वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

2024 की सर्जरी के बाद ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रकाशित होने वाला छठा  Full length लेख

Aristotle (अरस्तु) का एक महान कथन है, “Everything happens for a reason”, पूर्वप्रकाशित लेखों का पुनः प्रकाशन इस कथन को सार्थक करता दिख रहा है। न हमारी सर्जरी होती, न हम अपने साथिओं के सुझाव का पालन कर पाते और न हम अपने ही द्वारा लिखे गुरूसाहित्य का संशोधन कर पाते। हमारे साथिओं का  ह्रदय इतना विशाल है कि हमारे द्वारा की जा रही सभी त्रुटियों को नज़रअंदाज़ करते हुए हमारा सम्मान करते हैं। सबके प्रति ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं लेकिन निवेदन भी करते हैं कि जब कभी भी कोई भी छोटी से छोटी त्रुटि दिखाई दे, हमें बताएं ताकि हम तुरंत संशोधन कर सकें।  इस कार्य  का उत्तरदाईत्व उन साथिओं पर विशेष तौर पर आता है जो इस दिव्य गुरूसाहित्य का ध्यानपूर्वक, सम्पूर्ण निष्ठां से अमृतपान कर रहे हैं।

हम ही जानते हैं कि आजकल प्रस्तुत किये जा रहे पूर्वप्रकाशित ज्ञानप्रसाद लेखों में कैसी-कैसी, छोटी बड़ी त्रुटियां नोटिस की हैं, स्वयं ही अपनेआप को धिक्कारते रहे। 

युगतीर्थ शांतिकुंज के बारे में अनेकों साथिओं को विस्तृत जानकारी है लेकिन बहुत से ऐसे भी अवश्य होंगें जिन्हें इसकी दिव्यता से परिचित कराना हम अपना धर्म समझते हैं।  12 दिसंबर 2020 को ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से पहली बार प्रकाशित हुए इस लेख को आज पुनः प्रकाशित करते हुए यह विश्वास किया जा रहा है कि मनुष्य के जीवन में “वातावरण के योगदान” को समझने में सहायता मिलेगी। 

प्रस्तुत लेख में युगतीर्थ शांतिकुंज की  जिस दिव्यता का वर्णन किया गया है,उस दिव्यता भरे तीर्थसेवन के लिए यहाँ आकर, कुछ समय बिताना ही चाहिए,इसके इलावा और कोई विकल्प नहीं है।              

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युगतीर्थ शांतिकुंज के दिव्य वातावरण पर हम कई लेख लिख चुके हैं और कई वीडियो बना चुके हैं। यह एक ऐसा टॉपिक है जिसके बारे में जितना लिखा जाये उतना ही कम है। वैसे तो इस वातावरण का अनुभव शांतिकुंज में कुछ समय बिता कर,तीर्थ सेवन करके  ही महसूस होता है लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार  के माध्यम से हम परिजनों को बताना चाहेंगें कि युगतीर्थ शांतिकुंज को साधारण आश्रम यां कोई धर्मशाला इत्यादि न समझा जाये। 

महाऋषि विश्वामित्र की तपस्थली पर स्थित है यह युगतीर्थ। माँ गंगा और पिता हिमालय के संरक्षण में स्थित है यह युगतीर्थ। हिमालय का क्षेत्र जिसे “स्वर्ग का द्वार” कहा जाता है यहीं से आरम्भ होता है, रही वातावरण की बात तो पहले आप श्रवण कुमार की यह कथा पढ़िए और फिर हम संक्षिप्त में बताते हैं शांतिकुंज में हमारे गुरुदेव द्वारा स्थापित  “ऋषि परम्परा”।

श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कंधे पर बिठाकर उन्हें तीर्थयात्रा कराने के लिए ले जा रहे थे । मेरठ ( यूपी ) के पास एक जगह है जहाँ आकर वह रुक गये और उन्होंने अपने माता-पिता से कहा :

” क्यों जी! आपकी आँखे ही तो ख़राब हैं, टाँगे तो ख़राब नहीं हैं। हम आपकी लकड़ी पकड़ लेंगे और आप लोग हमारे पीछे-पीछे चलिये , क्यों हमारे कंधे पर सवार होते हैं “

श्रवण के माता-पिता अचम्भे में रह गए। कंधे पर बैठकर चलने से उनका मतलब तो यह था कि हमारा लड़का सारे संसार भर में अजर और अमर होकर रहे, सारी दुनिया उसका नाम लिया करे, अपने बच्चों को प्यार देने के लिए उसका जीवन एक गाथा बन जाए,उदाहरण बन जाए। उनका मतलब सवारी गाँठने से थोडे ही था।

उन्होंने कहा :

“अच्छा बेटे,जैसे तुम कहोगे हम वैसा ही करेंगे लेकिन  एक काम करो, आज रात हम यहाँ नहीं ठहरेंगे। यहाँ से हमको बहुत दूर चले जाना चाहिए और इस क्षेत्र को पार कर लेना चाहिए”

श्रवण कुमार ने अपने माता पिता का कहना माना और उस इलाके से बहुत दूर चला गया। जैसे ही वह इलाका ख़त्म हुआ वैसे ही श्रवण कुमार को अपने ऊपर बहुत आश्चर्य हुआ और वह फूट-फूट कर रोने लगा।

उसने कहा:

“पिताजी मैंने कैसे कह दिया था कि आप अपने पैरों पर चलिये। मुझे यह कितना बड़ा सौभाग्य मिला था जिसे में छोड़ना नहीं चाहता था।”

पिता ने कहा :

