वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अरणि मंथन

आज का लेख आरम्भ करने से पूर्व हम अपने सहकर्मियों का ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं जो इतनी सक्रियता, नियमितता,श्रद्धा  और अनुशासन के साथ ऑनलाइन ज्ञानरथ को सफल करने में कोई भी कसर नहीं छोड़  रहे हैं। अनुशासन की बात करें तो एक दिन सरविन्द भाई साहिब व्यस्तता के कारण कुछ असक्रिय रहे और  message भी न कर पाए, तो उनके अंतःकरण ने कचोटा और उन्होंने लिखा: आज हम ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार में अपनी सहभागिता सुनिश्चित नहीं कर पाए और न ही व्यस्तता को अवगत कर पाए जो कि नियम के विरुद्ध है ,इसके लिए हम आपसे क्षमा प्रार्थी हैं “ इसी तरह का उदाहरण आदरणीय कौरव दम्पति का दिया जा सकता है  जो आजकल युगतीर्थ शांतिकुंज और केदारनाथ यात्रा पर हैं।  वह हमें हमें पल पल  की गतिविधि से अवगत करा रहे हैं। ऐसा परस्पर  विश्वास और आदर-सम्मान किसी के कहने और विवश करने से नहीं develop होता, इसे कमाना पड़ता है -one has to earn it .

तो आरम्भ करते हैं आज का लेख। 

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अरणि मंथन के लिए गुरुदेव  ने पलाश और शमी वृक्ष की कुछ सूखी लकड़ियां दी। यह दोनों वृक्ष पुरातन  धंर्मिक ग्रंथों में  बहुत ही पवित्र माने गए हैं। पलाश वृक्ष के लाल पुष्पों के कारण इस वृक्ष “जंगल की आग” भी कहा गया है। ये समिधाएं गुरुदेव ने  अपने तखत के पास से निकाल कर दी। पता नहीं कहां सहेज कर रखी हुई थीं। घियामंडी निवास  से चलते हुए माता जी इन्हें लेती आई थीं। गुरुदेव  ने कहा कि यज्ञकुंड में बाहर से अग्रि का आह्वान नहीं करना है। दियासलाई या पत्थर रगड़कर अग्नि प्रकट नहीं करना है। यह विधान लौकिक प्रयोजनों के लिए किये जाने वाले अग्निहोत्र कर्म के लिए तो ठीक है लेकिन प्राण प्रतिष्ठा और विशिष्ट आध्यात्मिक प्रयोगों के लिए सूक्ष्म से ही अग्नि स्थापना होगी। उन्होंने कहा कि यज्ञकुंड में दी गई समिधाएँ रखी जाए। उनके बीच में घी में डूबी हुई रुई से बनी बत्ती रख दी जाय।

दूसरे प्रकार की अग्नि हिमालय से लाई गई थी। उसके बारे में किसी को पता नहीं था कि वह कहाँ सुरक्षित थी और कब लाई गई? यज्ञ आरंभ होने की पूर्व संध्या को अनायास ही एक अज्ञात साधु महाराज  तपोभूमि पहुँचे । उन्हें  किसी ने भी आते हुए नहीं देखा था, यद्यपि शाम को 200-250  लोग वहाँ मौजूद थे। साधु महाराज पर लोगों की दृष्टि   उस समय ही  पड़ी जब वह आचार्यश्री के निकट दिखाई दिए । ऐसा भी कह सकते हैं कि  साधु महाराज ने ही सब लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा।

पुरानी किंतु साफ सुथरी चीवर धारण किए वह साधु अपनी उपस्थिति से ही आकर्षित कर रहे थे । चीवर पतला सा एक ही  कपड़े का टुकड़ा होता है  जिससे पूरा शरीर ढ़का  जाता है, बौद्ध भिक्षु अक्सर इसे धारण करते हैं क्योंकि वह सिले हुए कपड़े पहन कर विलासता दिखाने में  विश्वास नहीं रखते।  सामान्य से दिखने वाले उस संन्यासी के व्यक्तित्व में अनूठी आभा (aura) थी। ऐसी आभा कि उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। 

