वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव से हमारे सम्बन्ध कैसे हों ? भाग 1 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रथा के अनुसार सोमवार को एक नवीन आध्यात्मिक लेख शृंखला का शुभारम्भ किया जाता है। आज भी सोमवार है, सप्ताह का  प्रथम दिन है, नवीन ऊर्जा से ओतप्रोत गुरुकक्षा के सभी सहपाठिओं का अभिवादन है। 

आज प्रारम्भ हो रही लेख शृंखला ,जिसका सारांश हमने 15 जनवरी 2025 के लेख की भूमिका में दिया था, आज फिर से निम्नलिखित शब्दों में रिपीट कर रहे हैं : 

जुलाई 1966 में प्रकाशित लेख का शीर्षक “अखण्ड-ज्योति परिजनों के लिए कुछ विशेष- हमारे और आपके संबंध आगे क्या हों? इसका अंतिम निर्णय इसी मास  हो जाना चाहिए” स्वयं ही बहुत कुछ कह रहा है। लगभग 10 पृष्ठों के इस लेख ने, जिसमें परम पूज्य गुरुदेव अपना  ह्रदय खोलकर बता रहे हैं, हमें इतना प्रभावित किया है कि आने वाले दिनों में दैनिक दिव्य सन्देश भी इसी से बनाने की योजना है। सच में ऐसा गुरु किसी सौभाग्यशाली को ही प्राप्त हो पाता है।

5 जून 1960 को परम पूज्य गुरुदेव वंदनीय माता जी को सारा कार्यभार सौंप कर अज्ञातवास पर गए और लेख में वर्णित जिस 10 वर्ष के टाईमटेबल की बात कर रहे हैं इसी साधना पर आधारित है। जिस वीडियो में 5 जून की बात की गयी है उनका लिंक भी यहाँ दे रहे हैं।    https://youtu.be/0OtmBr8j5Tk?si=eu2gHUMy6ae01HCj

इसी भूमिका के साथ गुरुकुल की आज की आध्यात्मिक गुरूकक्षा का शुभारम्भ होता है जहाँ हम सभी शिष्य गुरुचरणों में गुरुज्ञान का अमृतपान  करेंगें।

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“अखण्ड-ज्योति परिजनों” के साथ हमारे सीधे संबंध की अवधि अब धीरे-धीरे घटती चली जा रही है। अज्ञातवास से लौटने के पश्चात् हमें 10 वर्ष काम करने के लिए मिले थे। जिनमें से 5 वर्ष 1965  की  गुरु पूर्णिमा को पूरे हो चले, अब 5 वर्ष की अवधि और शेष है जिसमें हम अपने प्रिय परिजनों के साथ उस तरह का संबंध और रख सकेंगे जैसा कि अब तक रखते रहे हैं।

हमारी जीवन प्रक्रिया एक विशेष महती शक्ति की प्रेरणा एवं पथ प्रदर्शन में चलती रही है। जब से होश सँभाला है, उसी प्रकाश एवं मार्गदर्शन में हमारे पैर निर्बाध गति से चलते रहे हैं। हमने इस प्रेरणा को ही सर्वोपरि माना है। वही हमारे लिए ईश्वरीय सन्देश और ब्रह्मवाक्य है।

जब भी कोई आत्म समर्पण करता है तो उसके बाद उसके पास दूसरा कोई मार्ग हो ही नहीं सकता। यहाँ पर परम पूज्य गुरुदेव अर्जुन का उदाहरण देते हैं और निम्नलिखित प्रसिद्ध दोहे से समझाते हैं:

अर्जुन ने “शिष्यस्तेऽहं साधिमाँत्वाँ प्रपन्नं” के रूप में योगेश्वर भगवान कृष्ण के समक्ष आत्म समर्पण किया था और “करिष्ये वचनं तव” की प्रतिज्ञा की थी, तब कहीं जाकर  उसका शिष्यत्व सार्थक हो सका। 

आइए ज़रा इस दोहे को समझने का प्रयास करें। 

“शिष्यस्तेऽहम्”-अपने कल्याणकी बात पूछने पर अर्जुन के मनमें यह भाव पैदा हुआ कि कल्याण की बात तो गुरु से ही पूछी जाती है, सारथि से नहीं । इस बात को लेकर अर्जुन के मन में जो रथवान का भाव था, जिसके कारण वोह भगवान् को आज्ञा दे रहे थे कि “हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये”, वह भाव मिट जाता है और अपने कल्याण की बात पूछने के लिये अर्जुन भगवान् के  शिष्य हो जाते हैं। रथवान का भाव जाते ही अर्जुन कहते हैं, “महाराज! मैं आपका शिष्य हूँ, शिक्षा लेने का पात्र हूँ, आप मेरे कल्याण की बात कहिये।”

