वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

युग निर्माण के लिए उत्तराधिकारिओं की तलाश-भाग 2 

“अखंड ज्योति” की रजत जयंती पर दिसंबर 1964 में इसी पत्रिका में प्रकाशित लेख में परम पूज्य गुरुदेव “प्राणवान उत्तराधिकारिओं की तलाश” की चर्चा कर रहे हैं। इस तलाश को 1965 की बसंत पंचमी पर और भी  सक्रीय बनाने की बात कर रहे हैं। संयोग से 2025 की बसंत पंचमी भी कुछ दिनों में आने वाली है, अगर हम कहें कि ऐसे लेख की रचना इस समय पर होना गुरुवर का निर्देश ही है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 

आदरणीय अरुण वर्मा जी ने बिल्कुल सही कमेंट किया है कि यह लेख हम सबके लिए ही लिखा गया है। 

परम पूज्य गुरुदेव के ही शब्दों में खरे-खोटे की पहचान, पात्रता आदि की चर्चा हम सबके लिए एक स्पष्ट मार्गदर्शन है। उनके अनुसार हमारे प्रतिनिधि केवल वही लोग हो सकते हैं जिनकी निष्ठा बातों से नहीं काम से ही परखी जाती है क्योंकि  जो निष्ठावान् हैं उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है | हमारे लिए हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं । लोक सेवा की कसौटी पर जो खरे उतर सकें, ऐसे ही लोगों को परमार्थी माना जा सकता है। “आध्यात्मिक पात्रता” इसी कसौटी पर परखी जाती है।

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक एक सदस्य के लिए यह स्वर्ण अवसर है कि इस वर्ष की बसंत पंचमी को गुरुचरणों में अपने श्रद्धासुमन अर्पण करके अपनी पात्रता का प्रमाण दे सके क्योंकि गुरु का आशीर्वाद ऐसे निष्ठावान साधकों को ही मिलेगा। 

कल प्रकाशित होने वाली वीडियो गायत्री परिवार कनाडा के संचालक आदरणीय राकेश शर्मा जी पर शांतिकुंज द्वारा सुरभित स्मृतियाँ के अंतर्गत फिल्माई गयी है, हमारे लिए यह एक गर्व का विषय है। 

इन्हीं शब्दों के साथ गुरुकुल की आध्यात्मिक गुरुकक्षा में आज का गुरुज्ञान प्राप्त  करने गुरुचरणों में समर्पित होते हैं।

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आजकल हम ऐसे ही अपने प्राणवान् उत्तराधिकारी हूँढ़ने में लगे हैं । जहाँ भी “अखण्ड ज्योति” के सदस्य हैं उन सभी स्थानों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करना चाहते हैं । इन प्रतिनिधियों पर युग निर्माण के अनुरूप चेतना उत्पन्न करते रहने का उत्तरदायित्व रहेगा । हमारे जीवन का बाह्य कार्यक्रम भी यही रहा है। हमारे उत्तराधिकारी भी अपनी परिस्थितियों के अनुसार इन्हीं गतिविधियों को अपनाएंगे । वे अपनी रोजी-रोटी कमाते हुए भी अपने निजी आवश्यक कार्यों की तरह जन-जीवन में चेतना उत्पन्न करने के लिए यदि थोड़ा भी प्रयास करते रहेंगे तो निश्चय ही उस क्षेत्र में आशाजनक प्रकाश जलता और बढ़ता रहेगा ।

इन दिनों जहाँ भी “अखण्ड-ज्योति” जाती है उन स्थानों में  हम अपने प्रतिनिधि नियुक्त कर रहे हैं। एक प्रधान प्रतिनिधि और दो सहायक प्रतिनिधि होने से तीन व्यक्तियों की यह मण्डली पर्याप्त हो सकती है । जहाँ अधिक सक्रिय लोग हैं, वहाँ यह संख्या पाँच तक भी बढ़ सकती है । जहाँ परिवार  के लोग बहुत कम हैं, वहाँ एक प्रतिनिधि से भी काम चल सकता है। नवनिर्माण की विचारधारा को प्रसारित करने और उस प्रभाव क्षेत्र में आये हुए लोगों को सङ्गठित रखने तथा सक्रिय बनाने के लिए इन प्रतिनिधियों को विशेष रूप से प्रयत्न करना होगा ताकि जहाँ अपना बीजांकुर पहुँच चुका है, वह सूखने न पाए बल्कि  खाद पानी प्राप्त करके बढ़े, विस्तार करे, फले-फूले और धीरे-धीरे सुरम्य उद्यान के रूप में परिणत हो जाय । 

