वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

मनुष्य शरीर में नाभि का महत्व-पार्ट 3

नाभि और नाभिचक्र की महत्ता का वर्णन करते आज के  ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करने से पहले परम पूज्य गुरुदेव एवं अनेकों समर्पित  बच्चों का धन्यवाद् करना चाहेंगें जो हमारी सर्जरी को लेकर अनवरत भांति-भांति के  शुभकामना सन्देश  पोस्ट कर रहे हैं। सभी के प्रति यही कह सकते हैं कि कल तक जिसे कोई जानता तक नहीं था उसे गुरु और उसके शिष्यों ने फर्श से उठा कर अर्श पर बैठा दिया, वाह  रे मेरे गुरुवर। सर्जरी के दिन  से इतनी देर पहले परिवार में जानकारी सार्वजनिक करने का केवल एक ही उद्देश्य था कि अधिक से अधिक साथिओं को ज्ञान हो जाये की गुरुकुल की आध्यात्मिक गुरुकक्षा कुछ दिन के लिए बंद होने वाली है। इस जानकारी के अभाव में हमारी कक्षा के साथी जब कक्षा के द्वार पर  बंद ताला देखेंगें तो दुःखी होंगें, यह हमसे सहन न हो पायेगा। अचानक ओझल हो जाने वाले साथिओं से भी इसी अनुशासन की आशा की जाती है।  

परिवार की कार्यप्रणाली में माह का अंतिम शुक्रवार युवासाथिओं के योगदान के लिए रिज़र्व किया हुआ है उसी प्रथा का पालन करते हुए आज बुधवार ही हमारी परमप्रिय, समर्पित संजना बेटी की 6 मिंट की वीडियो प्रस्तुत की जा रही है। साथिओं के समय का ध्यान रखते हुए यह वीडियो आज के प्रज्ञागीत का स्थान ले रही है।             

सप्ताह के प्रथम दिन सोमवार 25 नवंबर 2024  को नाभिचक्र से सम्बंधित आरम्भ हुई लेख श्रृंखला का आज तीसरा एवं “अभी के लिए” का अंतिम लेख है। अधिकतर  साथी जानते हैं कि हम “अभी के लिए” क्यों लिख रहे हैं लेकिन फिर भी जो नहीं जानते हैं उनके लिए एक बार फिर से  लिख रहे हैं कि आज यानि बुधवार को हमारी घुटने की सर्जरी है और हमें कुछ दिन के लिए अपने अपनत्व भरे परिवार, “ज्ञानरथ परिवार”  से, न चाहते हुए भी  विवशता के वशीभूत सम्बन्ध तोडना पड़ रहा है। सर्जरी के बाद जब भी हम अपने परिवार में उपस्थित होते हैं , इसी विषय को आगे बढ़ाने  की योजना है, अभी बहुत कुछ जानने को बाकी है। ज्ञानप्रसाद लेख के साथ-साथ हर बार की तरह इस बार भी साथिओं के कमैंट्स अत्यंत ज्ञान  का प्रसार कर रहे हैं। आद सरविन्द भाई साहिब ने कमेंट करके अपना व्यक्तिगत अनुभव बताया कि नाभि में सरसों का तेल लगाने का क्या लाभ होता है।

नाभि की शक्ति एवं उससे अनेकों बीमारीओं का  समाधान होने वाला विषय बहुत ही रोचक होने वाला है। सोमवार को आद साधना बहिन जी ने कमेंट किया था कि “नाभिचक्र रिद्धि सिद्धि का द्वार” कैसे है  तो हमारा विश्वास है कि  अभी तक उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया हो गया एवं आगे आने वाला ज्ञान इस प्रश्न  को और भी परिपक्व करेगा, उनकी जिज्ञासा का समाधान कर पायेगा।               

जून 1993 की अखंड ज्योति में प्रकाशित लेख  “रिद्धि सिद्धि का द्वार  है नाभिचक्र -सूर्यचक्र” पर आधारित यह तीसरा लेख है। हमारे साथी जानते होंगें कि नाभिचक्र को “मणिचक्र (वही सर्प वाली मणि)” भी कहा जाता है।  विज्ञान तो मणि के अस्तित्व को भी नकारता है क्योंकि यहाँ भी वोह प्रतक्ष्यवाद की ही बात करता है। इस सन्दर्भ में हम एक बार फिर से कह रहे हैं कि अगर वैज्ञानिक को कोई चीज़ प्रतक्ष्य दिखाई नहीं देती है तो उसका अर्थ कतई नहीं है कि उस वस्तु का  अस्तित्व ही नहीं है। 