साधिमाँत्वाँ प्रपन्नं”गुरु तो उपदेश दे देंगे, जिस मार्ग का ज्ञान नहीं है, उसका ज्ञान करा देंगे, पूरा प्रकाश दे देंगे, पूरी बात बता देंगे लेकिन ज्ञान के  मार्ग पर तो शिष्य को स्वयं ही चलना पड़ेगा। अपना कल्याण तो शिष्य को स्वयं ही करना पड़ेगा। मैं तो ऐसा नहीं चाहता कि भगवान् उपदेश दें और मेरा कल्याण हो जाए,उससे मेरा काम नहीं चलेगा। अतः अपने कल्याण की जिम्मेवारी मैं अपने पर क्यों रखूँ ?गुरु पर ही क्यों न छोड़ दूँ ? माँ के गर्भ में पल रहा  शिशु  केवल माँ के दूध पर ही निर्भर रहता है, जो माँ खाती है उसी से उसका पोषण होता है। यहाँ तक कि माँ जैसा सोचती है,उसका भी शिशु पर प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति में केवल दूध पर पलने वाला शिशु यदि बीमार हो जाए तो उसकी बीमारी दूर करने के लिये ओषधि स्वयं माँ को ही खानी पड़ती है, बालक को नहीं। माँ-शिशु के इस उदाहरण के आधार पर अर्जुन कहते हैं कि मैं भी इसी तरह सर्वथा,पूर्णतया  गुरु की ही शरण में हो जाऊँ, गुरु पर ही निर्भर हो जाऊँ, तो मेरे कल्याण का पूरा दायित्व गुरु पर ही आ जायेगा , स्वयं गुरु को ही मेरा कल्याण करना पड़ेगा।

इस भाव से अर्जुन कहते हैं: मैं आपकी शरण में  हूँ,मुझे शिक्षा दीजिये। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण के बाद अर्जुन “करिष्ये वचनं तव” कहते हैं जिसका अर्थ है मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा क्योंकि मैंने पूर्ण रूप से आपकी शरण को स्वीकार किया हुआ है। 

यहां पर हो रही चर्चा को  समझने के लिए निम्नलिखित चार Steps समझने की आवश्यकता है : 

1.सबसे पहले स्टैप  में अर्जुन भगवान से “धर्म” के विषय में पूछते हैं। 

2.दुसरे स्टैप  में अर्जुन अपने “कल्याण” के लिये प्रार्थना करते हैं। 

3.तीसरे स्टैप  में अर्जुन “शिष्य” बन जाते हैं।

4.अंत में चौथे स्टैप में अर्जुन “शरणागत” हो जाते हैं। 

अगर हमसे कोई प्रश्न पूछता है तो हमारे पास “बताने” और “न बताने” की पूर्ण स्वतंत्रता है। दुसरे स्टैप में प्रश्न का उत्तर देना “कर्तव्य” हो जाता है क्योंकि अगर प्रश्न बताया ही नहीं तो कल्याण कैसे होगा। कल्याण के लिए शिष्य तो बनना ही होगा। जब गुरु को शिष्य के समर्पण और पात्रता का आभास हो जाता है तो गुरु पर शिष्य को कल्याण का मार्ग बताने का विशेष दायित्व आ जाता है। चौथे स्टैप में जब  गुरु देख लेते हैं कि शिष्य मेरा  शरणागत हो गया  है तो उसे शरणागत का उद्धार करना ही पड़ता है।

गुरु-शिष्य की इस प्रक्रिया को समझाने के बाद गुरुदेव अपने बारे में निम्नलिखित शब्दों में बताते हैं :   

हमारा सारा जीवनक्रम इसी प्रक्रिया के आधार पर बिता देने के उपरान्त अब शेष थोड़े से समय में कोई भिन्न रीति-नीति अपनाई भी नहीं जा सकती। जब से होश सँभालने की स्थिति हुई तभी से मार्गदर्शक सत्ता ने हमारे जीवन की बागडोर सँभाल ली, हमसे चौबीस वर्ष के चौबीस महापुरश्चरण करवाए,गायत्री विद्या का विश्वव्यापी प्रचार कराया, वेद, उपनिषद्, दर्शन, स्मृतियाँ, पुराण आदि प्राय सभी धर्मग्रन्थों का अनुवाद  एवं प्रसार कराया, धर्म तंत्र का पुनर्जागरण एवं संगठन के लिए कार्य करवाया और युग निर्माण योजना की विचार क्रान्ति का जनमानस में बीजारोपण कराया।  

