आधुनिक युग के हनुमान – शिवदास साधु और शुक्ला बाबा
आदरणीय नीरा जी के सुझाव का पालन करके हमने शिष्य शिरोमणि आदरणीय लीलापत शर्मा जी की गुरुभक्ति को दर्शाते अपने साथिओं के समक्ष कुछ पूर्वप्रकाशित लेख प्रस्तुत किए, अवश्य ही इन लेखों से हम सबको प्रेरणा मिली होगी। हम सबको पंडित जी की भांति परम पूज्य गुरुदेव के अनेकों शिष्यों के प्रेरणादायक विवरण देखने का सौभाग्य प्राप्त होता ही रहता है। आशा करते हैं कि हम भी गुरुकृपा प्राप्त करते हुए अपनी पात्रता विकसित करते जायेंगें।
लीलापत शर्मा जी के अनंत ज्ञान के बारे में जितना भी लिखा जाए कम ही रहेगा लेकिन आज शिष्य शिरोमणि शुक्ला बाबा के बारे में लिखने का मन कर रहा है।लेख में प्रस्तुत वर्णन आदरणीय मृतुन्जय तिवाड़ी जी द्वारा 2021 में प्रस्तुत किया गया था जब हम उनके साथ बाबा के स्वास्थ्य के सम्बन्ध से जुड़े हुए थे, उसके कुछ ही दिन बाद बाबा का महाप्रयाण हो गया था। आज के लेख में समर्पण का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। भारत से 14000 किलोमीटर दूर Trinidad and Tobago में शिवदास साधु की श्रद्धा गाथा हम सबका मन मोह लेगी, ऐसी हमारी धारणा है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से यह लेख 31 जुलाई 2021 एवं 28 मई 2023 को प्रकाशित हो चुके हैं एवं सभी ने इनकी भूरी भूरी प्रशंसा की है।
लेख का शुभारम्भ करने से पूर्व अपने स्वास्थ्य के बारे में अपडेट करके बताते हैं कि हमारी सर्जरी को लगभग एक माह हो चुका है और हमारे गुरु के आशीर्वाद और साथिओं की शुभकामनाओं से जल्दी ही बिल्कुल Fit होने की आशा करते हैं।
शुक्रवार को प्रकाशित हुई वीडियो को 407 कमैंट्स मिले और 24 से अधिक आहुतियां प्रदान करने वाले 5 संकल्पधारिओं को हमारा ह्रदय से धन्यवाद्
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गूगल सर्च में “Temple in the sea ” और इसकी सारी कथा पढ़ कर हर भारतीय को
https://en.wikipedia.org/wiki/Temple_in_the_Sea
अवश्य गर्व होगा । भारत से लगभग 14000 किलोमीटर दूर Trinidad and Tobago में शिवदास साधु नाम के एक प्रवासी Sugar labour ( गन्ना मज़दूर) ने सागर के अंदर शिव मंदिर बना कर विश्व भर में भारत का नाम रोशन किया और वहां के लोगो में ” आज का हनुमान ” नाम प्रचलित किया । जिस प्रकार हनुमान जी ने सेतुबंध की रचना की थी शिवदास का कार्य भी ऐसा ही था ।
1903 में भारत में जन्मे शिवदास 1907 में अपने माता पिता ( अनुबंधित कर्मचारी ) और 2 छोटे भाइयों के साथ समुद्री जहाज़ से Caribbean के इस देश में आए – इस देश का नाम है Trinidad and Tobago -। अनुबंधित कर्मचारी एक प्रकार के बंधवा मज़दूर होते हैं और उनका मालिक उनसे जो चाहे काम ले सकता है । चाहे contract में वह काम लिखा है या नहीं । यही कारण है कि माता पिता की मृत्यु के बाद automatically यह contract बच्चों को करना होता है । इनके लिए एक अक्षर “unfree” प्रायः प्रयोग में आता है । लेकिन यह डेढ़ शताब्दी पूर्व की स्तिथि थी I आज के युग में ऐसा शायद ही होता हो । शिवदास को भी अपने माता पिता वाला काम करना पड़ा । परिश्रम और बहुत ही कड़ी परिस्थिति में शिवदास को जो भी काम दिया जाता, करता रहा, पता नहीं कितने ही वर्ष बीत गए । 