वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

ईश्वर से  मिलने और वार्तालाप करने  का स्थान। 

ईश्वरीय सत्ता पर आधारित लेख माला का यह अंतिम पार्ट है। यह टॉपिक इतना गहन चिंतन योग्य है कि इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करते समय पाठकों  के अंतःकरण में अवश्य ही  कई प्रकार के प्रश्न उठेंगें।  सबसे बड़ा प्रश्न तो हमारे शरीर में अंतःकरण के स्थान  का है।  कहाँ पर होता है अन्तःकरण? और हम अंतरात्मा से कैसे चिंतन  कर सकते हैं। इस विषय पर उठ रहे प्रश्नों को  समझने के  लिए अवश्य ही detailed study की आवश्यकता है।  इंटरनेट पर  इतना विस्तृत ज्ञानभंडार उपलब्ध है कि समय आने पर ही इस विषय पर चर्चा करना उचित ही होगा। अभी के लिए इस लेख में दिया गया ज्ञान भी कोई कम नहीं है।

अपने सहकर्मियों के साथ किये गए वायदे को निभाते हुए आज का ज्ञानप्रसाद बहिन सुमनलता जी द्वारा फॉरवर्ड की गयी रचना से आरम्भ होता है। 

लेख के साथ ही स्वर्गीय इंदुरानी जी को श्रद्धांजलि देती हुई 3:25 मिंट की वीडियो भी शामिल की गयी है। नमन करते हैं इस दिव्य आत्मा को। 

शब्द सीमा के कारण आज 24 आहुति संकल्प सूची प्रकाशित करने में असमर्थ हैं जिसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं। 

तो प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद।              

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ईश्वर कौन है ?

i)कौन चलाता है इस  दुनियां को ??? कहाँ है ईश्वर??

तुम नौ महीने तक माँ के पेट में थे, फिर भी जिए।  

हाथ-पैर भी न थे कि भोजन कर पाएं  ,फिर भी जिए।

श्वास लेने का भी उपाय न था, फिर भी जिए।

नौ महीने माँ के पेट में तुम थे, कैसे जिए?

ii)तुम्हारी मर्जी क्या थी? किसकी मर्जी से जिए?

फिर माँ के गर्भ से जन्म हुआ, जन्मते ही, जन्म के 

पहले ही माँ के स्तनों में दूध भर आया, किसकी मर्जी से?

अभी दूध को पीने वाला आने ही वाला है कि दूध तैयार है,किसकी मर्जी से?

iii) गर्भ से बाहर होते ही तुमने कभी इसके पहले

साँस नहीं ली थी माँ के पेट में

तो माँ की साँस से ही काम चलता था

लेकिन जैसे ही माँ से बाहर होने का अवसर आया,

तत्क्षण तुमने साँस ली, किसने सिखाया?

पहले कभी साँस ली नहीं थी, किसी पाठशाला में गए नहीं थे,

किसने सिखाया कैसे साँस लो? किसकी मर्जी से?

iv) फिर कौन पचाता है तुम्हारे दूध को,

जो तुम पीते हो,और तुम्हारे भोजन को?

कौन उसे हड्डी,मांस,मज्जा में बदलता है?

किसने तुम्हें जीवन की सारी प्रक्रियाएँ दी हैं?

कौन तुम्हें सुला देता है जब तुम थक जाते हो ?

और कौन तुम्हें जगा  देता है जब तुम्हारी

नींद पूरी हो जाती है ?

v) कौन चलाता है इन चाँद,सूर्य को?

कौन रखता है इन वृक्षों को हरा? 

कौन खिलाता है अनंत-अनंत रंगों और गंधों के फूल ?

vi) इतने विराट का आयोजन जिस स्रोत से चल रहा है,

एक तुम्हारी छोटी सी जिंदगी, उसके सहारे न चल सकेगी?

