वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

हमारे शरीर में “मन” की जगह कहाँ है ?

हमारे समर्पित साथिओं को स्मरण होगा कि 2021 में आदरणीय अनिल मिश्रा जी की प्रेरणा से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से “मनोनिग्रह” विषय पर  30 लेखों की भारी भरकम लेख श्रृंखला प्रस्तुत की गयी थी, साथिओं के कमैंट्स ने इसे सच में भारी भरकम बना दिया था। इस श्रृंखला के अमृतपान के बाद “मन से सम्बंधित” किसी भी प्रश्न के प्रति कोई शंका नहीं रहनी चाहिए लेकिन क्या करें विज्ञान-अनुसन्धान-अन्वेषण की बैकग्राउंड होने के कारण अनेकों जिज्ञासाएं उठती रहती हैं। 

बार-बार प्रश्न उठता रहता है कि “मन जिसे हम दिल भी कहते हैं” मानव शरीर में कहाँ वास करता है। दिल यानि ह्रदय तो एक बायोलॉजिकल ऑर्गन है जिसका कार्य रक्त संचार है, फिर हम क्यों कहते हैं कि “मन” कर रहा है कि यूरोप में Holidaying   करें यां आज “दिल” कर रहा है कि यूरोप में Holidaying  करें। क्या मन और दिल एक ही हैं ? क्या “मन” व्यवाहरिक भाषा में ही प्रयोग किया जाता है। अवश्य ही यह “दिल/ह्रदय” से अलग है। तो फिर क्या मन है क्या ?

हॉस्पिटल के बेड से इस जिज्ञासा की उत्पति हुई और Quora platform से कुछ समाधान हुआ जो साथिओं के समक्ष बड़े ही आदर सम्मान के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। अनेकों Posts  देखीं/स्टडी कीं  लेकिन आदरणीय दिनेश श्रीवास्तव जी की पोस्ट से हमारी जिज्ञासा का कुछ-कुछ समाधान होता दिखा। दिनेश  जी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं और सीधा आज की आध्यात्मिक गुरुकक्षा को ओर चलते हैं। 

आज का प्रज्ञागीत सुप्रसिद्ध गायक एवं कवि प्रदीप की 1964 की वीर भीमसेन मूवी की रचना है जिसमें विधि का विधान अटल बताया गया है।  

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मानव मस्तिष्क अदभुत क्षमता का स्वामी है। यही वोह क्षमता है जो मनुष्य को चिंतन-शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि,भाव, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि में सक्षम बनाती है।

सामान्य भाषा में मन शरीर का वह “हिस्सा या प्रक्रिया (प्रक्रिया?)  है जो किसी ज्ञातव्य को ग्रहण करने, सोचने और समझने का कार्य करता है। मानव मस्तिष्क का यह एक महत्वपूर्ण एक  है।

“मन” को दिल ( जो कि एक ऑर्गन है) से अलग करके देखा जाए तो यह एक प्रक्रिया ही है, मस्तिष्क में उठ रहे “विचार” ही तो हैं। मन को विचार आया कि हवाई यात्रा की जाए, यह विचार मस्तिष्क में ही तो उठा है। 

मन की स्टडी “मनोविज्ञान (Psychology)” नामक ज्ञान की शाखा द्वारा की जाती है। मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) मनोविज्ञान की ही शाखा है जिससे “मन” के अन्दर छुपी उन जटिलताओं को जाना जाता है जो मनोरोग एवं मानसिक स्वास्थ्य में व्यवधान का कारण बनते हैं। Psycho-treatment से मानसिक स्वास्थ्य को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया जाता है।

सामाजिक मनोविज्ञान (Social Psychology)  किसी व्यक्ति द्वारा विभिन्न सामाजिक परिस्थितयों में उसके मानसिक व्यवहार का अध्ययन करती है। शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology)  उन सारे पहलुओं का अध्ययन करता है जो किसी व्यक्ति की शिक्षा में उसके मानसिक कार्यों  के द्वारा प्रभावित होते हैं। साधारण भाषा में “मन” उसे कहते हैं जिसके द्वारा सभी क्रियाकलाप क्रियान्वित होते  हैं । 

