांतिकुंज गए थे उस समय भी इसी उपदेश पर बल दिया जाता था और आज इतने वर्षों के बाद भी यही सन्देश बार-बार प्रसारित हो रहा है। पहली बार में ही शांतिकुंज की धरती ने हम पर ऐसा प्रभाव डाला था कि घर आकर  जब हमने कहा कि हम परिवार आदि छोड़ कर शांतिकुंज जा रहे हैं तो हमारे करीबी सम्बन्धिओं ने हमारा मज़ाक बनाया था। विज्ञान के विद्यार्थी, सदैव तथ्यों/प्रतक्ष्यवाद/वास्तविकता के पुजारी, मीट मांस भक्षण वाले अरुण त्रिखा पर शांतिकुंज की धरती का प्रभाव ऋषि आश्रम के सिंह जैसा ही था।   

जो लोग शांतिकुंज जा चुके हैं/जा रहे हैं स्वयं ही “प्राणशक्ति के इंद्रजाल” को अनुभव कर चुके हैं। इस इंद्रजाल में प्रवेश करते ही अनेकों माँसाहारी सिंह एकदम गाय /बकरी बनते देखे गए हैं। अधिकतर साधक अपनी इच्छाशक्ति एवं संकल्प शक्ति से लंबे समय तक सिंह प्रवृति का त्याग करते देखे गए हैं और अनेकों ऐसे भी हैं जो सत्र/तीर्थसेवन के बाद फिर सिंह प्रवृति में वापिस आ जाते हैं। घर आते ही सिंह बनकर दहाड़ना आरम्भ कर देते हैं। अनेकों ऐसे भी देखे गए हैं जो शांतिकुंज में रहकर भी सिंह प्रवृति छोड़ पाने में असमर्थ रहे हैं।         

सिंह स्वभाव से एक मांसाहारी प्राणी है और यह स्वभाव उसमें स्वयं से निर्मित नहीं है बल्कि  ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया है।  ईश्वर ‌‌‌‌का ज्ञान सार्वकालिक और सार्वभौमिक सत्य होता है । किसी भी युग में शेर-बकरी,सांप-नेवला, आदि वैरभाव छोड़ एक साथ रहते हों ऐसा सम्भव नहीं हो सकता। हां योगदर्शन के अनुसार हो सकता है कि  किसी योगी, ऋषि के आश्रम में, ऋषि के अंहिसा एवं तप के प्रभाव से ये प्राणी वैरभाव छोड़ कर साथ-साथ रहते हों। कोई ज़रूरी नहीं कि ऐसा सतयुग में ही संभव हो, कलियुग में भी सम्भव है। सभी युगों में अच्छे और बुरे लोग और बुरे कर्म होते रहे हैं।

वर्तमान  युग की ही एक बात यहां स्मरण आ रही है। बात राजा जम्बुलोचन की है जिन्होंने जम्मू नगर की नीव रखी थी। उन्हीं के नाम पर इस नगर का नाम जाम्बुपुरा  था जो बाद में जम्मू तवी  बन गया।  पुरातन कथा के अनुसार राजा जम्बुलोचन एक बार शिकार पर थे तो उन्होंने तवी नदी के किनारे सिंह और बकरी को एक साथ शांतिपूर्वक पानी पीते देखा। राजा इस दृश्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तवी नदी पर नगर बसाने का निर्णय ले लिया क्योंकि ऐसा दृश्य तो किसी दिव्य भूमि पर ही संभव हो सकता है। 

यहाँ बताना अनुचित नहीं होगा  कि जम्मू नगर हमारे पुरखों की भूमि है लेकिन हमने केवल कॉलेज/यूनिवर्सिटी शिक्षा के सात वर्ष ही इस नगर में व्यतीत किये हैं।  

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि  प्राणशक्ति ही मनुष्य सत्ता की जीवनी शक्ति है, Lifeline है।   यदि वह कम हो तो मनुष्य समुचित पराक्रम कर सकने में असमर्थ रहता है और उसे अधूरी मंजिल में ही निराश एवं असफल हो जाना पड़ता है। क्या भौतिक, क्या आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्र में अभीष्ट सफलता के लिए आवश्यक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है। इसके बिना लक्ष्य को प्राप्त कर सकना असम्भव है। इसलिए कोई महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए उसके आवश्यक साधन जुटाना आवश्यक होता है। आधुनिक युग तो भौतिकता का युग है, अर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का युग है लेकिन भौतिक उपकरणों की तुलना में व्यक्तित्व की प्रखरता एवं ओजस्विता कहीं अधिक आवश्यक है।

