21 जनवरी 2025 का ज्ञानप्रसाद- सोर्स अखंड ज्योति जुलाई 1966
कल आरम्भ हुई ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला का आज मंगलवार को सभी साथियों के मंगल की कामना के साथ दूसरा लेख प्रस्तुत है।
कल वाले लेख का समापन भावनाशील परिजनों को एड्रेस करते किया गया था। इस लेख में संकेत दिया गया था कि “भावना का स्तर” शरीर के स्तर से कहीं बढ़ कर है। आज के लेख में बहुत ही सरल शब्दों में “भावना” का विश्लेषण किया गया है। गुरुदेव बता रहे हैं कि “भावना शरीर ही वास्तविक शरीर” होता है। गुरुदेव ऐसे भावनाशील परिजनों के लिए “कुछ विशेष” करने की बात कर रहे हैं।
परम पूज्य गुरुदेव उन लोगों की बात कर रहे हैं जिन्होंने उनके संकेतों के अनुसार बड़े से बड़े त्याग करने में कभी संकोच नहीं किया, जिधर मोड़ा उधर मुड़ते रहे, जो कहा सो मानते रहे,जिधर चलाया उधर चलते रहे और उस पर भी लोकोत्तर सद्भाव परम निःस्वार्थ भाव से प्रदान करते रहे हैं। अब गुरुदेव के ऋण से मुक्त होने का समय आ गया है। अगर ऋण मुक्त हो सकना संभव न हो तो कम से कम उनके द्वारा किए गए कार्य को किसी प्रकार तो मोड़ कर वापिस ही किया जाय। यह विचार गुरुदेव की अंतरात्मा को सदैव ही द्रवित करते रहते हैं कि वोह इस ऋण से स्वयं को कैसे मुक्त करें?
गुरुदेव बता रहे हैं कि इस लेख श्रृंखला में व्यक्त की गई भावना “अखंड ज्योति” पाठकों के लिए है।
आज का ज्ञानप्रसाद लेख अनेकों साथिओं में अश्रुधारा के प्रवाह को रोकने में असमर्थ हो सकता है क्योंकि जब भावना का सब्जेक्ट आता है तो ह्रदय के तार तो जुड़ते ही हैं।
गुरुकुल की आज की गुरुकक्षा में अपने गुरु के ह्रदय में उठ रही भावनाओं का व्यापार हो रहा है क्योंकि उन्होंने स्वयं को “प्यार का व्यापारी” कहा है। आइए इस “दिव्य व्यापार” में हम भी 1 %, 2% की ही सही, पार्टनरशिप कर लें। हमारा गुरु “पुरुष शरीर” होते हुए भी स्नेह और आत्मीयता की दृष्टि से नारी माता ही है।
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हमारे मन में भावनाएं उनके लिए उफनती हैं जिनकी पहुँच हमारे अन्तःकरण एवं भावना स्तर तक है।
“भावना शरीर ही वास्तविक शरीर होता है।”
हम स्थूल शरीर से जो कुछ भी हैं, भावना की दृष्टि से कहीं अधिक हैं। हम स्थूल शरीर से किसी की जो भलाई कर सकते हैं उसकी तुलना में अपनी भावनाओं, विचारणाओं का अनुदान देकर कहीं अधिक लाभ पहुँचा सकते हैं। हमारे अनुदान केवल वही परिजन ग्रहण कर पाते हैं जो भावनात्मक दृष्टि से हमारे समीप हैं, जिन्हें हमारे विचारों से प्रेम हैं, जिन्हें हमारी विचारणा, भावना एवं अन्तःप्रेरणा का स्पर्श करने में अभिरुचि है। ऐसे परिजनों के बारे में कहना चाहिए कि वे सही अर्थों में हमारे निकटवर्ती एवं स्वजन संबंधी हैं।
“इस लेख में परम पूज्य गुरुदेव ऐसे ही संबंधियों के बारे मे विशेष तौर से सोचने की बात कर रहे हैं,उन्हीं के लिए कुछ विशेष करने की बात कर रहे हैं।”
गुरुदेव बता रहे हैं:
हमारे परिवार में कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जिनका प्रेम,अनुग्रह एवं आत्मभाव हर दृष्टि से सच्चा है। व्यक्तिगत रूप से भी वे हमें अपने प्रिय से प्रिय स्वजन सम्बन्धियों की तरह ही प्यार करते हैं। आदान की प्रतिक्रिया प्रदान और ध्वनि की प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि होती है। हम ऐसे संबंधियों की बात कर रहे हैं जिनकी आत्मीयता जन्म जन्मान्तरों से हमारे साथ बँधी चली आ रही है और जो दूर रहते हुए भी निकटवर्ती लोगों से कहीं अधिक निकट हैं। ऐसे संबंधियों के प्रति हमारा मन भी इस “विछोह कल्पना” से भीग उठता है। वोह संबंधी जो इन दिनों हमारे अत्यन्त निकट हैं, अगले दिनों की परिस्थितियाँ उन्हें न जाने कहाँ और हमें कहाँ पटक देंगी। इस संसार में एक से बढ़कर एक कष्ट हैं लेकिन अपने प्रिय परिजनों का विछोह उन सबमें अधिक कष्टदायक है। इस कष्ट की कल्पना हमें बहुत ही विचलित करती है क्योंकि आखिर भावनाओं के सहारे ही तो हम अपने इस कलेवर को खड़े किये हुए हैं। हम एक दुर्बल मानव प्राणी ही तो हैं।
1940 से अब तक 26 वर्षों से जिन लोकोत्तर भावना सम्पन्न सहृदय स्वजनों की अनवरत आत्मीयता एवं श्रद्धा हमें प्राप्त होती रहती है उनके प्रति हमारे मन में कितनी अधिक ममता एवं कृतज्ञता है इसको लिखकर या कहकर नहीं बताया जा सकता। जो हमें गहराई तक जानते हैं और जितना भी समझ सके हैं उन्हें पता है कि “पुरुष शरीर” में होते हुए भी ममता,करुणा,स्नेह,वात्सल्य एवं आत्मीयता की दृष्टि से हमें “नारी/माता” कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। हमें “प्यार का व्यापारी” कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। हमने अपने परिजनों को अपरिमित प्यार दिया है और बदले में उस प्यार को असीम मात्रा में पाया भी है। अब जबकि हमारे स्थूल क्रिया कलाप का अध्याय बन्द होने जा रहा है तब हमारे मन में एक ही कसक निरन्तर उठती रहती है और वह यह कि हम किस प्रकार उस ऋण से स्वतंत्र हो सकें जो स्वजनों ने असीम श्रद्धा के साथ हमारे ऊपर प्रेम एवं विश्वास उड़ेलते हुए चढ़ाया है।
पिछले कई महीनों से एक ही विचार हमारे मन में निरन्तर घूमता रहता है कि जिस परिवार ने हमारे संकेतों के अनुसार बड़े से बड़े त्याग करने में कभी संकोच नहीं किया, जिधर मोड़ा उधर मुड़ते रहे, जो कहा सो मानते रहे,जिधर चलाया उधर चलते रहे और उस पर भी लोकोत्तर सद्भाव परम निःस्वार्थ भाव से प्रदान करते रहे हैं,यदि उनके ऋण से स्वतंत्र हो सकना संभव न हो तो कम से कम “समुचित प्रतिदान” अर्थात उनके द्वारा किए गए कार्य को किसी प्रकार तो मोड़ कर वापिस किया ही जाय। यह विचार हमारी अंतरात्मा को सदैव ही द्रवित करते रहते हैं कि हम इस ऋण से स्वयं को कैसे मुक्त करें?
ऐसे अनेकों लोग हैं जो भावनात्मक दृष्टि से हमसे जुड़े हुए हैं । इन लोगों के नाम और रूप हमारी आँखों के आगे चलते-फिरते गुजरते रहते हैं। हमारी भी इच्छा रहती है कि ऐसे लोगों की आत्मिक एवं भौतिक दृष्टि से बढ़ी चढ़ी सुसम्पन्नता एवं समृद्धि देखकर गर्व अनुभव करें लेकिन हमारी शक्ति अनेक दिशाओं में बिखरी रहने से उतनी साधना तपस्या बन नहीं पड़ती।
पाँच वर्ष बाद हमें इस दिशा में अधिक अवसर मिलेगा, तदनुरूप समर्थता भी बढ़ेगी। हमें न स्वयं की कामना है, न मुक्ति की। हमारी एकमात्र कामना यही है कि इस जन्म में जो भी हमारा आध्यात्मिक उपार्जन हुआ है उसे इस ऋण को चुकाने में ही लगा दें। भावनाशील परिजनों द्वारा जो आत्मीयता एवं श्रद्धा के रूप में हमें उपलब्ध हुआ है,उसे ब्याज समेत लौटा देने की हमारी कामना आज रह-रह कर उठ रही है। हमें विश्वास है कि कुछ समय बाद हमें कुछ शक्ति मिलेगी जिससे इस प्रकार ऋण से स्वतंत्र होकर हम अपने मन का भार हल्का कर लेंगे।
अगले 10 वर्षों में हमें क्या करना है, उसकी रूप रेखा अज्ञातवास काल में ही हमें बनाकर दे दी गई थी।