थोड़ा सोचो, थोड़ा ध्यान करो।

अगर इस विराट के आयोजन को,तुम चलते हुए देख रहे हो,

कहीं तो कोई व्यवधान नहीं है, सब सुंदर चल रहा है, सुंदरतम चल रहा है;

ईश्वर दिखता नही बल्कि दिखाता है,ईश्वर सुनता नही बल्कि सुनने की शक्ति देता है

संसार में कोई भी वस्तु बिना बनाये नही बनती, अतः संसार भी किसी ने अवश्य बनाया है

                         “यही तो ईश्वर है।”

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विवेकवान व्यक्ति तत्वचिंतन की गहराई में उतरकर इस निष्कर्ष पर पहँचतें  है कि ब्रह्माण्ड में व्याप्त  दिव्य चेतना ही ईश्वर है। मनुष्य और इस ईश्वर का मिलन स्थल मानवी अन्तःकरण ही हो सकता है। व्यक्ति की समाविष्ट दिव्यचेतना का केन्द्रस्थल उसका अन्तःकरण है। सजातीय के साथ ही सजातीय का मिलना सम्भव है। आत्मिक चेतना ही ईश्वरीय चेतना के समकक्ष है। अस्तु, उन्हीं दोनों का पारस्परिक मिलन ही सम्भव हो सकता है। हाड़-माँस से बनी शरीर सत्ता और उसके साथ जुड़ी हुई इन्द्रियाँ स्वयं जड़-पदार्थों को ही देख सकती या अनुभव कर सकती है। यदि ईश्वर जड़ पदार्थों का बना, अचेतन स्थूल वस्तुओं जैसा रहा होता, तो ही आँख से उसे देखना और कान से उसकी आवाज सुनना सम्भव हो सकता था। जिस प्रकार एक मनुष्य दूसरे मनुष्य  को देखता है या अपनी बात  कहता है और उसकी सुनता है, उस स्तर का दर्शन अथवा वार्तालाप सम्भव नहीं हो सकता।

अर्जुन भगवान कृष्ण से ऐसा ही आग्रह तो  कर रहा था। उसने भगवान् से ज़िद लगाई हुई  थी कि मुझे भगवान का दर्शन करना है। उसकी ज़िद पर भगवान् ने कहा  कि यह दर्शन चर्मचक्षुओं से तो सम्भव नहीं हो सकता, इसके लिए उसे दिव्य चक्षु दिये गये, दिव्यचक्षु का अर्थ है दिव्यदर्शन, तत्त्वदर्शन, विवेक। उसी के माध्यम से अर्जुन ने एक विराट विश्व-ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे। वैसा ही हमारे लिए भी सम्भव हो सकता है। 

यदि प्रत्यक्ष ईश्वर देखना हो, तो यह विश्व उसी का स्वरूप देखा जा सकता है और उसके अन्तराल में सन्निहित विश्वात्मा की परमात्मसत्ता के रूप में, भाव-सम्वेदना के क्षेत्र में सहज ही अनुभव किया जा सकता है।

उससे वार्तालाप करना हो तो सत् शास्त्रों के स्वाध्याय में, महामानवों के सत्संग-सान्निध्य में, तत्त्वदर्शन के चिंतन-मनन  में सम्भव हो सकता है। टेलीफोन वार्ता की तरह भगवान से वार्तालाप करने की और टेलीविजन पर चलते-फिरते ईश्वर को देखने की निरर्थक उड़ाने उड़ना छोड़कर ही हम वास्तविकता के निकट पहुँच सकते है। भ्रम-जंजाल गढ़कर तो हम अपनेआप को अवास्तविकता के ऐसे जाल में अधिकाधिक फँसाते चले जाएँगे, जिसमें बालू से तेल निकालने जैसे निरर्थक प्रयासों की तरह निराशा ही हाथ लगेगी। बालू से तेल निकालने  का अर्थ होता है कोई  अतिकठिन कार्य करना। कोई सुखद कल्पना गढ़ लेना और ईश्वर के साथ क्रीड़ा-कल्लोल, हास्य-विलास करते रहना एक बात है और यथार्थता का होना दूसरी। सम्भव है कल्पना की उड़ाने कभी हमारा  भावनात्मक समाधान कर सकें लेकिन वास्तविकता के क्षेत्र में कोई बड़ी उपलब्धि नहीं  मिल सकेगी, यह भी सत्य है।

कहाँ हो सकता है मनुष्य और परमेश्वर का मिलन ?

