वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

सच्ची साधना से माँ गायत्री से वार्तालाप भी संभव है।

इस सप्ताह का चौथा एवं अंतिम ज्ञानप्रसाद माँ गायत्री से वार्तालाप करवा रहा है। आज का ज्ञानप्रसाद लेख परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य रचना “गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि” पर आधारित है। सच्ची साधना द्वारा माँ गायत्री से वार्तालाप करना तो अवश्य संभव है लेकिन समझने वाली यह है कि वार्तालाप का उद्देश्य शेयर मार्किट का  उतार-चढ़ाव है यां विश्वकल्याण, समाजिक उत्थान आदि। समाजिक और व्यक्तिगत प्रश्नों के बीच बहुत ही Fine dividing line है, इसलिए उचित होगा कि हम  गुरुकुल की आध्यात्मिक गुरुकक्षा में, गुरुचरणों में  समर्पित होकर ही गुरुज्ञान द्वारा इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने का प्रयास करें। गुरुकुल के  सभी साथिओं से निवेदन है कि गुरुज्ञान के  एक-एक शब्द की जन्म घुंटी जो अमृतधारा के समान है,इसका स्वयं अमृतपान करें एवं औरों को अमृतपान कराके पुण्य के भागीदार बनें क्योंकि ज्ञान सर्वोत्तम दान है।

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गायत्री उपासना की सुनिश्चित प्रतिक्रिया यह होती है कि साधक का अन्तःकरण सद्भावनाओं में, मस्तिष्क सद् विचारणाओं में और शरीर सत्प्रवृत्तियों में अधिकाधिक रूचि लेने लगता है और अपने अनुकूल गतिविधियों में अभ्यास बढ़ने लगता है। यही देवत्व की दिशा में प्रगति है। देवत्व की  दिशा में जितना ही आगे बढ़ा जायेगा उसी अनुपात से साधक में दिव्य तत्त्व की मात्रा का विस्तार होगा। “आध्यात्मिक चुम्बकत्व (Spiritual magnetism)”  बढ़ाने का प्रतिफल यह होता है कि जगतद्धात्री, विश्वशक्ति- ऋतम्भरा प्रज्ञा- गायत्री माता का सान्निध्य बढ़ता जाता है और इस प्रगति-क्रम पर चलते हुए स्थिति यहाँ तक जा पहुँचती है कि उस दिव्य शक्ति के साथ परामर्श, विचार-विनिमय एवं आदान- प्रदान का क्रम चल पड़ता है। 

पाठकों के समक्ष यह बात क्लियर करने की आवश्यकता है कि माँ गायत्री  से वार्तालाप उस तरह तो नहीं होता जैसा कि दो मनुष्यों के बीच चलता है लेकिन अन्तर्ध्वनि की प्रतिध्वनि इस प्रकार होने लगती है जिससे यह पता चले कि प्रश्न का उत्तर दूसरी ओर से आ रहा है। यह एक ऐसी सांकेतिक भाषा है जिसे समझ पाना  हर किसी के लिए संभव नहीं होता,मात्र वही  समझ पाते  हैं जो “गायत्री महातत्त्व” के अधिक निकट पहुँच चुके हैं और उसके जैसे ही बन चुके हैं। 

पानी में हवा मिली होती है लेकिन उसे हर कोई प्राणी नहीं खींच सकता। मछली की तरह अनेकों जलचरों के लिए ही यह संभव होता है कि वे अपनी विशेष बनावट के आधार पर पानी में से हवा का आवश्यक अंश खींच कर अपनी आवश्यकता पूरी करते रहते हैं। जलचरों को ईश्वर ने अलग से शरीर दिए हैं जो उन्हें पानी में जीवित रखते हैं। मनुष्य के शरीर की बनावट पानी में रहने के लिए नहीं बनी हुई है। 

