वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

कल से आरम्भ होने वाली लेख श्रृंखला की रोचक सी भूमिका। 

भूमिका क्या, यह तो “अपनों से अपनी बात” जैसा लेख प्रतीत हो रहा है, जी हाँ कुछ ऐसा ही है।  

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के समर्पित साथी इसकी कार्यप्रणाली से भलीभांति परिचित हैं। इस कार्यप्रणाली के अंतर्गत प्रयास तो सदैव यही रहता है कि नई लेख श्रृंखला का शुभारम्भ सप्ताह के प्रथम दिन सोमवार से ही किया जाए क्योंकि उस दिन रविवार के अवकाश के कारण हमारे भीतर एक नवीन ऊर्जा,उत्सुकता एवं जिज्ञासा का संचार हुआ होता है।  सभी यह जानना चाहते हैं कि अब आगे कौन से नए विषय पर ज्ञानप्राप्ति होने वाली है। कई बार विषय का चयन करना हमारे लिए एक बहुत ही चनौतीपूर्ण कार्य बन जाता है। कई बार तो स्वध्याय,रिसर्च, टेक्निकल समस्याओं आदि के कारण इतना थक हार जाते हैं कि गरुदेव के समक्ष समर्पित होकर प्रार्थना करते हैं कि गुरुदेव आप ही मार्ग दिखाएँ, कुछ दिखाई नहीं दे रहा, बस इतना कहने की देर भर होती है कि  कृपानिधान परम पूज्य गुरुदेव स्वयं ही न केवल टॉपिक बल्कि पुस्तक भी हाथ में थमा देते हैं कि  सारा कार्य ही सरल हो जाता है। अभी तक जो ज्ञान के अथाह सागर में दिशाहीन गोते खाते हुए एक डूबते जहाज़ की भांति लाइट हाउस की तलाश कर रहे थे कि  कहीं इस अथाह सागर का किनारा मिल जाये, तो गुरुदेव स्वयं ही ऊँगली पकड़ कर किनारे पर ले आते हैं, कहते हैं: विश्वास रख बेटे मैं तुम्हें डूबने नहीं दूंगा, जब मैं तेरी नाव का पायलट हूँ, तेरी नाव को चला रहा हूँ तो तुझे किस बात की चिंता है।        

इस बार आरम्भ होने वाली लेख श्रृंखला की पृष्ठभूमि कुछ ऐसी ही थी,ऐन मौके पर कुछ ऐसा घटा कि हमें लग रहा था कि साथिओं के समक्ष क्षमा याचना करनी पड़ेगी कि क्या किया जाये, क्या लिखा जाये। साथिओं की पूर्व स्वीकृति के साथ आने वाली लेख श्रृंखला जिसका शीर्षक “काया में समाया प्राणाग्नि का जखीरा” है, की पृष्ठभूमि निम्नलिखित शब्दों में वर्णन करने का साहस कर रहे हैं : 

कई दिनों से  1. “रमणीक देह नगरी, एक देव उद्यान हैंगिंग गार्डन” और 2.“न यंत्र न विज्ञान, फिर भी दूरवर्ती ज्ञान” विषयों पर स्वाध्याय कर रहे थे। यह दोनों पुस्तकें हमने लगभग एक वर्ष पूर्व सेव करके रख लीं थीं कि भविष्य में  परिवार के मंच पर प्रस्तुत करेंगें। इन दोनों पुस्तकों को न जाने  कितनी ही बार पढ़ा, नोट्स बनाये, अपनी लाइब्रेरी में सेव भी किये लेकिन अंत में यही निर्णय किया यह बहुत ही टेक्निकल विषय हैं, इन में समाहित विज्ञान की गुत्थियों  को समझने, उनका सरलीकरण करके साथिओं के समक्ष प्रस्तुत करना एक बहुत ही जटिल कार्य है जिसके लिए हमारा अल्पज्ञान अभी तैयार नहीं है। 

परिणाम  यह हुआ कि इन दोनों पुस्तकों को परिवार के मंच पर लाने को अभी के लिए स्थगित  कर दिया और किसी नए विषय की गूगल सर्च आरम्भ कर दी।