साधनों का उपयोग करने के लिए भी शौर्य, साहस और सन्तुलन चाहिए। बढ़िया बन्दूक हाथ में पकड़ी हो लेकिन मन में भय, घबराहट भरी रहे तो बेचारी बन्दूक क्या करेगी? चलेगी ही नहीं, चल भी गई तो निशाना ठीक नहीं लगेगा, दुश्मन सहज ही बंदूक छीन कर उल्टा आक्रमण कर बैठेगा। इसके विपरीत साहसी लोग छत पर पड़ी ईंटों और लाठियों से डाकुओं का मुकाबला कर लेते हैं। साहस वालों की ईश्वर सहायता करते हैं,यह उक्ति निरर्थक नहीं है। सच तो यही है कि समस्त सफलताओं का Basic element “प्राणशक्ति” ही है जो  साहस,लगन,तत्परता की प्रमुख भूमिका अदा करती है और ये सभी विभूतियां “प्राणशक्ति” की सहचरी हैं।

प्राण ही वह तेज है जो दीपक के तेल की तरह मनुष्य के नेत्रों में, वाणी में, गतिविधियों में, भाव-भंगिमाओं में, बुद्धि में, विचारों में प्रकाश बनकर चमकता है। मानव जीवन की वास्तविक शक्ति यही है। इस एक ही विशेषता के होने पर अन्य अनेकों  अनुकूलताएं तथा सुविधाएं स्वयंमेव उत्पन्न, एकत्रित एवं आकर्षित होती चली जाती हैं। जिसके पास यह विभूति नहीं उस दुर्बल व्यक्तित्व वाले की सम्पत्तियों को दूसरे बलवान् लोग अपहरण कर ले जाते हैं। घोड़ा अनाड़ी सवार को पटक देता है, कमजोर की सम्पदा (जर,जोर,जमीन) दूसरे के अधिकार में चली जाती है। जिसमें संरक्षण की सामर्थ्य नहीं वह उपार्जित सम्पदाओं को भी अपने पास बनाये नहीं रख सकता। विभूतियां दुर्बल के पास नहीं रहतीं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विचारशील लोगों को अपनी समर्थता-प्राणशक्ति बनाये रखने तथा बढ़ाने के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयत्न करने पड़ते हैं। 

शरीर में “प्राणशक्ति” ही निरोगता, दीर्घ-जीवन, पुष्टि एवं लावण्य के रूप में चमकती है। यही शक्ति बुद्धिमत्ता, मेधा, प्रज्ञा के रूप में प्रतिष्ठित रहती है। शौर्य, साहस, निष्ठा, दृढ़ता, लगन, संयम, सहृदयता, सज्जनता, दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के रूप में उस प्राणशक्ति की ही स्थिति आंकी जाती है। व्यक्तित्व की समग्र तेजस्विता का आधार यह प्राण ही है। शास्त्रकारों ने गायत्री मंत्र की  महिमा को मुक्त कण्ठ से गाया है और जन-साधारण को इस सृष्टि की सर्वोत्तम प्रखरता का परिचय कराते हुए बताया है कि वे भूले न रहें, इस शक्ति-स्रोत को, इस भाण्डागार को ध्यान में रखें और यदि जीवन लक्ष्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो “प्राणशक्ति”  को उपार्जित एवं विकसित करने का प्रयत्न करें।

गायत्री मंत्र के शाब्दिक अर्थ से समझ आ जाता है कि इसके नियमित जाप से मानव के अंदर प्राणशक्ति का संग्रह होता है। गय अर्थात प्राण त्रि  अर्थात त्राण करने वाले गायत्री मंत्र से प्राणों का संवर्धन, संग्रह होता है। गायत्री मंत्र को तारक मंत्र अर्थात तारने वाला मंत्र भी कहा गया है। डूबते हुए तो सहारा देने को तैरना कहते हैं।  

गायत्री साधना मनुष्य को प्राणयुक्त बनाती और उसमें प्रखरता उत्पन्न करती है। गायत्री साधना तो है  ही प्राणों का उद्धार करने वाली। इस प्रकार प्राणवान और विभिन्न शक्तियों में प्रखरता उत्पन्न होने से पग-पग पर सफलताएं, सिद्धियां प्राप्त होती हैं। प्राण की न्यूनता ही समाज विपत्तियों का, अभावों और शोक-सन्तापों का कारण है। दुर्बल पर हर दिशा से आक्रमण होता है, दैव भी दुर्बल का घातक होता है। भाग्य भी उसका साथ नहीं देता और मृत लाश पर जैसे

चील, कौए दौड़ पड़ते हैं वैसे ही तत्वहीन मनुष्य पर विपत्तियां टूट पड़ती है। इसलिए हर बुद्धिमान को प्राण का आश्रय लेना चाहिए, गायत्री साधना का सहारा लेना चाहिए। 

मध्यांतर -इसके आगे का भाग गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस के बाद प्रस्तुत किया जायेगा। 

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कल वाले ज्ञानप्रसाद लेख   को 471 कमेंट मिले, 13  संकल्पधारिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।


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