1926 में , 19 वर्ष बा , शिवदास पहली बार भारत आए और गंगा मैया को नमस्कार किया । हमारे गुरुदेव की भांति, शिवदास जी को भी आर्थिक तंगी के कारण समुंद्री जहाज़ का ही सहारा लेना पड़ा। पाठकों को परम पूज्य गुरुदेव की अफ्रीका यात्रा (1972) अवश्य ही स्मरण होगी । धार्मिक प्रवृति और भारत से प्रेम होने के कारण उनका मन विदेश में नहीं लगता था । भारत में उन्हें 120 वर्षीय सिद्ध पुरष मिले और शिवदास ने उनसे आश्रीवाद लिया और यह संकल्प लिया कि आर्थिक स्तिथि के कारण भारत तो बार- बार नहीं आया जाता तो विदेश में ही एक मंदिर की स्थापना की जाए और सागर को ही गंगा मैया समझा जाए। । यहाँ एक बार फिर गुरुदेव की शिक्षा स्मरण करवाती है – भावना और समर्पण – 1970 में देहांत से पहले शिवदास केवल 5 बार ही भारत आ सके ।
इतनी सरलता और धार्मिक प्रवृति के कारण वहां के लोगों ने शिवदास को साधु के नाम से जानना शुरू कर दिया । ह्रदय में मंदिर बनाने की अग्नि उन्हें चैन से सोने नहीं देती थी । आखिर अक्टूबर 1947 में उन्होंने समुद्र के तट पर Caroni कंपनी से धरती का एक टुकड़ा ख़रीदा । इस धरती के टुकड़े पर मंदिर बनाना आरम्भ किया । धरती साफ़ की , मूर्तियां स्थापित कीं और 4 वर्ष तक Waterloo bay के निवासी एवं आस पास के गावों से श्रद्धालु आते रहे और अपने श्रद्धा सुमन प्रदान करते रहे । लेकिन 1952 में Caroni कंपनी ने इस मंदिर को हटाने का निर्देश दिया क्योंकि यह मंदिर किसी निजी कंपनी की भूमि ( Private land ) पर बनाया गया था । उन पर यह इलज़ाम लगाया गया कि यह निजी भूमि है और इस पर आप मंदिर नहीं बना सकते । आपको इसे गिरना होगा । बड़े ही दुखी हृदय से उन्होंने इस ईश्वर के घर को गिराने से इंकार कर दिया । इस हुक्म की अवज्ञा करने के कारण उन्हें 14 दिन की जेल हो गयी और 400 डॉलर जुर्माना भी हुआ । 400 डॉलर उस समय उनका 2 वर्ष का वेतन था , यानि 20 डॉलर प्रति माह से भी कम। उनके जेल कारावास के दौरान उस मंदिर को गिरा दिया गया और वहां पर कोई नाम निशान ही न रहा । जेल से बाहर आते ही उन्होंने अपने संकल्प पर पुनः काम करना आरम्भ कर दिया । उन्होंने समुन्द्र के बीच 500 फुट की दूरी पर मंदिर बनाना आरम्भ कर दिया । यह तो किसी की भूमि नहीं है न । लगभग 20 वर्ष के अथक परिश्रम उपरांत यह मंदिर बन कर तैयार हो गया । इन बीस वर्षों में उनका एकमात्र साधन एक बाइसिकल था । साइकिल के हैंडल पर दोनों तरफ बाल्टियां लटका कर, उनमें पत्थर , रेत , सीमेंट इत्यादि समुन्दर में गिराने का कार्य अकेले या कभी कभार परिवार के साथ होता रहा । उनको ऐसा करते लोगों ने उपहास भी किये। लोग अक्सर कहते थे साधु पागल हो गया है । परन्तु वह अनवरत भगवान के इस कार्य में लगे रहे । इस तरह उन्होंने समुन्दर में जाने के लिए रास्ता बनाया । उसके बाद पास वाले गांव से एक ट्रक लिया और ऊपर वाला कार्य उस ट्रक से सम्पन्न किया । एक बार उनका ट्रक समुन्द्र में फस गया और निकालने का प्रयत्न करते- करते रात हो गयी । सारी रात पानी में ही काटनी पड़ी । ऐसी थी उनकी भक्ति, ऐसी थी उनकी श्रद्धा, विश्वास और उस परम् परमात्मा के साथ स्नेह। सच ही वहां के लोगों ने उन्हें आज के हनुमान की उपाधि दी । 1970 में मंदिर पूर्ण होने पर शिवदास अंतिम बार भारत गए और वहीँ हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गयी ।