“बेटे डरने की कोई बात नहीं है। वस्तुत: जहाँ तुम्हारे मन में वह विचार आया था वह स्थान ऐसा था जहाँ ‘मय’ नामक एक दानव था जिसने अपने माता-पिता को मार डाला था। बस उसी स्थान से होकर हम चल रहे थे और उसके संस्कार भूमि में पड़े हुए थे। भूमि के संस्कारों की वजह से तुम्हारे मन में वह विचार आये थे। अब हम उस क्षेत्र से निकल आये हैं अत: सब कुछ सामान्य हो गया है”

अब आप समझ गये होंगे कि वातावरण का कितना भारी प्रभाव  होता है। आपको हमने इसीलिए यहाँ के वातावरण में बुलाया है, हिमालय के नज़दीक बुलाया है। हिमालय यहीं से शुरू होता है। यहीं शिव और सप्तर्षियों का स्थान था। स्वर्ग कहाँ था? स्वर्ग हिमालय के उस इलाके में था जिसको “नंदनवन” कहते हैं। गोमुख से आगे स्वर्ग जमीन पर था। सुमेरु  पर्वत भी वहीं है। नंदनवन और सुमेरु पर्वत पर विस्तार से जानकारी के लिए आप हमारे पहले वाले लेख पढ़ सकते हैं। देवता इसी इलाके में रहते थे, हिमालय वाले क्षेत्र में। सारे के सारे महत्त्वपूर्ण ऋषि व सप्तर्षियों से लेकर सनक-सनन्दन तक एवं नारद से लेकर आदि गुरु शंकराचार्य तक जितने भी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हुए हैं,उनकी साधना इसी स्थान में हुई है। इसलिए हिमालय का अपना वातावरण है। गंगा की महत्ता आप जानते हैं न? गंगा की कितनी बड़ी महत्ता है? गंगा को सारा संसार न जाने क्या-क्या मानता है? भौतिक द्रष्टि और आध्यात्मिक द्रष्टि से भी यहाँ गंगाजी प्रवाहित होती हैं। 

जिस स्थान पर हमने यह शांतिकुंज बनाया है यहाँ सात ऋषियों का तप हुआ था। यहाँ सात ऋषियों की सात गंगाएँ थीं। दो गंगाएँ जो गायब हो गयी हैं वह कहाँ गयीं? वह इसी स्थान पर थीं जहाँ आज शांतिकुंज बना हुआ है,एक धारा यहाँ बाहर बहती थी, जिसे बाँध बनाकर रोक दिया गया था तब भी गंगा का पानी जमीन में से उछलता रहता है। आप कहीं भी ज़रा सा गड्ढा खोदिये गंगा जल तैयार है। यह गंगाजी की विशेषता है। शांतिकुंज हिमालय के द्वार पर बना है| यहाँ ऐसा प्राणवान सानिध्य है जहाँ शेर और गाय प्राचीनकाल की भाँति एक साथ पानी पीते हैं। ऐसा वातावरण है यहाँ शांतिकुंज में। यहाँ ऐसे लोगों का सानिध्य आपको मिला है कि जिसके लिए अगर आप सारे हिन्दुस्तान में घूमें और यह तलाश करें कि ऐसा प्राणवान सान्निध्य कहीं मिलेगा क्या? ऐसे प्राणवान सान्निध्य प्राचीनकाल में तो शायद हुए हों, पर आज आपको शांतिकुंज जैसा आध्यात्मिकता का वातावरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा।

1976 से 1980 तक का समय ब्रह्मवर्चस् की स्थापना होने का समय है। सभी ऋषियों की गतिविधियों के अनुरूप यहाँ उनसे संबंधित गतिविधियाँ भी प्रारंभ कर दी गयीं।

1 -भगीरथ परम्परा में ज्ञान गंगा का विस्तार।
2 -चरक परम्परा में दुर्लभ वनौषधियों का आरोपण व उन पर प्रयोग परीक्षण।
3 – व्यास परम्परा में युग साहित्य के साथ-साथ चार खण्डों में प्रज्ञापुराण का सृजन।
4 -नारद परम्परा में संगीत के माध्यम से जन-जन की भावनाओं को तरंगित करने का शिक्षण।
5 – पतंजलि परम्परा में प्राण-प्रत्यावर्तन एवं प्रज्ञायोग की साधना द्वार योगदर्शन को व्यावहारिक रूप प्रदान करन।
6 – विश्वामित्र परम्परा में सिद्धपीठ की स्थापना कर संजीवनी विद्या का शिक्षण व नवयुग के पृष्ठ भूमि का निर्माण।
7 – पिप्पलाद परम्परा में संस्कारी आहार के माध्यम से कल्प साधना।
8 – सूत शौनिक परम्परा में रामचरित मानस की प्रगतिशील प्रेरणा व गीता कथा।
9 -वैशेषिक-कणाद परम्परा में अध्यात्म और विज्ञान ( scientific spirituality ) के समन्वय के अनुसन्धान हेतु ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान।

सम्पूर्ण विश्व भर में प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना तथा प्रज्ञापुराण कथा द्वारा समागमों का आयोजन व लोक शिक्षण आदि कुछ ऐसी महत्वपूर्ण गतिविधियां हैं जिनसे गायत्री तीर्थ को संस्कारित किया गया।

गुरुकक्षा के सहपाठिओं से आज के लेख को यहीं पे विराम देने की आज्ञा लेने से पहले इस लेख को भी परमपूज्य गुरुदेव और वंदनीय माता जी के श्रीचरणों में समर्पित करते हैं।

इति श्री,जय गुरुदेव 

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पांचवें लेख  को 529  कमैंट्स मिले, 24 से अधिक आहुतियां प्रदान करने वाले 11  संकल्पधारिओं को हमारा ह्रदय से धन्यवाद् 


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