सर्प से सम्बंधित  नागमणि के चमत्कार से हम में से अधिकतर साथी भलीभांति परिचित हैं, इसके  बारे में कहा जाता है कि यह जिसके भी पास होती है उसकी किस्मत बदल जाती है क्योंकि  नागमणि में अलौकिक शक्तियां सम्माहित होती   हैं, उसकी चमक के आगे हीरा भी फीका पड़ जाता है। मान्यता अनुसार जिसके पास भी नागमणि होती है उसमें भी अलौकिक शक्तियां आ जाती हैं और वह मनुष्य  भी अनेकानेक ऋद्धियों-सिद्धियों का मालिक बन जाता है। हालाँकि इस तथ्य में कितनी सच्चाई है, कोई नहीं जानता लेकिन ऐसा कहा जाता है कि मणि के होने को अल्लादीन के चिराग जैसा कहा गया है। 

वैज्ञानिक पक्ष इस बात को कैसे नकार सकता है कि “नाभि” का मनुष्य के जीवन में कितना बड़ा योगदान है;  72000 नाड़ियां, 9 Endocrine glands systems सक्रियता ऐसे स्तर की है कि  शायद ही जीवन का कोई भाग इससे प्रभावित न होता हो और किसी भी बीमारी का नाभि यां नाभिचक्र से उपचार न सम्भव हो। वैज्ञानिक को तो इस बात का भी विश्वास नहीं होता होगा कि नाभिचक्र का तत्व ही “अग्नि,पीतवर्ण” है। पुरातन आध्यात्मिक ज्ञान ही बता सकता है कि अग्नि का मनुष्य-जीवन में क्या योगदान है। 

विज्ञान और अध्यात्म की Controversy को यहीं छोड़ कर आगे बढ़ना ही उचित होगा,कहीं ऐसा न हो जाये कि वर्षों के पुण्यकर्मो से प्राप्त हुए  गुरुचरणों का दिव्य स्थान कोई और ले जाये और हम गुरुकुल की आज की आध्यात्मिक गुरुकक्षा को मिस ही कर दें।  अगर ऐसा हो गया तो न जाने कितना बड़ा जुर्माना देना पड़े, शायद कक्षा फिर से Reinstate ही न हो  पाए। 

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मानव शरीर की समस्त स्फूर्ति नाभिकेन्द्र पर ही निर्भर है। नाभिचक्र जिसे सूर्यचक्र भी कहते हैं न केवल प्राण-प्रवाह का जंक्शन है, बल्कि अचेतन मन (Unconscious mind)  के संस्कारों तथा चेतना का Communication center भी है लेकिन साधारणतया यह महत्वपूर्ण केन्द्र प्रायः सुप्त अवस्था में पड़ा रहता है। अतः जनसाधारण को इसकी शक्ति का न तो कुछ ज्ञान ही होता है और न ही वोह इससे कुछ लाभ ही उठा पाते हैं।

प्रत्येक चक्र किसी “तत्व विशेष” से संबंधित एवं प्रभावित होता है। उसको सक्रिय करने के लिए किसी विशेष रंग का ध्यान करना होता है। सूर्यचक्र में  अग्नितत्व प्रधान है। उसे जाग्रत करने के लिए पीतवर्ण कमल का ध्यान किया जाता है। वास्तव में लाल-पीले हरे-बैगनी एवं सफेद रंगों का सूर्य, ज्योति की सात किरणों का संबंध है। मानव शरीर में उपस्थित सूक्ष्म चक्रों के “मानसिक ध्यान” मात्र से संबंधित तत्व में विशेष हलचल पैदा होती है। यह हलचल हमारे ज्ञान तंतुओं एवं मस्तिष्क को प्रभावित करती हुई शरीर में स्थित “प्राण” को “चेतना” से जोड़ देता है। 

इस महत्वपूर्ण तथ्य को रोज़मर्रा के उदाहरण से समझा जा सकता है। जैसे हम प्रतिदिन  मोबाइल फ़ोन की बैटरी समाप्त हो जाने पर उसे चार्ज करते हैं जो फिर से पूर्ण शक्ति से कार्यरत हो जाता है । इसी तरह का एक और उदाहरण एक छोटे स्टोर का दिया जा सकता है जिसमें संगृहीत भंडार खर्च हो जाने पर नज़दीक के  किसी बड़े स्टोर से सामान लाकर उसकी पूर्ति कर ली जाती है। ठीक उसी तरह विश्व में व्याप्त अनंत शक्तियों के  केन्द्र मणिपूर चक्र (सूर्यचक्र) द्वारा वाँछित शक्ति को आकर्षित करके संचित किया जाना तथा आवश्यकतानुसार उसका उपयोग होना संभव है। जिस भी व्यक्ति ने इस शक्ति केन्द्र को साध लिया,उसकी इंद्रियाँ काबू में रहती हैं एवं नियत, निर्धारित क्रम से अपनी सुव्यवस्थता एवं  कौशल का परिचय देती है। ऐसा मनुष्य सामान्य मनुष्यों की तुलना में कई गुने उत्कृष्ट कार्य कर सकने में सफल होता है।