हमारे साथिओं के शायद ही विश्वास हो कि हमें स्वयं को मालूम नहीं कि हमने सर्च बार में क्या टाइप किया, पहली एंट्री ही “काया में समाया प्राणाग्नि का जखीरा” appear हुई। टाइटल को समझने में कुछ सेकंड तो लगे लेकिन जब पुस्तक के कुछ पन्नों को उलट पलट कर देखा तो ऐसे लगा जैसे कोई “रत्नजटित आभूषण” मिल गया हो। एक दम विश्वास हो गया कि शायद यही है गुरु की अद्भुत शक्ति, अथाह सागर में हिचकोलें खा रही, लगभग डूबती नैया को लाइट हाउस के प्रकाश ने सुरक्षित तट पर ला कर पटक दिया। वाह  रे मेरे गुरु, नमन है,नमन है, नमन है। 

बुधवार की रात्रि को इस पुस्तक को  थोड़ा और अधिक ध्यान से पढ़ना और समझना शुरू कर दिया। ओपनिंग पन्नों पर इतना रोचक और ज्ञान का भण्डार था कि हम तो डूबते ही चले गए, लेकिन  यह क्या ? अभी कुछ ही पन्ने पढ़े थे कि awgp की वेबसाइट (जहाँ यह पुस्तक उपलब्ध थी ) डाउन हो गयी और पुस्तक ओझल हो गयी।  अब क्या किया जाये ? विकल्प तो कई और भी थे लेकिन एक बार तो समस्या आ ही गयी न । इंटरनेट आर्काइव पर सर्च किया, वहां पर यह पुस्तक उपलब्ध नहीं थी, शांतिकुंज के  revamped digital पोर्टल पर सर्च किया, यह पुस्तक  उपलब्ध नहीं थी, सूरत गुजरात, द्वारा चलाये जा  रहे  “विचारक्रांति पुस्तकालय” पर सर्च किया, वहां पर भी उपलब्ध नहीं थी। 

जब कहीं भी उपलब्ध नहीं थी तो यही निर्णय लिया कि कुछ और ही विकल्प ढूंढ़ना चाहिए। लाइब्रेरी में से “क्रांतिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला” में गुरुदेव की 22 पुस्तकों के संग्रह को देखना शुरू कर दिया। उसी में कुछ टॉपिक पढ़ने भी शुरू किये कि अगर न कुछ हो पाया तो इन्हीं पुस्तकों से कुछ लिखने की योजना बनायेंगें। इसी उहापोह में सोने का समय हो गया। 

हमें जानकारी थी कि awgp की वेबसाइट ज़्यादा देर तक डाउन नहीं रहेगी, आगे भी डाउन होती है (शायद Maintenance के लिए ) तो 2-3 घंटे में चालू हो जाती है। इसी संघर्ष में सोने का प्रयास किया जाने लगा लेकिन नींद कहाँ, मन को समझा रहे थे कि अभी गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार- चार दिन पड़े हैं इतनी कौन सी बात है। लेकिन क्या किया जाए, अपनी तो प्रवृति ही ऐसी है जब तक कार्य पूरा न  हो जाये, चैन कहाँ आता है और प्लानिंग कई दिन पहले से आरम्भ हो जाती है। जब गुरुकार्य हमारी तस्सली के अनुसार  संपन्न हो जाता है तो  सर्जरी की स्थिति में भी मात्र बिस्तर तक जाने की देर होती है। आँख बंद करते ही समाधि स्थल, अखंड दीप में स्थित गुरु अपनी गोद  में ले लेते हैं। लेकिन आज जितनी बार भी दवाई आदि के लिए नींद खुली तो फ़ोन में देखा कि वेबसाइट चालू हुई है कि नहीं। 

प्रातः चार बजे वेबसाइट Up and running हुई, हमने एक ही निर्णय लिया जो लगभग इंस्टेंट ही था। उस निर्णय के अधीन हमने  “काया में समाया प्राणाग्नि का जखीरा” पुस्तक के सभी 43 पन्ने कॉपी/पेस्ट कर लिए ताकि कोई भी रिस्क न रहे। 

तो साथिओ यह है गुरु की आज्ञा और निर्देश जिसके अंतर्गत आपके समक्ष स्वादिष्ट एवं रोचक दैनिक ज्ञानप्रसाद का वितरण हो रहा है।

