वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव से हमारे सम्बन्ध कैसे हों ? भाग 3 -हमारे गुरुदेव एक पारिवारिक शिक्षक

परम पूज्य गुरुदेव स्वयं को परिजनों के ऋण से मुक्त करना चाहते हैं। आज के लेख  में गुरुवर कह रहे हैं कि यदि हमारा “भावना शरीर” यानि हमारा साहित्य, हर प्रेमी परिजन के समीप एक मूर्तिमान कलेवर की तरह विद्यमान रह सके तो हमारे ऊपर चढ़े हुए परिजनों के ऋण से कुछ सीमा तक मुक्ति मिल सकती है। जिस प्रकार हम आज वर्तमान शरीर द्वारा प्रेमी पाठकों का भावनात्मक निर्माण कर सकने में सफल हो रहे हैं उसी प्रकार आगे भी 100 वर्ष तक उनके परिवार की, प्रियजनों की सेवा करते रहें।

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से बार-बार यही निवेदन तो किया जाता है कि गुरुज्ञान को समझा जाए,औरों को समझाया जाए और कमैंट्स करके इस ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया जाए।   

गुरुदेव ने बहुत ही सरल भाषा में समझाया है कि हमारा साहित्य “एक पारिवारिक शिक्षक” की भांति सदैव आपके अंग संग रहेगा। पूजा-कक्ष में धूप,पुष्प,नैवेद्य अर्पित करने के साथ-साथ इस ज्ञान मंदिर की भी मात्र एक घंटा प्रतिदिन आराधना की जाए तो हमारा “भावनात्मक शरीर” अगले 100 वर्ष तक आपके साथ रहेगा। 

आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने से पूर्व बताना चाहेंगें कि शुक्रवार की वीडियो कक्षा में आदरणीय राकेश शर्मा जी की वीडियो का दूसरा भाग प्रकाशित किया जायेगा।  साथिओं को गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस का स्मरण कराना भी अपना कर्तव्य समझते  हैं  

तो आइए चलें  गुरुकुल की आध्यात्मिक गुरुकक्षा की ओर कर गुरुचरणों में समर्पित हो आज के  गुरुज्ञान का अमृतपान करें।       

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1966 में जब यह लेख प्रकाशित हुआ था, उस समय अखंड ज्योति का वार्षिक मूल्य 4 रुपए था। गुरुदेव पूरा गणित समझाते हुए लिखते हैं कि हमने संकल्प लिया है कि लगभग तीन रुपए मासिक की लागत से अपने प्रिय परिजनों के घरों में नियमित रूप से अपना साहित्य पहुँचाने का कार्य करेंगें । यह सब सामग्री इतनी होगी कि एक परिवार में एक घन्टे प्रतिदिन स्वाध्याय एवं सत्संग के लिए उत्कृष्ट होगी। 

हमने अपने प्रिय परिजनों से नवनिर्माण कार्य के लिए एक घंटा प्रतिदिन का समयदान माँगा था। कितने ही व्यक्ति जनसंपर्क में इस बहुमूल्य अनुदान को लगा रहे हैं और उससे लोकमानस निर्माण का कार्य बहुत ही उपयुक्त ढंग से हो भी रहा है। 

इतने पर भी कितने ही व्यक्ति अभी भी ऐसे बचे हैं जो संकोच, झिझक, आलस्य, व्यस्तता आदि कारणों से समयदान की इच्छा रखते हुए भी ठीक तरह पूरी नहीं कर पाते। ऐसे सभी लोगों के लिए निम्नलिखित एक बहुत ही सरल तरीका है:

अपने परिवार के हर शिक्षित व्यक्ति को यह साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरणा करने में और हर अशिक्षित को पढ़कर सुनाने के लिए हमारे सूझवान बच्चे  एक घन्टे का समय दिया करें। परिवार निर्माण भी समाज  निर्माण ही है। इसी बहाने स्वयं ध्यानपूर्वक इन विचारों को पढ़ने/समझने का अवसर भी मिलेगा। परिवार को सुसंस्कृत बनाने के लिए जिस महत्वपूर्ण कर्तव्य का पालन अब तक नहीं बन पड़ा था वह अब बन पड़ेगा। अपने को और अपने परिवार को भी यदि “भावनात्मक उत्कृष्टता” की ओर मोड़ने का नियमित प्रयत्न किया जा सके तो यह एक बहुत बड़ी बात है। इसे देखने में तुच्छ किन्तु समाज की बहुत बड़ी सेवा माना जा सकेगा। यह पुरुषार्थ स्वयं को प्रत्यक्ष लाभ देने वाला कार्य है। इस दिशा में दिया गया समय, समाज के लिए, संसार के लिए ही नहीं, अपने और अपने परिवार के लिए भी श्रेयस्कर सिद्ध होगा।