अन्य शक्तिकेंद्रों एवं चक्रों की भांति नाभिचक्र को जाग्रत करने के लिए भी प्रातः काल सूर्योदय से पहले और सायंकाल सूर्यास्त से पहले साधना करने का विधान है। किसी पवित्र एवं एकाँत स्थान में यां अपने दैनिक साधनाकक्ष में पद्मासन स्थिति में बैठकर दस से बीस बार गहरी-गहरी श्वास लें अथवा तीन से पाँच मिनट तक नाड़ी शोधन प्राणायाम करें। इससे सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का संचार प्रारंभ हो जाता है। इसके पश्चात रीढ़ की हड्डी को बिल्कुल सीधा रखते हुए, श्वास के साथ पाँच मिनट तकअजपा गायत्री मंत्र (सोऽहम्) का मौन जप करना चाहिए। बाद में अपनी नाभि के पीछे मेरुदण्ड स्थित सूर्यचक्र में पीले चमकीले रंग वाले कमल के “मानसिक ध्यान” में स्वयं को तन्मय कर देना चाहिए। इस तन्मयता में यह भाव गहराई में समाहित रहे कि सूर्यचक्र जाग्रत हो रहा है। पीतवर्ण कमल से निकलती प्रकाश रश्मियाँ सारे “नाभि संस्थान” को प्रकाशित कर रही हैं। इस भावना की गहराई में स्वयं को खोते हुए अपनी श्वास को धीरे-धीरे हृदय में, फेफड़ों में ले जाते हुए पेट में भर दे। इस प्रक्रिया के साथ यह भावना गहरी होती जाय कि 

5-10  मिनट श्वास को सूर्यचक्र में ठहराने के पश्चात यह भाव गहरा करें कि 

इस ऑटोसजेशन (Autosuggestion) के साथ श्वास को बिल्कुल  धीरे-धीरे बाहर छोड़ दें और सूर्यचक्र से प्राण का स्पंदन मेरुदंड में ऊपर की ओर गति करता अनुभव करें। एक-दो मिनट के विश्राम के पश्चात फिर यही क्रिया पाँच से दस बार दोहराई  जाय। श्वास अंदर भरने तथा छोड़ने का क्रम इतने धीरे-धीरे हो कि उसकी ध्वनि न सुनाई पड़े। सुखपूर्वक परम विश्राँति के साथ उपरोक्त क्रिया को दोहराने के साथ ही आत्मनिर्देश, पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ दोहराना जरूरी है। एक-दो महीने की नियमित साधना के पश्चात शरीर, मन, मस्तिष्क में परिवर्तन समझ पड़ते है। इन परिवर्तनों में यह स्पष्ट अनुभूति होती है कि भावनाओं के अनुरूप ही मन व बुद्धि विकसित हो रही  हैं। इसकी दीर्घकालीन साधना द्वारा दृढ़ संकल्पपूर्वक “चेतना का प्राण के साथ संयोग” हो जाने पर साधक के मन व मस्तिष्क में चुम्बकीय विद्युत तरंगों का निर्बाध प्रवाह जारी हो जाता है जो साधक के आस-पास एवं उससे संबंधित वातावरण को प्रभावोत्पादक बनाने में समर्थ होता है।

इस प्रकार के आकर्षक वातावरण का प्रभाव एवं उसकी अनुभूति हम उच्चकोटि के साधक संत महात्माओं के सान्निध्य में सहज ही कर सकते हैं। उपर्युक्त साधना से सूर्यचक्र एवं अनाहत चक्र में एक सुनियोजित सीधा संबंध स्थापित होकर साधक की सर्वतोमुखी उन्नति में जो स्वैच्छिक सहयोग मिलता है वह शीघ्र ही लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त कर देता है। यदि साधना के प्रति उपेक्षा बरती जाए तो नाभि स्थित सूर्य के अमृत तत्व का पतन होता  है। साधना प्रक्रिया को अपनाकर मधुमक्खी की भांति ब्रह्माण्ड की शक्तियों को संचित किया जा सकता है जिससे अपने भले के साथ-साथ औरों  का सुख भी  बढ़ाया जा सकता है। आत्मविद्या के अनुसार सूर्यचक्र प्राणसत्ता का, साहसिक पराक्रमशीलता का एवं प्रतिभा का केन्द्रबिंदु माना गया है। इस स्थान की ध्यान साधना करते हुए, इस प्राणशक्ति को रोका जा सकता है और दिशा को सुनियोजित किया जाता है। फलतः उसके सत्परिणाम भी ओजस्विता की वृद्धि के रूप में सामने आते हैं।

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कल वाले लेख को 432 कमैंट्स मिले, 9 युगसैनिक 24 यां 24 से अधिक कमेंट कर पाए।सभी को हमारी बधाई एवं धन्यवाद।


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