पाँच वर्ष ठीक उसी पटरी पर चलते हुए हो गए हैं। पाँच वर्ष और भी उसी क्रम से आगे चलना होगा। इसके बाद हमारे कार्यक्रम का क्या स्वरूप होगा, इसकी चर्चा अभी से करना अप्रासंगिक है। समयानुसार हर बात सामने आने वाली ही है।
इन पाँच वर्षों में भी हमें अनेक दिशाओं में अनेक कार्य करने हैं। उन सबका उल्लेख आज ही कर दिया जाय, यह आवश्यक नहीं है।
इन पंक्तियों में तो उतनी ही चर्चा करनी उचित है जिसका “अखण्ड-ज्योति” के पाठकों से सीधा सम्बन्ध हो।
हमें अपनी अन्तःप्रेरणा, भावना, अभिव्यक्ति, आकाँक्षा और शिक्षा अपने प्रेमी पाठकों के घरों में इस तरह छोड़ जानी है कि हमारा शरीर न रहने पर भी वह “एक ज्योतिर्मय दीपक” की तरह प्रकाशवान बनी रहे ताकि उनकी सन्तानें और सन्तानों की पीढ़ियाँ उससे प्रकाश एवं प्रेरणा ग्रहण करती रह सकें। हमारा “भावना शरीर” हर प्रेमी परिजन के समीप एक मूर्तिमान कलेवर की तरह विद्यमान रह सकना संभव हो सके तो जिस प्रकार हम आज वर्तमान शरीर द्वारा प्रेमी पाठकों का भावनात्मक निर्माण कर सकने में सफल हो रहे हैं उसी प्रकार आगे भी 100 वर्ष तक उनके परिवार की, प्रियजनों की सेवा करते रहें। ऐसा करने से हमारे ऊपर चढ़े हुए परिजनों के ऋण से कुछ सीमा तक मुक्त होना संभव हो सकता है।
हमारे इस “विचार रूपी शरीर-साहित्य” से केवल कुछ लोग ही लाभ उठाते रहें तो भी अनुचित नहीं होगा। यदि हर वर्ष लाभ उठाने वाले परिजनों की न्यूनतम संख्या प्रति महीना एक ही रहे तो एक वर्ष में 12 होगी, 100 वर्षों में 1200 हो जायगी।
एक घर में स्थापित हमारे “विचारों का ज्योति-दीप” यदि इतनी आत्माओं को प्रकाश दे सका, इससे हमें तो अपने श्रम की सार्थकता पर सन्तोष होगा ही, जिनसे हमने प्यार किया उनके स्वजन सम्बन्धी भी यह अनुभव करेंगे कि हमारे परिवार को जीवन विकास की प्रेरणा देने वाला कोई शिक्षक इस घर में, विचार शरीर से अभी भी सजीव की तरह निवास करता है, भले ही उसका स्थूल शरीर समाप्त हो गया हो।
लागत मूल्य के,न लाभ/न नुकसान की नीति पर आधारित अत्यन्त सस्ते और आकर्षक 20-20 नए पैसे लागत के पैंफलेट पिछले दिनों छपते रहे हैं। इनकी लोकप्रियता और उपयोगिता अधिक सिद्ध हुई है। कम पैसे की चीज़ कोई भी आसानी से खरीद सकता है। जिन्हें अवकाश नहीं मिलता वे भी काम की चीज़ थोड़े ही समय में पढ़ लेते हैं। बड़ी पुस्तक देखकर जो लोग पढ़ने से चकराते हैं, वे भी पढ़ लेने की अभिरुचि न होते हुए भी पढ़ने को तैयार हो जाते हैं। प्रचार का यह बहुत ही अच्छा साधन है। ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म का विस्तार करने के लिए इसी माध्यम का सहारा लिया है। कम पढ़े, गरीब और अपने से भिन्न मत रखने वालों तक उन्होंने अपनी बातें इन पैंफलेट के द्वारा सारे संसार में फैली दीं।
हमारा विचार भी इसी सस्ते माध्यम से व्यक्ति एवं समाज का नवनिर्माण करने वाले विचार जनमानस के अन्तराल तक व्यापक क्षेत्र में प्रविष्ट करा देने का है, इसलिए आगे इसी दिशा में अधिक श्रम करेंगे। अगले पाँच वर्षों में हमारा जन-जागरण का अधिकाँश साहित्य लघु पुस्तिकाओं, पैंफलेटों के रूप में ही प्रस्तुत किया जायगा। निबन्ध,कथा, जीवन-चरित्र और सभी माध्यमों को अपनाकर,इन पाँच वर्षों में सर्वसाधारण के उपयुक्त स्तर का इतना जीवन-साहित्य तैयार कर दिया जायगा कि उसमें प्रत्येक परिवार के लिए नवनिर्माण की बहुत कुछ सामग्री मिल सके।
To be continued
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