पटना से आये केदारनाथ सिंह, अयोध्या के जानकी शरण दास, जयपुर के चंद्रकांत, पूना के रमाकांत जोशी आदि कार्यकर्ताओं का मानना था कि यह साधु  महाराज अचानक ही प्रकट हुए हैं  उन साधु के पास एक कमंडल था। सामान्य से बड़े आकार के इस कमंडल में हल्की  सी आंच के साथ आभा निकल रही थी। आचार्यश्री ने उन साधु महाराज  को देखा और देखते ही उठ खड़े हुए। अभी तक जिनके लिए बैठना भी संभव नहीं था, उनका तनकर खड़े हो जाना वहां मौजूद लोगों के लिए सुखद आश्चर्य था। आचार्यश्री ने साधु महाराज  को झुककर प्रणाम किया और साधु महाराज  ने कहा कि यज्ञशाला में सिद्धभूमि की इस अग्नि का आधान भी किया जाना है। अरणि मंथन से प्रकट हुई अग्नि यज्ञाग्नि तो होगी ही लेकिन   यह सिद्ध अग्नि है। इसे कभी मंद नहीं पड़ना चाहिए, न ही ग़ायब  होना चाहिए। इस अग्नि को  अखंड रहना चाहिए।

कमंडल से निकाल कर साधु महाराज ने वह अग्नि एक पात्र में रखी। यह दृश्य वहाँ मौजूद साधक अहोभाव से देख रहे थे। एकाध ने उठकर पूछा भी कि महाराजश्री कहां से पधारे हैं। आचार्यश्री ने कहा “कि उस जगह से जहाँ से ऋषिसत्ताएँ इस यज्ञ का संचालन कर रही हैं। हिमालय के जिस अगम्य प्रदेश में सिद्धजन सैकड़ों वर्षों  से तप कर रहे हैं, वहीं के प्रतिनिधि के रूप में इन विभूति का आगमन हुआ है।”

अग्नि के संबंध में उन्होंने विशेष कुछ नहीं बताया। बाद में कभीकभार चर्चा के दौरान ही अंतरंग परिजनों को स्फुट विवरण दिये। जब आचार्यश्री ने हिमालय के सिद्धलोक की पहली यात्रा की थी तो अपनी मार्गदर्शक सत्ता के साथ इन्ही ऋषिसत्ताओं  के पुण्य प्रदेश में रहे थे। उस रहस्य लोक की यात्रा करते हुए, आचार्यश्री ने सूक्ष्म देहधारी ऋषि सत्ताओं को हवन करते देखा था। 30  से 80  वर्ष की उम्र वाले 24  संन्यासी उस अगम्य  घाटी में यज्ञ और अग्निहोत्र कर्म में संलग्न थे। मंत्रोच्चार की शैली और स्वर से ही लगता था कि यह बहुत पुराने युग की बात है। उन यतियों की काया हृष्टपुष्ट और स्वस्थ थी। यति संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ होता है –“यत्न करना,प्रयास करना, चेष्टा करना, दमन करना ,नियंत्रण करना, संयत करना, अनुशासित करना ” इत्यादि । इस हिसाब से देखें तो  संयमी , जितेंद्रिय , पवित्र , धर्मात्मा , दृढ़ प्रतिज्ञ , स्वसंयत , प्रतिबद्ध, महाव्रती , मर्यादित व्यक्ति को यति कहा जाता है । ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत रखा है, मन पर काबू कर रखा है और आत्मा का स्वामी है, यति कहलाने का अधिकारी है । 

दादागुरु  ने ही आचार्यश्री को बताया था कि ये ऋषिसत्ताएं हैं। विश्व में सद्धर्म का पोषण करने के लिए तप अनुष्ठान में निरत रहती हैं। लोक में व्याप्त पतन और दारिद्रय के निवारण के लिए ही यहाँ तप कर रहे हैं। उस यात्रा में ही मार्गदर्शक सत्ता ने संकेत कर दिया था कि इसी तरह का एक साधनात्मक उपक्रम भविष्य में बनने वाले केन्द्र में भी चलाना है। 