“गायत्री महातत्त्व” की निकटता एवं घनिष्ठता का अभ्यास करते-करते ऐसी स्थिति आ जाती है कि  उसका अंतर्मन स्वयं ही उत्तर देना शुरू कर देता  है। ऐसी उमंगें उठती  हैं जिन्हें “व्यक्तिगत अति उत्साह” कहा जा सकता है। ऐसे उभार विवेक के आधार पर नियन्त्रित करने पड़ते हैं, उन्हें उचित-अनुचित की कसौटी पर कसना पड़ता है नहीं तो  वे उमंगें Over confidence में  “अनर्थ” भी उत्पन्न कर सकती हैं। 

यदि साधक सही अर्थों में “गायत्री उपासना” में उत्तीर्ण हो रहा है तो उसके पवित्र अन्तःकरण में नैतिक एवं उच्चस्तरीय आकांक्षाएँ ही उठती हैं एवं उन आकांक्षाओं के सही उत्तर भी मिलते हैं। साधना की दिव्य ज्योति जैसे-जैसे अधिक प्रकाशित होती जाती है, वैसे-वैसे अन्तरात्मा की ग्रहण शक्ति बढ़ती जाती है। 

जिन पाठकों ने 60-70 के दशक के Diode aur triode वाले रेडियो सेट देखे हैं वो जानते हैं कि उनके भीतर बल्ब लगे होते थे  जिन्हें साधारण भाषा में Tubes कहा जाता था। ट्रांजिस्टर का स्विच आन करते ही इंस्टेंट प्रोग्राम सुना जा सकता है जबकि पुरातन Tubes वाले रेडियो को गर्म होने में कुछ समय लगता था। बिजली का संचार होते ही वोह Tubes प्रकाशमय होते थे और थोड़ी ही देर में  रेडियो का “ध्वनि पकड़ने वाला भाग” दूर कहीं रेडियो स्टेशन में बोल रहे एनाउंसर के शब्द पकड़ने की सक्ष्मता प्राप्त कर लेता था,जाग्रत हो जाता था। यह वोह स्टेज होती थी जब रेडियो स्टेशन से ब्रॉडकास्ट हो रहे शब्द (Sound waves), ब्रह्माण्ड/ईथर तत्त्व में भ्रमण करती सूक्ष्म शब्द-तरंगों को पकड़ने लगता है,रिसीव करने लगता है। यही कारण है कि रेडियो को “रेडियो रिसीवर” भी कहा जाता है (Radio waves को receive करने वाला यंत्र)  इसी क्रिया को ‘रेडियो बजना’ कहते हैं। 

साधना की सार्थकता तब तक प्रमाणित नहीं समझी जा सकती जब तक वह साधक के अंतःकरण में एक “इलेक्ट्रिक करंट” पैदा नहीं कर पाती। इलेक्ट्रिक करंट पैदा होते ही मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के बल्ब दिव्य ज्योति से जगमगाने लगते हैं। यही वोह प्रकाश है जिसका सीधा प्रभाव साधक की अन्तरात्मा पर पड़ता है; उसकी सूक्ष्म चेतना जाग्रत हो जाती है और दिव्य सन्देशों को, ईश्वरीय आदेशों को, प्रकृति के गुप्त रहस्यों को समझने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार साधक का अन्तःकरण रेडियो का उदाहरण बन जाता है और उसके द्वारा सूक्ष्म जगत की बड़ी- बड़ी रहस्यमय बातों का प्रकटीकरण होने लगता है।