यों अनेक स्थानों पर युग निर्माण की शाखाएँ स्थापित की गई हैं। उनके कार्यकर्ता भी चुने और बदले जाते रहते हैं । यह चलता ही रहना चाहिए । नये-नये लोगों को काम सिखाना, उन्हें पदाधिकारी बनाकर अनुभव एवं श्रेय देना आवश्यक है। उनमें अदला-बदली  होते रहने में कोई हर्ज नहीं है। 

कष्ट पीड़ित कामनाग्रस्त, ऋद्धि सिद्धि के आकांक्षी, स्वर्गमुक्ति के फेर में पड़े हुए, विरक्त, निराश व्यक्ति भी हमारे सम्पर्क में आते रहते हैं । ऐसे कितने ही लोगों से हमारे सम्बन्ध भी हैं लेकिन उनसे कुछ आशा नहीं  रहती । जो अपने निजी गोरखबन्धे में इतने अधिक उलझे हुए हैं कि अपने लाभ के लिए, ईश्वर, देवता, साधु, गुरु किसी का भी उपयोग करने का ताना-बाना बुनते रहते हैं, वे बेचारे सचमुच दयनीय हैं जो केवल लेने के लिए ही लालायित हैं । ऐसे निर्धन लोगों के पास देने के लिए है ही क्या ? देगा वही जिसका हृदय विशाल है, जिसमें उदारता और परमार्थ की भावना विद्यमान है। समाज, युग, देश, धर्म, संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदायित्व की जिसमें कर्तव्य बुद्धि जम गई होगी वही लोक कल्याण की बात सोच सकेगा और वही कुछ कर सकेगा। आज के व्यक्तिवादी, स्वार्थपरायण युग में ऐसे लोग चिराग लेकर ढूंढ़ने पड़ेंगे। 

पूजा उपासना के क्षेत्र में अनेक व्यक्ति स्वयं को अध्यात्मवादी कहते मानते रहते हैं लेकिन उनकी सीमा केवल स्वयं तक ही सीमित है। इसलिए सही मायनों में  वे भी “संकीर्ण व्यक्तिवादी” ही कहे जा सकते हैं । संकीर्ण सोच (छल-कपट और बुरी सोच) वाले व्यक्ति अपना महत्व नहीं समझते हैं। वे अपने जीवन को यूं ही नष्ट करते रहते हैं और धीरे-धीरे अपने अंदर की उन शक्तियों को गंवा बैठते हैं जो उन्हें प्रगति की श्रेष्ठता तक ले जा सकती हैं। ये शक्तियां वैसी ही हैं, जैसे किसी मोटर में पेट्रोल होता है। बिना पेट्रोल के मोटर नहीं चल सकती, उसी प्रकार आध्यात्मिक प्रगति के बिना मनुष्य के लिए आत्मिक प्रगति संभव नहीं है। इसलिए कहा गया है कि  “ज्ञान-साधना श्रेष्ठता तक पहुंचाने का माध्यम है।”

भूमि  को जोतकर उसमें खाद, पानी डालकर उपजाऊ बनाया जाता है। उपजाऊ भूमि पर लगाया गया उद्यान ही  फलता-फूलता है। ठीक उसी  प्रकार परिष्कृत मनोभूमि पर उपासना का बीजारोपण किया जाता है, तभी बोई हुई फसल लहलहाती है।

गुरुवर बता रहे हैं कि हमारी परम्परा, पूजा उपासना की अवश्य है लेकिन व्यक्तिवाद (Individualism) की नहीं है । अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और परमार्थ की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा एवं परमार्थी को खरा कहा है। अखण्ड ज्योति परिवार में दोनों ही प्रकार के खरे-खोटे लोग मौजूद हैं। अब इनमें से उन खरे लोगों की तलाश की जा रही है जो हमारे हाथ में लगी हुई मशाल को जलाये रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधे पर लदे हुए बोझ को हल्का करने में अपना हाथ लगा सकें। ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे। इस छांट में जो लोग आ जायेंगे उनसे हम आशा लगाये रहेंगे कि मिशन का प्रकाश एवं प्रवाह आगे बढ़ाते रहने में उनका श्रम एवं स्नेह मिलता रहेगा। 

हमारे गुरु ने अपनी अनन्त अनुकम्पा का प्रसाद हमें दिया है। अपनी तपश्चर्या और आध्यात्मिक पूंजी का भी एक बड़ा अंश हमें सौंपा है। अब समय आ गया कि हमें भी अपनी “आध्यात्मिक कमाई” का वितरण अपने पीछे वालों को करना होगा लेकिन यह क्रिया अधिकारी पात्रों में ही की जायगी। यह पात्रता हमें भी परखनी है और वह इसी कसौटी पर परख रहे हैं कि किस के मन में लोक सेवा करने की उदारता विद्यमान है। 