ईश्वर का दर्शन करना  उचित भी है और आवश्यक भी,लेकिन उस लाभ का अर्थ तभी पूर्ण होता है जब उपयुक्त स्थान और उपयुक्त आधार को अपनाया जाए। ईंट, गारे, संगमरमर आदि  से बने भव्य मंदिर तो जगह-जगह मिल जायेंगें लेकिन मन-मंदिर यानि  “मानवी अन्तःकरण” ही एकमात्र  स्थान है जहाँ उत्कृष्ट भावनाओं एवं विचारणाओं के रूप में “मनुष्य और परमेश्वर का मिलन” सम्भव हो सकता है। उसी मिलन में वार्तालाप की भी पूरी सम्भावना विद्यमान है। मिलन और वार्तालाप की दोनों आवश्यकताएँ एक ही स्थान पर, एक ही समय पूरी हो सकती है। इसके लिए अपने अन्तःकरण को छोड़कर अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं है। प्रतीक पूजा का आधार इसीलिए लिया जाता है कि हमारी भटकी हुई  चेतना  ईश्वर के सान्निध्य में पहुँचे, इसके लिए श्रद्धा उगाये और भगवान को पहचानने  के लिए अभ्यास जुटाये। इससे आगे की मंजिल पूरी करने के लिए तो हमें बहिरंग जड़-जगत में से अपने को समेटकर अन्तरंग क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए ही कदम बढ़ाने पड़ते है। देवालयों में  स्थापित पत्थरों की  प्रतिमाएँ केवल आरम्भिक श्रद्धा-जागरण की दृष्टि से ही उपयुक्त होती हैं। यह प्रतिमाएं  ईश्वर की प्राप्ति, उसके दर्शन और वार्तालाप का उद्देश्य पूरा नहीं करा सकतीं, उस उद्देश्य के लिए तो मनुष्य उसी तीर्थ में जाना पड़ेगा, जहाँ ईश्वरीय प्रकाश की सीधी किरणें आती है और जिसे अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। सच्चा देवमंदिर अपना अंतःक्षेत्र ही है, उसी में अन्तःकरण रूपी सजीव देवप्रतिमा प्रतिष्ठापित है। इसी मर्मस्थल से संपर्क बनाकर हम अपने अध्यात्म लक्ष्य तक पहुँच सकते है। मर्मस्थल शरीर का वह भाग होता है जिसे अत्यधिक पीड़ा होती है।  उदाहरण के तौर पर हम हृदय को शरीर का मर्मस्थल कह सकते हैं क्योंकि जो पीड़ा ह्रदय को होती है उसके आगे शरीर की पीड़ा तो कुछ भी नहीं है। आत्म-साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन के महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए हमें इस सुनिश्चित स्थान के साथ ही गहन संपर्क बनाना होगा।

हम सबके  भीतर ही वह सत्ता विद्यमान है, जो हमारा श्रेष्ठतम मार्गदर्शन कर सके और समस्त समस्याओं का हल प्रस्तुत कर सके। अभीष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटा सकना भी पूर्णतया उसकी सामर्थ्य के अंतर्गत है। इस सत्ता केन्द्र का नाम अन्तःकरण है। मनुष्य और ईश्वर का जब कभी,जितना कुछ भी संपर्क बनेगा, इस केन्द्र स्थल पर ही  बनेगा। आत्मा और परमात्मा की प्रणयक्रीड़ा  का, प्रेम-सम्बन्ध के अनुभव करने का  सुसज्जित एकान्त उद्यान यही है। वस्तुतः ईश्वर की सत्ता और महत्ता अत्यन्त व्यापक है।

निम्नलिखित पैराग्राफ को समझने के लिए साथ में दिए गए चित्र से सहायता मिल सकती है: 