परम पूज्य गुरुदेव के करकमलों से रचित 2010 की 43  पन्नों की पुस्तक के 6 चैप्टर के शीर्षक ही अपनेआप में इतने जटिल हैं कि जब तक उनके कंटेंट का अध्ययन न हो, कुछ भी समझ पाना कठिन है। लेकिन कठिनता एक तरफ और  ज्ञान दूसरी तरफ। उदाहरण के लिए “अणुशक्ति से भी बृहत्तर प्राणाग्नि” चैप्टर में गुरुदेव बता रहे हैं कि मनुष्य में समाहित प्राणाग्नि, Nuclear energy से भी शक्तिशाली है। प्राणअग्नि  कैसे इतनी शक्तिशाली है, जानना बहुत ही रोचक रहेगा। गुरुदेव ने कैसे एक अतिकुशल वैज्ञानिक की भांति हम जैसे नौसिखियों को  समझाने का प्रयास किया है, यह तो शृंखला के अंतिम लेखों में ही पता चलेगा लेकिन हमारा विश्वास है कि गुरु का मार्गदर्शन हमारी ऊँगली पकड़ कर हमसे अवश्य ही कुछ ऐसा लिखवा लेगा जिसका हमें स्वयं भी विश्वास नहीं होगा। 

ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि 1200 ज्ञानप्रसाद लेखों को जब भी कभी एडिटिंग के लिए देखते हैं तो एक बात तो हर बार सामने आती है कि “क्या यह हमने लिखा था ?” अब तो हम यही कह कर संतोष  कर लेते हैं “अरे तू क्या, यह तो गुरु की लेखनी है, तू केवल माध्यम है, तू वही कर रहा है जो गुरु करवा रहा है।” यही सच है। 

इसी तरह की बात आज आद नीरा जी, हमारी सबकी अतिप्रिय एवं सम्मानित बहिन सुमनलता जी के कमेंट के बारे में बता रही थीं कि  बहिन जी ने लिखा है कि हमें अपना कमेंट भूल जाता है लेकिन विश्वास अरुण भाई साहिब के प्रति था कि उन्होंने जो लिखा है तो सही ही होगा। हम सभी साथिओं के बारे में भी यही कह सकते हैं कि यह सभी दिव्य आत्माएं हमारे परम पूज्य गुरुदेव के Messenger हैं, उन्हें खुद भी अनुमान  नहीं है कि गुरुदेव उनसे क्या करवाना चाहते हैं। 

आइये इस पुस्तक के बारे में थोड़ी  और चर्चा करें:

जब हम पुस्तक के कुछ पन्नों को उलट पलट कर देख रहे थे तो संस्कृत के निम्नलिखित श्लोकों को देखकर तो मस्तिष्क ही चकरा गया कि हम इन्हें कैसे समझ पायेंगें और हमें समझ न आया तो साथिओं के समक्ष क्या रख पायेंगें। लेकिन गुरु की दक्षता ऐसी है कि उन्होंने एक एक शब्द ऐसे समझाया हुआ है कि उसे भी समझ आने में कोई कठिनाई न हो जिसने कभी स्कूल का मुंह भी न देखा हो। ऐसे हैं हमारे परम पूज्य गुरुदेव:      

प्राणो वै बलम्। प्रापणों वै अमृतम्। आयुर्नः प्राणः राजा वै प्राणः। —ब्रहृदारण्यक

यो वै प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। —सांख्यायन

यावद्धयास्मिन् शरीरे प्राणोवसति तावदायुः। —कौषीतकि

प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठान्ः। —शतपथ

एतावज्ज्न्मसाफल्यं देहिनाभिह देहिषु। प्राणैरयैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा।।

ऐसी स्थिति में हमें 2024 मार्च-अप्रैल के दिन स्मरण हो आये जब Bioelectricity जैसे Specialized विषय पर गुरुदेव ने हमसे 20 लेख लिखवा लिए थे। हमें तो Bioelectricity जैसे विषय की A,B,C तक का ज्ञान नहीं था। साथिओं को स्मरण हो आया होगा कि बेटी संजना द्वारा बताई गयी “मानवी विद्युत के चमत्कार” पुस्तक की बात हो रही है। 

“मानवी विद्युत के चमत्कार” और “काया में समाया प्राणाग्नि का जखीरा” दोनों ही पुस्तकें बहुत Specialised हैं। हमें विश्वास है कि गुरुदेव के मार्गदर्शन, सरलीकरण, साथ में हमारी और से शामिल होने वाला कंटेंट,साथिओं के कमैंट्स आदि से यह लेख श्रृंखला भी अतिरोचक बन जाएगी।  

आज के लिए बस इतना ज्ञान ही पर्याप्त, कल से श्रृंखला का शुभारम्भ होगा लेकिन गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस का स्मरण कराना हमारा कर्तव्य है। अरुण जी का अनुभूति के लिए धन्यवाद् करते हैं।

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शनिवार वाले विशेषांक  को 637  कमेंट मिले, 16  संकल्पधारिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।


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