23 जनवरी 2025 गुरुवार का ज्ञानप्रसाद-सोर्स- अखंड ज्योति जुलाई 1966 पृष्ठ 26
चार भागों में पूर्ण हुई वर्तमान लेख श्रृंखला का आज चतुर्थ एवं समापन भाग प्रस्तुत किया गया है। परम पूज्य गुरुदेव की इच्छा है कि कुछ ऐसे परिजन शिक्षित कर दिए जाएँ जिन्हें हम अपने उत्तराधिकारी कह सकें। उनकी योग्यता ऐसी हो कि वे दूसरों को सिखावें। गुरुदेव कह रहे हैं कि हमें आस्थावान लोगों की उपासना को इतना परिपक्व एवं प्रखर बनाने में अपना ध्यान केन्द्रित करना है जिससे वे स्वयं एक अनुकरणीय उदाहरण बनकर दूसरों को साधना मार्ग पर आकर्षित एवं प्रोत्साहित कर सकें। आगे थोड़े लोगों पर ध्यान केन्द्रित करेंगे ताकि वे स्थायी रूप से अपनी समस्याओं का समाधान करके इस स्थिति में पहुँच सकें कि दूसरों की समस्याऐं हल करने में उसी प्रकार सहयोग दे सकने की क्षमता प्राप्त कर लें जैसी कि अब तक हमारी गतिविधि रही है।
आज के लेख में गुरुदेव का संकेत “अस्थिर प्रवृति” वाले परिजनों की ओर केंद्रित है। यही कारण है परिजनों की काटा-छांटी में गुरुदेव कह रहे हैं कि अस्थिर प्रवृति वाले लोगों की भारी भीड़ से घिरे रहने की अपेक्षा हमें मुट्ठी भर आस्थावान लोगों के साथ रहने में अधिक सन्तोष एवं आनंद प्राप्त होगा।
आज के इस लेख में व्यक्त किये गए विचारों को हम किसी न किसी शक्ल में अपने ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के लिए भी व्यक्त कर चुके हैं। परम पूज्य गुरुदेव के विचारों और साहित्य को ढाल बनाकर हम अपने साथिओं से अनेकों बार सहयोग की याचना कर चुके हैं और हमें ख़ुशी है कि साथिओं ने हमारी भिक्षा का सम्मान करते हुए हमारी झोली में अपना समयदान,श्रमदान,ज्ञानदान प्रदान किया ही है। उन्हीं के सहयोग से हम यहाँ तक पंहुचे हैं, अकेले कुछ भी करने में पूर्णतया असमर्थ हैं।
हम अंतिम श्वास तक यह भिक्षा मांगते ही रहेगें, हमारा गुरु भी तो पिछले 100 वर्षों से अपने साहित्य के प्रचार-प्रसार का आग्रह कर रहा है।
तो आइए अगले कुछ मिनटों के लिए आपने ज्ञानचक्षुओं को खोल कर,आज की गुरुकक्षा का संचालन ज्ञानमंदिर (आद सुमनलता बहिन जी की Terminology) के दिव्य वातावरण में करें, गुरुज्ञान का अमृतपान करें।
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वर्तमान लेख श्रृंखला के पिछले तीन भागों से चले आ रहे निर्देशों के आगे बढ़ाते हुए गुरुदेव बड़ी गंभीरता एवं कड़ाई से कहते है :
जो परिजन “हमारे विचारों की प्रेरक शक्ति” पर आस्था रखते हों ,जो उस शक्ति की उपयोगिता/ आवश्यकता समझते हों उन्हें अगले पाँच वर्ष तक हमारे सृजनात्मक साहित्य योजना का सदस्य बने रहना चाहिए। जो परिजन अधूरे मन से केवल “शारीरिक परिचय या प्रयोजन” पर आधारित संबंध रखते हैं उन्हें इस झंझट में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि हम एक दिशा से अपना मस्तिष्क साफ कर लेना चाहते हैं कि हमें जो लिखना है,छापना है वह किन परिजनों लिए,कितनों के लिए होगा। ऐसे अनेकों अनिश्चित परिजन हैं जो कभी सदस्य रहे, कभी न रहे,कभी हमारी याद आ गई तो चन्दा भेज दिया, नहीं भेजा तो कोई बात नहीं। जिन परिजनों को ऐसी अरुचि है उनके लिए यही उचित है कि वह अपना नाम सदस्यता से कटवा दें । इसमें हमें बहुत सुविधा रहेगी। अनिश्चित संख्या में व्यवस्था बनाने में बड़ी गड़बड़ी और परेशानी रहती है।जो परिजन हमारा साहित्य यदा-कदा शौकिया मन से पढ़ना चाहें वे किसी पडोसी से माँग कर पढ़ लिया करें।