यहाँ एक और बड़े  ही महत्वपूर्ण तथ्य को समझने की आवश्यकता है।  दर्पण जितना स्वच्छ निर्मल होगा,उसमें दिखने वाली  प्रतिच्छाया उतनी ही स्पष्ट दिखाई देगी। मैला दर्पण धुँधला होता है, उसमें चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ता। नियमित, निरंतर एवं नियत साधना की प्रक्रिया से अन्तरात्मा निर्मल हो जाती है और उसमें दैवी तत्त्वों का, ईश्वरीय संकेतों का अनुभव स्पष्ट रूप से होता है। अँधेरे में क्या हो रहा है, यह जानना कठिन है लेकिन  दीपक जलते ही क्षण भर में अन्धकार में छिपा हुआ सब कुछ प्रकट हो उठता है और सारे रहस्य एकदम क्लियर दिखने लगते हैं। 

अक्सर देखा गया है कि साधकों को स्वप्न में/जाग्रत अवस्था में माँ गायत्री  के दर्शन करने का दिव्य चक्षुओं को लाभ मिलता है और उसके सन्देश सुनने का दिव्य कानों को सौभाग्य प्राप्त होता है। किसी को प्रकाशमयी ज्योति के रूप में, किसी को अलौकिक दैवी रूप में, किसी को स्नेहमयी नारी के रूप में दर्शन होते हैं,किसी को माँ गायत्री के सन्देश प्रत्यक्ष वार्तालाप जैसे प्राप्त करते हैं, किसी को किसी बहाने से  घुमा-फिराकर बात सुनाई या समझाई गई प्रतीत होती है, कइयों को आकाशवाणी की तरह स्पष्ट शब्दों में आदेश होता है। यह साधकों की विशेष मनोभूमि (Special mindset) पर निर्भर है, क्योंकि हर एक का mindset अलग है तो इस तथ्य को generalize करना अनुचित होगा।

DSVV के प्रांगण में प्रज्ञेश्वर महाराज जी के मंदिर के शिवलिंग में गुरुदेव की छाया का दिखना भी इसी Mindset के अंतर्गत हो सकता है। साथिओं को स्मरण होगा कि आदरणीय डॉ चिन्मय जी के विचार भी कुछ इसी तरह के थे।    

लेकिन एक तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता  नियमित, निरंतर एवं नियत साधना से हर एक साधक माँ के समीप पहुँच सकता है और उससे अपनी आत्मिक स्थिति के अनुरूप स्पष्ट या अस्पष्ट उत्तर प्राप्त कर सकता है। 

एकान्त स्थान में शान्तचित्त होकर आराम से शरीर को ढीला करके बैठें, चित्त को चिन्ता से रहित रखें, शरीर और वस्त्र शुद्ध हों। नेत्र बन्द करके प्रकाश ज्योति या हंसवाहिनी के रूप में हृदय स्थान पर गायत्री शक्ति का ध्यान करें और मन ही मन अपने प्रश्न का भगवती के सम्मुख बार-बार दुहरावें। यह ध्यान दस मिनट करने के उपरान्त तीन लम्बे श्वास इस प्रकार खींचे मानो अखिल वायुमण्डल में व्याप्त महाशक्ति साँस द्वारा प्रवेश करके अन्तःकरण के कण-कण में व्याप्त हो गई है। अब ध्यान बन्द कर दीजिए, मन को सब प्रकार के विचारों से बिलकुल शून्य कर दीजिए। अपनी ओर से कोई भी विचार न उठावें। मन और हृदय सर्वथा विचार-शून्य हो जाना चाहिए। इस शून्यावस्था में अन्तःकरण में Vibration  होती है, जिसमें अनायास ही कोई ऐसा भाव उपज पड़ता है,अंतरात्मा में अचानक  कोई विचार इस प्रकार उठता है मानो “किसी अज्ञात शक्ति” ने  यह उत्तर सुझाया हो। 

पवित्र हृदय जब उपयुक्त साधना द्वारा दिव्य पवित्रता से परिपूर्ण हो जाता है तो सूक्ष्म दिव्य  शक्ति जो अन्तरात्मा और परमात्मा में समान रूप से व्याप्त है, उस पवित्र हृदय पटल पर अपना कार्य करना आरम्भ कर देती है और कई ऐसे प्रश्नों, संदेहों और शंकाओं का उत्तर मिल जाता है जो पहले विवाद, सन्देह एवं रहस्य की परतों के बीच डूबे हुए थे। 