अंतर्मन/अंतरात्मा मनुष्य में  विघुत तरंगें  उत्पन्न करने वाला बिन्दु है जहां से “मनुष्य  के जीवन का उचित मार्गदर्शन” होता है। दूसरा विघुत तरंग बिन्दु “मन” है जो किसी की भी बातों में आ जाता है । “मन” ही  है जो अनेक प्रेम प्रसंग में आकर्षित होता है, यही क्रोध को जन्म देता है, छोटी-छोटी बातों में गुस्सा करता है, यही मन लालची होता है, यही मन परिवार से प्यार करता है, यही मन धन-दौलत,नाम, शोहरत,प्रसिध्दी प्राप्त कर घमण्डी या अहंकारी बनाता है। 

इसलिए मनुष्य को चाहिए कि इस “मन” को हराकर इसके भीतर जो अंतर्मन है, उस तक पहुंचा जाए । अंतर्मन ही है जो मनुष्य को सदैव सत्य मार्ग दिखाता है, परमात्मा से जोड़ता है, जो सुख शांति का आनंद देता है ।

जो मनुष्य “मन” को तृप्त करने के चक्कर में लगा रहता है वह प्रायः दुःखी ही रहता है । ऐसा मनुष्य संसारिक जीवन के कर्तव्य, उत्तरदायित्व व उद्देश्य की पूर्ति के लिए उलझा  रहता है। जब वह अंतर्मन तक पहुंच जाता है तो सारे दुःखों का नाश हो जाता है। 

“मन” ही है जो मनुष्य को अंतर्मन तक पहुचने से रोकता है। मन को वश में करने के लिए ज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। अंतर्मन में पहुंच जाना मुक्ति है, मोक्ष है। इसलिए तो कहा गया है मोक्ष के बाद  देश-दुनिया, परिवार, समाज के दुःख-सुख से कोई फर्क नहीं पड़ता। स्वयं के  दुःख-सुख से भी कोई फर्क नहीं पड़ता । ऐसी स्थिति पहुंचते ही मनुष्य सदैव खुश व आनंदित रहता है।

सारा खेल तो “मन के नाटक” का ही है। असली सुख तो “आत्मा का सुख” है जिससे मनुष्य चिर-आनंदित रहता है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं के दिमाग को “मन के अंतर्मन भाग” से जोड़ने का प्रयास करे। अंतर्मन में “स्वयं की चेतना” को स्थापित कर देने पर संसारिक दुःख से कोई फर्क नहीं पड़ता, न गरीबी, न बदसूरती का, न अपमान का, न, परिवारक सदस्य/मित्र/ प्रियजन की मृत्यु का दुःख होता है। प्रेमिका/पत्नी धोखा दे भी तो कोई दुःख नहीं होता। देश-दुनिया,समाज में अशांति हो, युद्ध हो,अराजकता हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हर चीज में असफलता हो जाए फिर भी दुःख नहीं होता। अमीरी/प्रसिद्धि/ज्ञानी सौन्दर्ययुक्त होने पर भी अहंकार नही होता। पत्नी परिवार अच्छे हों, सुखी हों तो भी कोई महत्व नहीं होता है। 

परमानंद के लिए इंग्लिश में अनेकों शब्द प्रयोग किए जाते हैं जैसे कि Ecstasy (मदहोशी) Jubilant, Bliss, Enthusiasm,Zeal आदि। 

इन सभी शब्दों का एक ही अर्थ निकलता है जो परम पूज्य गुरुदेव के अति महत्वपूर्ण संदेश में समाहित है, “ गूंगे का गुड़” एक ऐसी स्थिति जो केवल अंतर्मन में उतर कर ही अनुभव की जा सकती।

फ्रायड नामक मनोवैज्ञानिक ने बनावट के अनुसार मन को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया था :

सचेतन (Conscious): यह मन का लगभग दसवां हिस्सा होता है, जिसमें स्वयं तथा वातावरण के बारे में जानकारी रहती है। व्यक्ति दैनिक कार्यों के लिए मन के इसी भाग को व्यवहार में लाता है।

अचेतन(Subconscious): यह मन का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती। यह मन की स्वस्थ एवं अस्वस्थ क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। इसका बोध व्यक्ति को आने वाले सपनों से हो सकता है। इसमें व्यक्ति की मूल-प्रवृत्ति से जुड़ी इच्छाएं जैसे कि भूख, प्यास, यौन इच्छाएं दबी रहती हैं। मनुष्य मन के इस भाग का सचेतन इस्तेमाल नहीं कर सकता। यदि इस भाग में दबी इच्छाएं नियंत्रण-शक्ति से बचकर प्रकट हो जाएं तो कई लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं जो बाद में किसी मनोरोग का रूप ले लेते हैं।