अग्नि स्थापन अरणि मंथन से प्रकट हुई अग्नि को चार यज्ञकुंडों में स्थापित किया गया। उससे पहले बीच में स्थित प्रमुख कुंड में सिद्ध लोक से लाई अग्नि स्थापित की जानी थी। आचार्यश्री अपने आसन से उठे। पैरों में खड़ाऊं पहनी और धीरे-धीरे चलते हुए यज्ञशाला तक आये। माताजी भी उनके साथ चल रही थीं। उनके हाथ में दिव्य अग्निवाला पात्र था। कुंड के पास बैठकर आचार्यश्री ने समिधाएं चुनी। उन्हें कुंड में स्थापित किया और मंत्रोच्चार के साथ अग्निदेव का आह्वान किया। यज्ञशाला के आसपास तमाम साधक खड़े हुए थे। वे भी मंत्रोच्चार कर रहे थे। स्वस्तिवाचन और रक्षा विधान आदि उपचार पहले ही संपन्न किये जा चुके थे। आचार्यश्री और माताजी ने अग्नि का आह्वान किया। “स्वद्यौरिव भूम्रा पृथिवीववरिम्णा -अग्नये नमः आवाहयामि स्थापयामि” का उच्चारण  करते हुए कपूर और घी में भीगी हुई रुई की मोटी बत्ती के बीच अग्नि रखते हुए अग्नि का आधान कर दिया। दोनों ने गंध, अक्षत, पुष्प आदि से अग्निदेव की आराधना की। स्तुति, आराधना करते ही स्थापित अग्नि प्रज्वलित हो उठी। स्तवन के बाद समिधाधान और आज्याहुति दी गई। घी की सात आहुतियां देते ही ऊर्मियां बिखेरती हुई लपटें उठने लगीं। नीली, पीली और लाल रंग की ज्वालाओं को जागने में कुछ क्षण भी नहीं लगे। इनमें धुंए की एक भी रेखा नहीं थी। निर्धूम अग्नि को यज्ञाचार्यों ने अग्निदेव के प्रसन्न होकर आहुतियां ग्रहण करने का प्रतीक बताया है। इस अग्निस्थापना के बाद शेष कुंडों में भी अरणिमंथन से अग्नि प्रकट की गई। उन कुंडों में मंत्रशक्ति का प्रभाव परिलक्षित होता था। शेष चार कुंडों में भी समिधाएं रखी गईं। इन कुंडों में अग्नि आधान के लिए विशेष सावधानी बरती गई। शमी और पलाश की लकड़ियों को रगड़कर ही अग्नि प्रकट की जानी थी। उससे कुछ चिंगारियां प्रकट होती और उन्हें ही अग्नि में परिवर्तित होना था। प्रकट हुई चिंगारियों को सहेजने के लिए रुई, कपूर, घी आदि की व्यवस्था के अलावा कुंड में पतली और सूखी लकड़ियां रखी गईं। पंडित लालकृष्ण पंड्या इस विद्या में पारंगत थे। उन्होंने प्रयत्न और सावधानी से समिधाधान किया। वे आचार्यश्री से बार-बार कह रहे थे कि चकमक पत्थर का प्रबंध भी रखा जाए। लकड़ियों के रगड़ने से अग्नि प्रकट होने और यज्ञकुंड के जागृत होने की बातें कथा पुराणों में बहुत मिलती हैं। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि रुई, घी, शोरा, तेजाब आदि का प्रबंध किये बिना अग्नि के अपनेआप प्रकट होने का आयोजन किया जा सकता है। आयोजन इसलिए कि उनके अनुसार अग्नि अपनेआप प्रकट नहीं होती। वह दृश्य रचने के लिए उपाय किये जाते हैं। पंडितजी चार पांच बार अपनी बात कह चुके थे लेकिन आचार्यश्री ने हर बार अपना विश्वास दोहरा दिया था।

शब्द सीमा के कारण आज का लेख यही पर समाप्त करने की आज्ञा चाहते हैं और आप प्रतीक्षा कीजिये आने वाले बहुत ही रोचक संस्मरण की जिसमें गुरुदेव पंड्या जी की बात को गलत साबित कर ही देंगें, जय गुरुदेव। 

To be continued: 

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण के साथ इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन  ऊर्जा का संचार कर दे  और यह ऊर्जा आपके दिन को  सुखमय बना दे। धन्यवाद् जय गुरुदेव। हर लेख की भांति यह  लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। 

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आज की संकल्प सूची बहुत ही यूनिक है। केवल संध्या कुमार बहिन जी ही 24 अंक प्राप्त करके गोल्ड मैडल विजेता हैं उन्हें हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई।सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनका हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद्


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