वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अखंड ज्योति के प्रथम वर्ष की यात्रा का उत्कृष्ट लेख-पार्ट 2

“हमारा धन्यवाद् स्वीकार कीजिये” शीर्षक से दिसंबर 1940 की अखंड ज्योति में प्रकाशित एक छोटे से, केवल 4 पन्नों के लेख को समझने के लिए भांति-भांति के उदाहरण देते हुए, वीडियोस का सहारा लेते हुए, क्रॉस रेफरेन्स को शामिल करते हुए हमने चार दिन एक ऐसा प्रयास किया कि प्यासी आत्मा तृप्त हुई अनुभव कर रही है। 

कल इस अद्भुत लेख श्रृंखला का समापन हो जाने की सम्भावना है। 

ज्ञानप्रसाद लेख प्रस्तुत करते समय सरलीकरण की प्रक्रिया में गूगल का सहारा तो लिया ही जाता है लेकिन इधर उधर की जानकारी शामिल करके यह सुनिश्चित किया जाता है कि कोई भी बात रह न जाए जो पाठक को समझ नहीं आई है यां समझने के लिए उसे  किसी से पूछना पड़ा है, यां फिर उसने कामचलाऊ दृष्टि से पढ़ लिया, उसने यह सोच कर गुज़ारा कर लिया कि अगर समझ नहीं भी आयी है तो कोई बात नहीं। जिस अमृत की बूदों  का हम पयपान कर रहे हैं उसमें गुज़ारे वाली कोई बात ही नहीं है, यहाँ तो अंतरात्मा में उतारने की बात हो रही है। उदाहरण के लिए आज के लेख के सम्बन्ध में यदि यह समझ लिया जाता कि नरसी भगत वाली बात तो अभी दो माह पहले  ही की थी अब फिर से रिपीट क्यों किया जाये तो शायद अनुचित होता क्योंकि यदि हमें स्मरण नहीं हो रहा तो हमारे जैसे अनेकों और भी साथी होंगें जिन्हें यह स्मरण करने में दिक्कत आएगी। दो माह पहले नरसी भगत की चर्चा  किसी और संदर्भ में की थी, आज किसी और में हो रही है। यही कारण है कि गुरुदेव के चार पन्नों के लेख Expand होकर इतने बड़े हो जाते हैं। 

“हमारा धन्यवाद् स्वीकार कीजिये” लेख ने हमें इतना प्रभावित किया कि अपनी तरह हमने साथिओं को भी छोटी छोटी Dose देना उचित समझा। 

तो आइये चलें, गुरुचरणों में समर्पित हो जाएँ, गुरुकुल की आध्यात्मिक गुरुकक्षा में वितरित हो रहे ज्ञान का अमृतपान करके अपना कायाकल्प करने का प्रयास करें। 

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अखंड ज्योति के प्रथम वर्ष की उपलब्धियों एवं कमज़ोरियों  का लेख जोखा देते हुए परम पूज्य कह रहे हैं :        

अपनी तुच्छ योग्यता और सेवा के इतने परिणाम को देख कर हमारी छाती खुशी से फूल उठती है और प्रभु की प्रभुता को देख कर प्रसन्नता से होंठ खिल उठते हैं। अवश्य ही कुछ प्रेमी अखंड ज्योति के इस बाहरी रूप को देखकर इस पत्रिका की भीतरी स्थिति भी जानना चाहते होंगे। उन्हें कुछ थोड़ा सा भीतरी परिचय करा देना इसलिये आवश्यक प्रतीत होता है कि पाठकों  को हम अपना परिवार समझते हैं, परिवार के हर सदस्य को हक है कि अपनी किसी भी चीज़/गतिविधि के बाहरी रूप को देखने के साथ-साथ भीतरी बातें भी जाने।

अखंड ज्योति का संचालन कर रहा, इन पंक्तियों का लेखक एवं अखंड ज्योति का  संपादक, आर्थिक दृष्टि से कोई ऊंचा व्यक्ति नहीं है। 1000 रुपये की छोटी सी पूँजी से इस तुच्छ से व्यक्ति ने इतने बड़े “उत्तरदायित्व के जहाज़” का लंगर  खोल दिया था। उसका विश्वास है कि “नरसी भगत वाले सावलियाँ शाह” इस जहाज़ को पार लगाएंगे।

आगे चलने से पहले आइये ज़रा देख लें कि नरसी भक्त की कथा क्या शिक्षा दे रही है। अभी दो माह पूर्व ही 21 अगस्त 2024 के ज्ञानप्रसाद में, जिसका शीर्षक था “अखंड ज्योति ईश्वरीय प्रकाश का प्रकाशन है” में इस  कथा का वर्णन किया गया था। साथिओं का तो पता नहीं, हमें तो इस  कथा का  धुँधला सा स्मरण हो रहा है, अगर यह कथा  फिर से Revise हो जाती है तो कोई नुक्सान नहीं होगा। 