अब यही कसौटी उन लोगों के लिए काम आयेगी जो हमारी “आध्यात्मिक पूंजी”के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत करना चाहेंगे।

आगामी बसन्त पंचमी से गायत्री उपासना की कुछ प्रक्रिया कुछ विशेष व्यक्तियों को आरम्भ कराने जा रहे हैं। इसमें हमारा व्यक्तिगत सहयोग और अनुदान भी उन साधकों को मिलेगा। यों साधारण साधना सभी उपासक करते हैं । पंचकोशी उपासना भी कितने ही लोग कर रहे हैं । यह शास्त्रीय विधान है जिसे बताना हमारे लिए आवश्यक ही था । कुछ विशेष उपलब्धियां इस क्षेत्र में ऐसी भी हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए साधकों को स्वयं तो प्रयत्न करना ही होगा, साथ ही हमारा प्रयास भी कम न होगा। दोनों मिलकर ही उसे सफलता एवं पूर्णता की मंजिल तक पहुंचा सकेंगे। 

सेवा और साधना दोनों ही हमारे कार्यक्षेत्र रहे हैं । हम जानते हैं कि जिनके कन्धों पर हम अपनी परम्परा को आगे ले जाने का उत्तरदायित्व सौंपें वे दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से निष्ठावान् हों । उपासना की भाँति ही उन्हें लोकसेवा में भी अभिरुचि हो । एकांगी अभिरुचि वाले व्यक्ति हमारी दृष्टि से आधे अध्यात्मवादी हैं । उन्हें एक टाँग का, एक हाथ का, एक आँख का अर्धांग पीड़ित ही कहा जायगा । फौज में डाक्टरी मुआयने के बाद  “फिट” युवक ही भर्ती होते हैं । हमारा उत्तराधिकारी,हमारे प्रतिनिधि वे लोग ही होंगे जो साधना में ही नहीं लोकसेवा में भी समुचित अभिरुचि लेंगें  । 

युग निर्माण योजना इसी प्राथमिक परीक्षा के रूप में हमने अपने परिजनों के सम्मुख प्रस्तुत की है । उस कसौटी पर खरे-खोटे सहज में, परख में और पकड़ में आते चले जा रहे हैं ।

इन दिनों उसका अन्तिम निराकरण होने जा रहा है । हमने अपने लोकसेवा कार्यकाल के “अखण्ड-ज्योति” के जीवन के 25 वर्ष पूरे करते ही यह कदम उठाया है कि अपने सहयोगी विशिष्टि कार्यकर्ताओं की अन्तरंग गोष्ठी अलग से विनिर्मित करना आरम्भ कर दें और जो परिपक्व लोग हों उनके कन्धों पर वह सब कुछ सौंपना आरम्भ कर दें जो आज हमें करना है, प्रश्न केवल कुपात्र  की परख का है। सो उसके लिए आरम्भिक जाँच की जा रही है। जो उपयुक्त सिद्ध होते जायेंगे उन्हें अपनी व्यक्तिगत अभिरुचि के साथ आध्यात्मिक प्रगति के क्षेत्र में बढ़ना उतनी तत्परता के साथ आरम्भ कर देंगे जितनी कि संभव होगी ।

इस प्रयोजन के लिए “अखण्ड ज्योति” के सदस्यों से आवश्यक पूछताछ आरम्भ कर दी है। अलग से परिपत्र भेजकर यह मालुम किया जा रहा है कि किस स्थान पर किन्हें  प्रतिनिधि नियुक्त किया जाय। जहाँ भी अखण्ड- ज्योति पहुंचती होगी वहाँ हमें अपने प्रतिनिधियों  की नियुक्ति करनी है। कम से कम एक तो हर जगह होगा। जहाँ अधिक संख्या में सदस्य हैं वहाँ तीन, जहाँ बहुत अधिक सदस्य हैं वहाँ पाँच तक का एक प्रतिनिधि मण्डल रह सकेगा | अपने स्थानों में वे नवनिर्माण के लिए हमारे प्रतिनिधि के रूप में कार्य करेंगे और अपनी व्यक्तिगत उपासना को बढ़ाते हुए उसी प्रकार आध्यात्मिक मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त करेंगे जैसा कि हमें प्राप्त करने का सौभाग्य मिलता रहा है। 

इतिश्री, जय गुरुदेव 

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