सुविस्तृत ब्रह्माण्ड में ग्रह, नक्षत्र में, एक से दूसरे की दूरी कितनी अधिक है, इसके गणना-अंक देखते ही बुद्धि चकरा जाती है और उनकी भ्रमण कक्षाओं के क्षेत्र की कल्पना की जाए, तो बुद्धि को प्रतीत होगा कि इतने विस्तार का चिन्तन तक उसके लिए असम्भव है। मानवी जानकारी से बाहर भी न जाने कितनी निहारिकाएँ और होंगी, उनके भीतर भिन्न-भिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ और शक्तियाँ काम कर रही होंगी? उनमें रहने वाले जड़-चेतन पदार्थों की स्थिति में कितनी भिन्नता और कितनी विशेषज्ञता होगी, उन सबका नियन्त्रण-संचालन का सूत्र सँभालने वाला कितना कार्य किस प्रकार सम्पन्न करता होगा? उसकी स्वयं की स्थिति कितनी सुविस्तृत होगी? इन सब प्रश्नों पर जब विचार करना आरम्भ करते है, तो तत्त्वदर्शी मनीषियों की तरह हमें भी अचिन्त्य, अनिवर्चनीय, अनादि, अनंत, नेति-नेति आदि कहकर अपनी चिंतनात्मक असमर्थता और तुच्छता स्वीकार करनी पड़ती है। नेति नेति का अर्थ हमने अपने किसी पूर्वप्रकाशित लेख में भी लिखा था, आज फिर बता रहे हैं:  नेति नेति (न इति न इति) एक संस्कृत वाक्य है जिसका अर्थ है ‘यह नहीं, यह नहीं’ या ‘यही नहीं, वही नहीं’ या ‘अन्त नहीं है, अन्त नहीं है’। ब्रह्म या ईश्वर के संबंध में यह वाक्य उपनिषदों में अनंतता सूचित करने के लिए आया है। उपनिषद् के इस महावाक्य के अनुसार ब्रह्म शब्दों के परे है। समग्र ईश्वर को प्राप्त करना तो दूर,उसके  विस्तार की  कल्पना तक कर सकना हमारे लिए  संभव  नहीं है।

ब्रह्मवेत्ता ईश्वरप्राप्ति के  प्रयास में निरत रहे हैं  और उन्होंने तत्त्वज्ञान के मार्मिक रहस्य के बारे में यही कहा है कि ईश्वर से संपर्क बनाने का एकमात्र सही स्थान अन्तःकरण ही हो सकता है।

आमतौर से हमारी अभिरुचि बाहरी जगत में बिखरी पड़ी रहती है। बाहरी चिन्तन, भोग विलास  में व्यस्त मनुष्य के लिए वह सम्भव हो  ही नहीं हो पाता कि ईश्वर को प्राप्त कर सकना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। ईश्वरप्राप्ति से  बड़ी सम्पदा एवं उपलब्धि दूसरी कोई हो ही नहीं सकती। विश्व की समस्त विभूतियों के मालिक  के साथ connect होने पर उसकी समस्त सत्ता से भी अपना संबंध बना जाता है। जो कोई भी इस  स्थिति में पहुँच गया, उसे और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता । इस स्थिति की गरिमा को देखते हुए तत्त्वदर्शी ईश्वरप्राप्ति का माहात्म्य वर्णन करते रहे है और विचारवान लोगों को उस उपलब्धि के लिए प्रयत्न करने की प्रेरणा देते रहे हैं । स्वाध्याय-सत्संग, मनन-चिन्तन, योग-तप आदि के समस्त साधन, उपचार ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य पूरा करने के लिए ही बनाये गये हैं 

यह ईश्वर कहाँ मिले? कैसे मिले? इस प्रश्न का उत्तर बालबुद्धि के प्राथमिक विद्यार्थियों को पूजापरक बाह्योपचारों की ओर इशारा करके दिया जाता है। इन्हें तीर्थयात्रा, देव-दर्शन नदी-स्नान व्रत-उपवास दान-पुण्य कथा-कीर्तन विधान-कर्मकाण्ड आदि के साधन बताये जाते है। पर जिन्हें विवेकजन्य प्रौढ़ता प्राप्त हो गई, उन्हें दूसरी बात बतानी पड़ती है। उन्हें अन्तःभूमिका में प्रवेश करने, अन्तःकरण को टटोलने के लिए कहा जाता है। वस्तुतः ईश्वरीय सत्ता के  जुड़े हुए अनुदानों को प्राप्त कर सकना अन्तःकरण के इस सजीव तीर्थ में ही सम्भव होता है, जिसकी तुलना में बहिरंग जगत के समस्त साधन-अनुदान तुच्छ जान पड़ते है।

समापन।  जय गुरुदेव 


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