यदि यह क्रम व्यवस्थापूर्वक आगे बढ़ता रहे तो आने वाले समय में  उस शरीर रहित दिव्य माता से उसी प्रकार वार्तालाप करना सम्भव हो सकता है जैसा जन्म देने वाली नर-तनधारी माता से होता है। 

यहाँ यह  कहना उचित समझते हैं कि माता से वार्तालाप का विषय अपनी निम्न कोटि की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होना चाहिए।  आर्थिक प्रश्न, लोभ, स्वार्थ, सांसारिकता आदि के प्रश्न अन्तःकरण की उस पवित्रता का नष्ट कर देते हैं, जो माता से वार्तालाप करने के सम्बन्ध में आवश्यक है। सौदेबाज़ी में चोरी की  गई वस्तु, जमीन में गढ़ा धन, शेयर मार्किट में तेजी-मन्दी, सट्टा, लाटरी, हार-जीत, आयु, सन्तान, स्त्री, मुकदमा,नौकरी, लाभ, हानि जैसे प्रश्नों को माध्यम बनाकर जो लोग उस दैवी शक्ति से वार्तालाप करना चाहते हैं, वे माता की कृपा के अधिकारी नहीं समझे जाते। ऐसे अनाधिकारी लोगों के प्रयत्न असफल रहते हैं। उनकी मनोभूमि में  कोई दैवी सन्देश आते ही नहीं, यदि आते हैं तो वे माता के शब्द न होकर अन्य स्रोतों से उद्भूत हुए होते हैं, फलस्वरूप उनकी सत्यता सन्दिग्ध होती है।

माता से वार्तालाप आध्यात्मिक, धार्मिक, आत्मकल्याणकारी, जनहितकारी, परमार्थिक, लोकहित के प्रश्नों को लेकर करना चाहिए। कर्तव्य और अकर्तव्य की गुत्थियों को, विवादास्पद विचारों, विश्वासों और मान्यताओं को लेकर यह वार्तालाप आरम्भ होना चाहिए। इस प्रकार के वार्तालाप में अपने तथा दूसरे मनुष्यों के पूर्व जन्मों, पूर्व सम्बन्धों के बारे में भी कई महत्त्वपूर्ण बातें प्रकाश में आती हैं। जीवन-निर्माण के सुझाव मिलते है तथा ऐसे संकेत मिलते हैं, जिनके अनुसार कार्य करने पर इसी जीवन में आशाजनक सफलताएँ प्राप्त होती हैं। सद्गुणों का, सात्विकता का, मनोबल का, दूरदर्शिता का, बुद्धिमता का तथा आन्तरिक शान्ति का उद्भव तो अवश्य होता है। इस प्रकार माता का वार्तालाप साधक के लिए सब प्रकार कल्याणकारक ही सिद्ध होता है।

इस दिशा में ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साधकों के बारे में कुछ कहा जाये तो “बड़ी छलांग” जैसी बात होगी लेकिन अनेकों साथिओं ने, अनेकों बार माँ गायत्री से वार्तालाप किया है, समाधान पाया है। गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस पर प्रकाशित होने वाली वार्षिक अनुभूतियाँ इसका साक्षात् प्रमाण हैं।यह वार्तालाप इसलिए संभव हो पाता है कि यह परिवार व्यक्तिगत न होकर विश्वकल्याण के लिए कार्यरत है। 

समापन,जय गुरुदेव

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कल वाले लेख   को 644    कमैंट्स मिले  एवं 16    युगसैनिकों ने 24 से अधिक कमेंट करके ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की इस अनूठी एवं  दिव्य यज्ञशाला की शोभा को कायम रखा गया  है। सभी को हमारी बधाई एवं  धन्यवाद।


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