गृह सदस्यों की रोटी, कपड़ा, मनोरंजन, दवादारु या पढ़ाई की व्यवस्था मात्र कर देने पर ही परिवार के प्रति अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व की इतिश्री नहीं हो जाती। हर विवेकशील और दूरदर्शी गृह संचालक का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने स्त्री-बच्चे, माता-पिता, भाई-बहिन, भतीजे आदि कुटुम्बियों के लिये गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत बनाने वाला वातावरण प्रस्तुत करे। इसके अभाव में परिवार वाले भले ही शरीर की दृष्टि से मोटे,पढ़ाई की दृष्टि से सुशिक्षित और पैसे की दृष्टि से सुसम्पन्न हो जावें,लेकिन यदि वोह भावनात्मक दृष्टि से पिछड़े रह जाते हैं तो वह स्वयं भी दुःखी रहेंगे और अपने साथियों को भी दुःख देंगे। जिनका “भावनात्मक परिष्कार (Emotional refinement)” नहीं हुआ वे न तो स्वयं जीवन का आनंद ले सकते हैं और न अपने साथियों को चैन से रहने दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में पल बढ़ रही संस्कार-रहित संतान बड़े होने पर अपने साथ ही दुष्टता का व्यवहार करती है और उनसे जो आशा रखी गई थी उसे धूलि में मिला देती है। 

यहां लिखी जा रही कोई भी बात Guess work पर आधारित नहीं है। अक्सर देखा भी गया है और देखा भी जा रहा है कि दुर्भावनायुक्त परिवारों में साक्षात नरक का वातावरण देखने को मिल रहा है। बहुत आवश्यक है कि ऐसी स्थिति का समय से पहले ही  उन्मूलन किया जाए। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रत्येक साथी  का कर्तव्य है कि वह यहां बताए जा रहे गुरुदेव के अमृतवचन को गृहण करे और भावी पीढ़ी के स्वर्गीय  निर्माण में अपना योगदान दे। यही कारण है कि इस मंच पर बार-बार मानवीय मूल्यों का स्मरण कराया जाता है। खुशी की बात है कि उसका यथासंभव पालन किया भी जा रहा  है। ज्ञानप्रसाद लेखों को पढ़ने के लिए, समझने के लिए, कॉमेंट करके ज्ञानप्रसार के लिए बार- बार आग्रह भी इसी उद्देश्य (परिवारों में स्वर्गीय वातावरण) से किया जाता है।

गुरुदेव बता रहे हैं कि स्कूलों में शिक्षा मिल सकती है,संस्कृति नहीं। संस्कृति केवल घर के वातावरण से ही उपलब्ध हो सकतीहै। Moral Science का सब्जेक्ट तो अनेकों स्कूलों में पढ़ाया जाता है लेकिन बच्चे उसे भी अंक प्राप्त करने की दृष्टि से पढ़ते है,अंकों की Unending अंधी दौड़ जो लगी है।अध्यापक कुछ भी पढ़ाते रहें, बाहर के लिए कुछ भी उपदेश देते रहें लेकिन घर का वातावरण जैसा होगा, परिवार के सदस्य उसी ढाँचे में ढलेंगे। इसलिए यह कार्य दूसरों के कन्धों पर नहीं छोड़ा जा सकता कि हमारे परिवार के छोटे या बड़े सदस्यों को सन्मार्ग पर चलाने की जिम्मेदारी कोई बाहरी व्यक्ति उठावे या सँभाले। यह कार्य,स्वयं ही करने वाला है और आवश्यक कार्यों से भी अधिक आवश्यक है। जो उसे कर सकेगा, वही परिवार का “भावनात्मक सृजन” कर सकने में सफलता प्राप्त करेगा। फलते-फूलते, हँसते-खेलते कुटुम्बियों के साथ स्वयं प्रसन्न रहेगा और उनके लिए स्वर्गीय जीवन जी सकने का पथ प्रशस्त करेगा।