अर्धचेतन या पूर्वचेतन: यह मन के सचेतन तथा अचेतन के बीच का हिस्सा है, जिसे मनुष्य चाहने पर इस्तेमाल कर सकता है, जैसे स्मरण-शक्ति का वह हिस्सा जिसे व्यक्ति प्रयास करके किसी घटना को याद करने में प्रयोग कर सकता है।

“मन” यानि  मस्तिष्क में उठ रहे विचार इतनी तीव्र गति से यात्रा करते हैं कि आधुनिक तकनीकया मशीन भी उसकी  बराबरी नहीं कर सकते । हवाई किलों की रचना  इसी “मन” में होती है।  

प्रायः स्त्री व पुरूषों के मध्य प्रेम के शुरूवाती समय में उनका “मन” ही  एक दूसरे के पास जाता है जिसके कारण उन्हें प्रेमी के होने का एहसास होता है । इसी मन के कारण कोई स्त्री व पुरुष हर जन्म में एक दूसरे के पति पत्नी बनते हैं क्योंकि उनका मन उन्हें खोज ही लेता है और हम सब मनुष्यों का “अवचेतन मन” एक दूसरे से जुड़ा है इसलिए जिस मनुष्य को जिसके साथ जैसा करना है वैसा करता है। 

“देखा जाए तो हमारा अंतर्मन  “विधि के विधान” के अनुसार चलता  है” जैसे किसी स्त्री को हर जन्म में पतिव्रता का पालन करना  है तो उस स्त्री के प्रति कोई भी पुरूष आकर्षित नहीं होगा।  मात्र उसका हर जन्म का पति ही आकर्षित होगा और उसके पति को भी पवित्र रहना है तो विश्व में ऐसा महौल ही नहीं बनेगा जिसके कारण वह किसी से भी प्रेम प्रसंग या विवाह कर ले। यही अवचेतन मन सम्पूर्ण समाज को स्वतः चला रहा है और स्वयं का मन से किसको मित्र बनना है किसको शत्रु बनना है, किसे प्रेम प्रसंग करना है ये सब इच्छा उत्पन्न करता है। विश्व के सभी मनुष्यों के अंतर्मन को ज्ञात है  कौन कैसा है, कौन दुष्ट सज्जन व सामान्य मनोस्थिति वाला है । इसलिए अत्याधिक चिंतन मनन करने पर स्वयं का अंतर्मन पूरी तरह से जागृत हो जाता है जिसे ज्ञात हो जाता है कि किस मनुष्य की जिन्दगी कैसे घटित हुई होगी। इसका जन्म कैसे-कैसे है इस जन्म में ज्ञान का स्तर कैसा है। 

मनुष्य का अवचेतन मन प्रकृति से जुड़ा हुआ है इसलिए प्रकृति भी स्वतः मानवीय जीवन को संचालित करती है इसमें जीव-जन्तु, पशु-पक्षी,नदी, पहाड़। बादल आदि हैं। किसी को मृत्यु देना है तो जीव-ं जन्तु सूक्ष्म जीव भी उस पर हमला कर देते है या आकाशीय बिजली गिर जाती है। किसी को नहीं मारना है तो समुद्र की लहरें भी छोड़ देती हैं। अनेकों बार देखा गया है कि स्त्री व पुरुष के मध्य प्रेम की शुरुआत वर्षा ऋतु में ही  होती है क्योंकि “प्रकृति ही स्त्री व पुरुष का रूप लेकर उनके जीवन को आनंदित करती है ।” सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ; लगी आज सावन की फिर वोह झड़ी है आदि रोमांटिक गीतों में श्रावण मास में नवविवाहितों का एक दूसरे की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है। इसी आकर्षण के प्रति संयम बरतने के लिए नववधू को मायके रहने की भी प्रथा है। 

आज के लेख का यहीं पर समापन होता है, कल एक और नवीन जानकारी लेकर प्रस्तुत होंगें, लेकिन जाते-जाते परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस का स्मरण कराना  अपना कर्तव्य समझते हैं। 

जय गुरुदेव 

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कल वाले  लेख  को 365   कमेंट मिले, 8  संकल्पधारिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।


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