नरसी भक्त,गुजरात के एक प्रसिद्ध 56 करोड़ सम्पति वाले सेठ हुए हैं ।अति सम्पन्न होने के कारण  राजा ने उन्हें  ड्राफ्ट बनाने के लिए रजिस्टर कर रखा था। समय एक जैसा नहीं रहता, किसी कारणवश नरसी मेहता बहुत ही निर्धन हो गए और उनका रजिस्ट्रेशन का कार्य समाप्त कर दिया गया।

एक बार की बात है कि  चार संत नरसी जी से 500 रुपए का ड्राफ्ट  बनवाने के लिए नगर में आए। नगर के व्यक्तियों ने उन संतों  से मज़ाक  में कह दिया  कि सेठ नरसी आजकल सीधे मुँह बात नहीं करते और वन  में रह कर निर्धनता का ड्रामा कर रहे हैं, कोई मिन्नत करता है तो ड्राफ्ट  बनाते हैं। संतजन नरसी जी के पास आए तथा 500 रूपये देकर  ड्राफ्ट बनाने को कहा। नरसी जी ने मना कर दिया और कहा कि अब मेरा बनाया ड्राफ्ट नहीं चलता। संतों ने कहा कि नगर वाले ठीक ही कह रहे थे कि आप सीधे मुँह बात नहीं करते। हम ड्राफ्ट  बनवा कर ही रहेंगे। नरसी जी समझ गए कि नगर वालों ने मज़ाक  किया है। नरसी जी डर गए कि संतजन कहीं मुझे श्राप न दे दें। उन्होंने उसी समय कागज मँगवाकर ड्राफ्ट बना दिया और  देने वाले के स्थान पर सांवरिया सेठ (क्योंकि वोह श्रीकृष्ण के पुजारी थे) का नाम लिख दिया। संतों के पैसे से नरसी जी ने घी, चावल, दूध, चीनी  आदि खरीद कर उसका भंडारा कर दिया । संतों ने द्वारिका में सांवरिया सेठ का पता किया और ड्राफ्ट  कैश करना चाहा। सेठों ने देखा कि यह ड्राफ्ट  तो नरसी निर्धन का  है, अब तो वह दिवालिया हो गए हैं। सेठों ने कहा कि नरसी ने आपको ठग लिया है। नरसी जी ने ध्यान लगाकर देखा कि परमेश्वर ने मुझ गरीब का ड्राफ्ट कैश किया  है या नहीं, देखा कि संत बहुत दु:खी हैं। वोह ड्राफ्ट  को बार-बार देख रहे हैं। नरसी जी ने अपनी पत्नी से पूछा  कि 500 रूपये का जो सामान लाए थे, वह सब भण्डारे में लग गया या कुछ बचा है। पत्नी ने कहा थोड़ा-सा सूखा आटा जो हाथों से लगाकर रोटी बनाते हैं वही बचा  है। नरसी जी ने कहा कि तू बचे आटे से रोटी बना, मैं किसी भूखे यात्री को लेकर आता हूँ। परमेश्वर स्वयं एक संत का रूप धारण कर नरसी जी को मिले। नरसी जी ने  विनयपूर्वक बचे आटे की चारों रोटियां “परमेश्वर रूपी संत” को खिला दीं । चार रोटी खाकर परमात्मा “सांवरिआ सेठ” के रूप में द्वारिका में प्रकट हो गए। परमात्मा ने संतों  के पास जाकर कहा. “कैसे बैठे हो?” संतों  ने कहा, “हम तो कहीं  भी जाने योग्य नहीं रहे,नरसी जी का  ड्राफ्ट यहाँ चलता नहीं लेकिन दोष उनका  नहीं है , हमने ही उन्हें मजबूर किया था। परमात्मा कहने लगे किसने कहा यह ड्राफ्ट नहीं चलता? वो सांवरिआ नाम का सेठ मैं हूं। आ जाओ, मेरी दुकान पर, मैं दूंगा तुम्हारे 500 रुपए। परमात्मा ड्राफ्ट  लेकर द्वारिका के उस  बाजार में गए, जहां चारों तरफ सेठों की दुकानें थी। परमात्मा कहने लगे यहां पर चादर बिछाओ। सेठ रूप में परमात्मा चाँदी के नए-नए सिक्के पटककर मारने लगे  और ज़ोर ज़ोर से  एक, दो, तीन, चार कह कर गिन रहे थे। यह सुनकर वहां के सेठ इकठ्ठे हो गए और  देखने लगे कि यह सेठ तो द्वारिका का नहीं है फिर ऐसा क्यों कर रहा है। तब परमात्मा ने सांवरिआ  सेठ के रूप में 500 रूपये गिनकर व देकर संतों से कहा कि भाई मैं ही सांवरिआ सेठ हूं, नरसी जी से कहना चाहे एक लाख का ड्राफ्ट भेज दें, मैं सब कैश कर दूंगा,  यह वचन बोलकर परमेश्वर अन्तर्ध्यान हो गए। 