अब हमें ऐसे सुनिश्चित प्रवृति वाले उन आस्थावान परिजनों की संख्या जाननी हैं, जिन पर हमारा ध्यान केन्द्रित रह सके। अनिश्चित संपर्क केवल उलझन पैदा करते हैं और परेशानी बढ़ाते हैं। अगले पाँच वर्ष हम “अनिश्चित नहीं सुनिश्चित” लोगों के साथ संपर्क रखने में ही बिताना चाहते हैं। अगली सदस्यता 10 नया पैसा रोज खर्च की होगी क्योंकि इतने पैसे में ही हमारा सारा भावी प्रकाशन उपलब्ध किया जा सकेगा। जो इतना खर्च कर सकते हों, वे अपना नाम अगले महीने नोट करा दें। शेष लोग दूसरों से पढ़कर काम चला लिया करें।
प्रश्न आर्थिक तंगी का नहीं है। निर्धन से निर्धन व्यक्ति के लिए भी यह कठिन नहीं है कि वह लगभग डेढ़ दो छटाँक आटे की कीमत (दस नया पैसा), इतने महत्वपूर्ण, इतने आवश्यक कार्य के लिए खर्च न कर सके।अत्यधिक आर्थिक तंगी हो तो स्वयं डेढ़ रोटी कम खाकर शरीर को थोड़ा दुर्बल कर लें और उसके बदले में आत्मा को बलवान बना लें। यह तनिक भी महंगा सौदा नहीं है। यह भी हो सकता है कि यदि अकेले इतना खर्च करने की सुविधा न हो तो दो परिजन मिलकर सम्मिलित व्यवस्था बना लें।
“फुरसत न मिलने और आर्थिक तंगी की बात करने वालों का बहाना बेबुनियाद है। सही बात लापरवाही और अरुचि है जिसके कारण इतना छोटा सा खर्च और थोड़ा सा समय भी भार मालूम पड़ता है।”
ध्यान से देखा जाय तो यह लोग 10 नए पैसे से कहीं अधिक पैसा और कहीं अधिक समय ऐसे कार्यों में खर्च करते रहते हैं जो व्यर्थ के हैं तथा हानिकारक होते हुए भी उनकी रुचि का स्थान ग्रहण किये हुए हैं। जिन कार्यों को अधिकतर लोग आवश्यक समझते हैं उनके लिए ढेरों समय और ढेरों पैसे खर्च करते हैं। अरुचि का प्रसंग ही भार मालूम पड़ता है। उसी के लिए तंगी और फुरसत की आड़ लेनी पड़ती है।
“हमारा सारा जीवन मनुष्य का अंतरंग एवं बहिरंग स्वरूप समझने में बीता है। वस्तुस्थिति समझने में हमें तनिक भी भ्रम नहीं रहता। इसीलिए यह प्रस्ताव कर रहे हैं कि अगले पाँच वर्ष हमें जिन लोगों के लिये विशेष सोचना और करना है वे इस स्तर के नहीं होने चाहिए जिन्हें इतनी नगण्य व्यवस्था बनाने में कष्ट, कठिनाई, आशंका और असुविधा होती हो।”
इन दिनों “अखण्ड-ज्योति” के ग्राहक बहुत हैं, हर वर्ष कितने ही नये बनते और कितने ही पुराने टूटते हैं। यह धमाचौकड़ी अब बन्द होनी चाहिए। 1000-2000 ग्राहक भी रहें तो हमें पूरा-पूरा सन्तोष रहेगा। भीड़ को समझाने वाली अवधि पूरी हो गई,अब जो आस्थावान हैं उनके लिए कुछ अधिक महत्वपूर्ण सोचने करने का प्रश्न है। ऐसी दशा में वर्तमान संख्या घटाने में हमें तनिक भी आपत्ति नहीं बल्कि सुविधा ही होगी।
इन पंक्तियों में साहित्य-सृजन की चर्चा विशेष रूप से इस लिए की जा रही है कि “अखण्ड-ज्योति” तथा उसके पाठकों का स्थूल रूप से यही प्रमुख माध्यम रहा है। इसलिए यह प्रसंग साफ करना आवश्यक था। इसी महीने यह बात विशेष रूप से इसलिए स्पष्ट करनी पड़ी कि 1 जुलाई से “युग निर्माण योजना पाक्षिक” का नया वर्ष आरम्भ होता है। उसके अधिकाँश ग्राहकों का चन्दा इसी महीने समाप्त हो जायगा। आगे से उसे मासिक कर दिया गया है। वह 15 तारीख को छपा करेगी। इस पत्रिका के पृष्ठ ‘अखण्ड-ज्योति’ जितने ही रहेंगे और उतना ही वार्षिक मूल्य रहेगा। “अखण्ड-ज्योति” में जो बातें सैद्धान्तिक रूप से प्रतिपादित की जाती हैं वे कार्य रूप में किस तरह लाई जा सकती हैं या लाई जा रही हैं, इसका व्यावहारिक मार्गदर्शन युग निर्माण योजना में रहा करेगा। एक प्रकार से “युग निर्माण योजना” को “अखण्ड-ज्योति” का पूरक ही कहना चाहिए। अब तक उसे कोई पढ़ते थे कोई नहीं पढ़ते थे। अब यह उचित रहेगा कि जो “अखण्ड-ज्योति” पढ़ते हैं वे “युग निर्माण योजना” भी पढ़ें और जो “युग निर्माण योजना” पढ़ते हैं वे “अखण्ड-ज्योति” भी मंगावें। इसलिए अगले मास “युग निर्माण योजना” भी उतनी ही छापने का विचार है जितने पाँच वर्ष तक साथ देने वाले स्थायी सदस्य होंगे। जो कभी ग्राहक रहते, कभी टूटते हैं, उन्हें “युग निर्माण योजना” मँगाना भी अनावश्यक है। इस प्रकार उसके ग्राहक भी घट जायँ तो हर्ज नहीं। “अखण्ड-ज्योति” तो दिसम्बर तक इतनी ही छपेगी, उसे जनवरी से उतनी ही छापेंगे, जितने स्थायी सदस्य होंगे।