घर में किस से क्या कहना है, यह अपनी समझ में न आता हो तो उस कठिनाई का हल भी हम इन पुस्तकों के माध्यम से करेंगे। जो कहना, बताना, सुनाना, सिखाना है, वह सब कुछ हम तैयार करेंगे। रसोई हम पकायेंगे, खाना और खिलाना आपका काम है। हम उस “क्रमबद्ध विचारधारा का सृजन” करेंगे जो सामान्य जीवनों में असामान्य भावना एवं प्रेरणा ओतप्रोत कर सके। उस विनिर्मित सामग्री को अपने और आपके परिजनों के गले उतारने का श्रम आप करें, तो यह दो पक्षीय प्रयत्न (To sided effort)  एक चमत्कारी परिणाम उत्पन्न कर सकता है।अगले पाँच वर्षों में हम अपने प्रिय परिजनों के परिवारों में अपने साहित्य के माध्यम से “एक परिवारिक शिक्षक” की भूमिका अदा करना चाहते हैं। कितना ही अच्छा होता कि हम आप  सबके साथ सशरीर रह सकते। 

अभी-अभी गायत्री तपोभूमि में शिक्षण शिविर हुआ था, करीब 200 स्वजन एकत्रित हुए  थे। साथ-साथ हँसते-खेलते इतने दिन परिजनों के साथ इतनी अच्छी तरह बीते कि उस आनन्द में व्यवधान पड़ने का समय आते ही हमारी तथा सब शिक्षार्थियों की भावनाएं उमड़ने लगीं, आँखें छलकने लगीं। यदि परिजनों के साथ हँसने-खेलने,सीखने-सिखाने, जीवन बिताने का वैसा अवसर सदा मिलता रहे तो आनन्द का कोई ठिकाना ही न रहे लेकिन यह तो आकाँक्षा मात्र है। ऐसा हो पाना संभव कहाँ हो सकता है? दूर-दूर बसे हुए लोग प्रारब्धवश दूर रहने के लिए ही विवश हैं। अभी तो इतना ही सम्भव है कि कागज़ों/साहित्य के माध्यम से भावनाओं का आदान-प्रदान होता रहे। इस प्रकार के प्रशिक्षण का एक क्रम पूरा न सही, अधूरा सही,किसी रूप में चलता ही रह सकता है। प्रस्तुत योजना इसी उद्देश्य को लेकर बनाई गई है।

बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों को कुछ फीस देनी पड़ती है, घर की साज संभाल रखने वाले बुड्ढों पर भी आखिर कुछ खर्च पड़ता ही है। हमारे प्रशिक्षण की फीस 10 नया पैसा प्रतिदिन होगा। पाँच वर्षों में इतनी छोटी सी राशि खर्च करके 1000 के लगभग पुस्तकों का एक सुसज्जित पुस्तकालय हम आपके लिए बनाकर रख देंगे। बाजारू स्तर पर, वस्तु की दृष्टि से यह एक अत्यन्त सस्ता किन्तु आवश्यक साहित्य है। यदि किसी को यह अनुपयोगी प्रतीत हो तो उतने ही मूल्य में बेचा  भी जा सकता है। मृत्यु पर अपने उत्तराधिकार में लोग मकान, जायदाद, सोना, चाँदी, नकदी आदि छोड़ जाते हैं। उसी में यदि यह अत्यन्त कम मूल्य में “संग्रहित भावनात्मक रत्न-राशि” भी घर वालों के लिए छोड़ दी जाय तो बहुत बड़ी बात होगी।

अक्सर घरों में लोग देव प्रतिमाएं स्थापित करते हैं। उनकी पूजा, आरती, धूप, दीप, नैवेद्य, फूल, भोग, प्रसाद, वस्त्र, शृंगार आदि में कम से कम 10 नया पैसा तो खर्च करते ही हैं।

इससे भी आध्यात्मिक आवश्यकता पूर्ण होगी और वे सब संभावनाएं बढ़ेंगी जो सकाम उपासना करने वाले अक्सर चाहते रहते हैं अर्थात ज्ञान के प्रतक्ष्य परिणाम साक्षात् दिखेंगें 

क्रमशः जारी- To be continued.

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कल   वाले  लेख  को  531 कमेंट मिले, 16  संकल्पधारिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। इस कीर्तिमान के लिए सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।


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