गुरुदेव बता रहे हैं कि 6-7 महीने में संचालक की सारी  पूँजी समाप्त हो गई और घाटे का मसान गला घोटने के लिये सामने आ खड़ा हुआ। आर्थिक चिन्ता बड़ी कठिन होती है। ऐसी स्थिति में केवल दो ही विकल्प होते हैं: आमदनी बढ़ाना या खर्च घटाना। आमदनी तो बढ़ती दिखाई न दी  तो खर्च को ही घटाया गया। तिरंगा मुखपृष्ठ छोड़ना पड़ा, भीतर की रंगीन तस्वीर बंद कर दी गई, कागज हलका हुआ, रोगियों का उपचार करने वाले अभ्यासियों की छुट्टी कर  दी गई, दफ्तर की बिल्डिंग 15 रुपये प्रतिमाह  किराये से घटाकर 4 रुपये प्रतिमाह कर दी गई। दफ्तर बड़ी बिल्डिंग से छोटे से कमरे में शिफ्ट कर दिया गया। जिन अमूल्य पुस्तकों का विज्ञापन किया गया था वह बहुत लेट छपीं। कई तो अब तक भी प्रकाशित नहीं हो पाई हैं और जिज्ञासु लोग उस सद्ज्ञान से वंचित हैं। कुछ एक अनिवार्य कार्यकर्ताओं को छोड़कर, बाकी सभी  कर्मचारियों का कार्य संपादक ने अपने ही हाथ में ले लिया। प्रतिदिन 16 घंटे स्वयं काम करने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार खर्च में बहुत कुछ कमी करके घाटे को हल्का किया गया, फिर भी असुविधा दूर नहीं हो सकी। 1.50 रुपए  वार्षिक मूल्य में अखबार के कागज पर छपाई, पोस्टेज आदि के बाद इस मंहगाई के जमाने में भला क्या बच सकता है? ऐसी दशा में कार्य के महत्व  को देखते हुए घाटे का होना स्वभाविक ही है।

अपनी “उधार न माँगने” की नीति होने के कारण लगभग “न” के बराबर ही कुछ  आय हुई जिससे अभ्यासियों का खर्च तो दूर कागज़/लिफाफों आदि का व्यय भी पूरा न हुआ।

इन परिस्थितियों के वशीभूत एवं माँगने की नीति ग्रहण करने के बजाय उस “अत्यंत उपयोगी” कार्य को बंद ही कर देना पड़ा। हम जानते थे कि यदि अखंड ज्योति परिवार के अपने उदार बंधुओं से याचना करते तो झोली खाली न रहती लेकिन  हम इस बात पर विश्वास करते हैं कि यह एक लोकोपयोगी कार्य है जो असंख्य लोगों की निस्वार्थ सेवा के लिये पवित्र भावनाओं से किया जा रहा एक दिव्य यज्ञ है। यज्ञ की बाहरी व्यवस्था का भार प्रभु पर है तो  फिर हम किसी से याचना क्यों  करें? यदि हमारा कार्य अपवित्र है, हमारी भावनाएँ हीन है, तो हमें नष्ट हो जाना चाहिएऔर यदि हम धर्म प्रचार के मिशन के लिए जीवित हैं, तो वह घट-घट वासी परमात्मा जिन्हें निमित्त बनाना चाहता होगा, उनके हृदयों में प्रेरणा भरेगा कि इस मुरझाते हुए धर्म-तरु को सींचने के लिए अपने भरे हुए जल पात्रों में से एक-एक चुल्लू पानी का इसके लिए भी त्याग करें।

अखण्ड ज्योति परिवार गुणी  ग्राहकों, सच्ची सेवा का महत्व जानने वाले बुधजनों, उच्च अधिकारारुढ़ों, धनी मानियों, महापुरुषों, साधु महात्माओं, ईश्वर भक्तों से भरा पड़ा है। ईश्वर जब उनके हृदयों को प्रेरित  करेगा तो वे अपनी श्रद्धानुसार इस मुरझाते हुए धर्मतरु को सींचने के लिए स्वयं दौड़ेंगे। 

कल इससे आगे के विवरण के साथ इस लेख श्रृंखला का समापन होने की योजना है।

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कल   वाले लेख   को 509 कमैंट्स मिले  एवं 12   युगसैनिकों ने 24 से अधिक कमेंट करके ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की इस अनूठी एवं  दिव्य यज्ञशाला की शोभा को कायम रखा गया  है। सभी को हमारी बधाई एवं  धन्यवाद।


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