मंदिर की संभाल करने वाला कोई नहीं रहा और वह खराब होना शुरू हो गया । परन्तु जब उस परमपिता की इच्छा हो तो सब कार्य अपने आप होते चले जाते हैं । 1994 में भारतीयों के Trinidad और Tobago में आने के 150 वर्ष मनाने ( Indians Arrival Day ) के उपलक्ष्य में कई कार्यक्रम आयोजित हुए । इस मंदिर को बनाने का लक्ष्य इन कार्यक्रमों का ही एक ध्येय था । यहाँ की सरकार ने उस महान आत्मा को श्रद्धांजलि के रूप में इस को खुद पूरा किया । 10 दिसंबर 1995 को यहाँ की सरकार ने इस मंदिर को राष्ट्र को समर्पित किया । प्रवेश द्वार प्रांगण पे उनकी बहुत ही खूबसूरत मूर्ति स्थापित की गयी । वर्तमान सरकार में डॉ रामबचन ने इस मंदिर को National treasure का दर्ज़ा दिलाने में बड़ा योगदान दिया है । Indians Arrival Day का प्रचलन भी उन्ही की देन है । जनवरी 2002 से जनवरी 2003 पूरे एक वर्ष के लिए शिवदास साधु का जन्म शताब्दी वर्ष मनाया गया । डॉक्टर रामबचन ने इन पुर्षार्थों को यजुर्वेद के अनुसार पितृ ऋण चुकाने का अभूतपूर्व एवं स्वर्ण अवसर कहा। हम सभी इस ज्ञान रथ के माध्यम से इस महान आत्मा को नतमस्तक होते हैं ।
शुक्ला बाबा के जीवन के कुछ पल:
आदरणीय मृतुन्जय भाई साहिब के अनुसार बाबा का निम्नलिखित विवरण देते हुए हमें अत्यंत हर्ष हो रहा है।
1956 में उन्होंने अपना मस्तिचक ही स्थित पुश्तैनी घर त्याग, ब्रह्मचर्य में रहने का संकल्प लेकर अपने पहले गुरु नागा बाबा हरिदास के सानिध्य में मस्तिचक, बिहार में उनके आश्रम में रहने लगे। बाबा हरिदास देहत्याग करने से ठीक पूर्व अपने शिष्य शुक्ला बाबा को बताते हैं कि अब से उनको मथुरा में रहने वाले एक संत पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी को अपने गुरु के रूप में स्वीकार करना है। यह भी बताया कि यदि श्रीराम शर्मा जी मस्तिचक आश्रम में आ कर संध्या पूजन करें तभी उनको (बाबा हरिदास) मुक्ति प्राप्त होगी, लेकिन श्रीराम शर्मा जी मस्तिचक तभी आएँगे जब तुम (शुक्ला बाबा) 24 लाख का गायत्री महा अनुष्ठान (तथा ऊँचे स्वर में एक माला नित्य हवन) लगातार पाँच साल तक सम्पन्न करें । बाबा हरिदास तत्पश्चात देह त्याग करते हैं। शुक्ला बाबा अनुष्ठान शुरू करते हैं; तीन साल बाद, 24 लाख अनुष्ठान करने के बाद वोह परम पूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा जी को मथुरा पत्र लिखते हैं और मस्तिचक आने के लिए आमंत्रण देते हैं। वहाँ से गुरुदेव का जवाब आता है कि अभी दो साल और बाक़ी है। शुक्ला बाबा तभी समझ जाते हैं कि गुरुदेव साक्षात ईश्वर हैं। वोह बाक़ी दो साल अनुष्ठान पूर्ण करते हैं और फिर गुरुदेव का मस्तिचक आगमन होता है। गुरुदेव वहाँ संध्या पूजन करते हैं एवं शुक्ला बाबा को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं। यह सारा वाक़या मस्तिचक में स्थित वर्तमान गायत्री शक्तिपीठ में घटित हुआ था। उसके पश्चात् शुक्ला बाबा गुरुदेव के निर्देशानुसार अपने जीवनकाल में सारे भारत में लगभग 2400 गायत्री शक्तिपीठ का प्रारम्भ करवाते हैं। इस दौरान वो अनगिनत महायज्ञ पूरे देश में करवाते हुए जनमानस को मिशन से जोड़ते हैं। शुक्ला बाबा मानते हैं कि गुरुदेव के प्रति उनका सम्पूर्ण समर्पण एवं अपार भक्ति की वजह से गुरुदेव उनको यह सब करने का शक्ति देते रहे।
जय गुरुदेव