गुरुदेव बताते हैं कि उपरोक्त यह सभी कार्य एक से एक बढ़कर महत्व के हैं। हमारी व्यक्तिगत क्षमता एवं योग्यता इतनी नगण्य है कि अपने बलबूते पर इनमें से एक की भी सफलता संभव नहीं थी। शंख में अपनी निज की सामर्थ्य बजने की नहीं, उसे कोई दूसरा बजाता है तभी ध्वनि होती है। हमारी स्थिति भी शंख जैसी रही है। हमने अपने को खाली रखा है ताकि प्रेरक सत्ता को उचित रीति से काम करने को अवसर मिल सके। बस, हमारी इतनी ही  विशेषता है। यदि इतना भी न होता, अपनी व्यक्तिगत कामनाओं, तृष्णाओं एवं महत्वाकाँक्षाओं को मन में भरे रखा होता तो संभवतः उस प्रेरक सत्ता के लिए भी यह कठिन होता कि हमारे शरीर से कुछ काम करा सकते । 

सच्चे शिष्य अपने को खाली ही रखते हैं और अपने प्रकाशबिन्दु के सामने आत्म समर्पण करने का साहस तो कर ही लेते हैं। हमें एक अध्यात्म-मार्ग के पथिक के रूप में यही करना था, यही किया भी है। शिष्यत्व की पात्रता न होती तो बेचारे गुरुदेव भी आखिर क्या कर पाते?

इसलिए हमें अपना स्थूल कार्यक्रम, लोकसंपर्क हमारे मार्गदर्शक द्वारा निर्धारित की गयी अवधि में ही पूरा करना होगा। इसमें आनकानी का तो कोई प्रश्न उठ ही नहीं सकता।

ऐसी स्थिति  में परिजनों को वियोग-जन्य व्यथा सहन करनी पड़ सकती है। इस स्थिति के निवारण के लिए हम इतना ही कह सकते हैं कि आखिर हम भी तो  मनुष्य ही  हैं। हमारी मनोभूमि में स्नेह, वात्सल्य, ममता एवं आत्मीयता की कमी नहीं। जिन परिजनों को निज के कुटुम्बियों से अधिक स्नेह दिया और सद्भाव पाया है उनसे पृथक होना कष्टदायक न हो, ऐसी बात नहीं,लेकिन कई बार मनुष्य इतना विवश होता है कि  कुछ भी करने में असमर्थ हो जाता है। इस विछोह में हमारी भी विवशता ही है।

इस बचे हुए समय में हम परिजनों के घरों में अपनी एक स्मृति छोड़ जाना चाहते हैं। शरीर से पृथक हो जाने के बावजूद  भी भावना रूप से अपने आत्मीयजनों के घरों में देर तक बैठे रहने की हमारी आन्तरिक अभिलाषा है। 

प्रत्येक मनुष्य की तरह हमारे भी दो शरीर हैं, एक हाड़ मांस का,चलता फिरता स्थूल शरीर और दूसरा विचारणा एवं भावना वाला शरीर। हाड़ मांस से परिचय रखने वाले करोड़ों परिजन  हैं। लाखों ऐसे भी हैं जिन्हें किसी प्रयोजन के लिए हमारे साथ कभी संपर्क करना पड़ा है।अपनी उपार्जित तपश्चर्या को हम निरन्तर एक सहृदय व्यक्ति की तरह बाँटते रहते हैं। विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों एवं उलझनों में उलझे हुए व्यक्ति किसी दल-दल में से निकलने के लिए हमारी सहायता प्राप्त करने आते रहते हैं। अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनका भार हल करने में कोई कंजूसी नहीं करते। इस  संदर्भ में अनेक व्यक्ति हमारे साथ अस्थाई सा संपर्क बनाते हैं  और प्रयोजन पूरा होने पर, काम निकलने पर, उस संपर्क को समाप्त कर देते हैं। कितने ही व्यक्ति साहित्य से प्रभावित होकर पूछताछ एवं शंका समाधान करने के लिए हमारे पास आते हैं। कितने ही आध्यात्मिक साधनाओं के गूढ़ रहस्य जानने के लिए,कई अन्यान्य प्रयोजनों से आते हैं। इनकी सामयिक सेवा कर देने से हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है। ऐसे परिजनों के बारे में न तो हम अधिक सोचते हैं और न ही उनकी कोई शिकायत/चिन्ता करते हैं।

आज के लेख का समापन हम यहीं पर करने की आज्ञा चाहते है क्योंकि कल वाले लेख में ऐसे परिजनों की चर्चा करेंगें जो गुरुदेव से भावनात्मक स्तर पर जुड़े हैं।  शरीर के स्तर  से भावना का स्तर कहीं ऊँचा है। 

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शनिवार  वाले  लेख  को 493 कमेंट मिले, 12  संकल्पधारिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। 


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