प्रचार कार्य बहुत हो चुका, अब जो काम के आदमी हाथ लगें उतनों को ही पक्का करने का काम शेष है। इसलिए इस ग्राहक घटाने वाली योजना से पाठकों को न दुःख होना चाहिए न आश्चर्य।
अस्थिर प्रवृति वाले लोगों की भारी भीड़ से घिरे रहने की अपेक्षा हमें मुट्ठी भर आस्थावान लोगों के साथ रहने में अधिक सन्तोष एवं आनंद प्राप्त होगा।
इसलिए जिन्हें स्थायी सदस्य रहना हो वे “युग निर्माण योजना” अपने नाम चालू कराने के लिये और शेष उसे बन्द कर देने की सूचना हमें दे देंगे तो भविष्य के अंक उतनी ही संख्या में तैयार कराने में सुविधा रहेगी।
साधना क्रम का सामान्य प्रशिक्षण हो चुका, जिन्होंने उसे सीख लिया है वे दूसरों को सिखावें। हमें आस्थावान लोगों की उपासना को इतना परिपक्व एवं प्रखर बनाने में अपना ध्यान केन्द्रित करना है जिससे वे स्वयं एक अनुकरणीय उदाहरण बनकर दूसरों को साधना मार्ग पर आकर्षित एवं प्रोत्साहित कर सकें। साधारण कठिनाइयों को हल करने में हम अब तक सामने आये। व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ सहयोग करते रहे हैं, आगे थोड़े लोगों पर ध्यान केन्द्रित करेंगे ताकि वे स्थायी रूप से अपनी समस्याओं का समाधान करके इस स्थिति में पहुँच सकें कि दूसरों की समस्याऐं हल करने में उसी प्रकार सहयोग दे सकने की क्षमता प्राप्त कर लें, जैसी कि अब तक हमारी गतिविधि रही है। अपना काम समाप्त करते हुए आखिर कुछ लोग तो पीछे छोड़ने ही हैं जो इस महान परम्परा को आगे भी गर्व और गौरव के साथ जारी रख सकें। इनका निर्माण अब भी न किया गया तो आखिर फिर वह समय आवेगा भी कब? यही सही मायनों में हमारे उत्तराधिकारी कहाने के योग्य होंगें।
अगले पाँच वर्षों में हमें जो अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करने हैं, उनमें से एक यह भी है कि निरर्थक भीड़-भाड़ में से कुछ काम के साथी सहचर चुन लें और उनके साथ अधिक मनोयोग पूर्वक संपर्क स्थापित करें। इसे कोई चाहे तो परिवार का परिष्कार, परिमार्जन या शुद्धिकरण भी कह सकता है। शब्द कुछ भी कहे जायँ वस्तुतः आगे किया यही जाना है।
इसी अंक में एक प्रश्न-पत्र अलग से संलग्न है। इसे भरकर पाठक इसी महीने भेज देने की कृपा अवश्य करें। इसमें हमें अपनी भावी विधि व्यवस्था जमाने में बड़ी सुविधा होगी। जिन्हें सदस्य रहना हैं वे स्वीकृति वाला भाग लाल स्याही में भर दें, जिन्हें सदस्यता बन्द करनी हो वे Backside में दूसरी स्याही में छपा भाग भरकर भेज दें। जिनकी बन्द होने की सूचना होगी उनकी पत्रिकाएं चन्दा समाप्त होते ही बन्द कर दी जायेंगी। प्रश्न-पत्र भरकर न आने पर पुनः स्मरण दिलाने की कठिनाई से हमें बचाने के लिए हर पाठक से इतने उदार सहयोग की आशा तो रखी ही जायगी कि वे यथासंभव जल्दी ही इस फार्म को भरकर भेज देंगे।
समापन
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कल वाले लेख को 624 कमेंट मिले, 16 संकल्पधारिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। आज फिर स्थापित किये कीर्तिमान के लिए सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।