वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गायत्री मंत्र लेखन-एक महान साधना -पार्ट 2

परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि” पर आधारित  दो भागों की लेख श्रृंखला का यह दूसरा एवं अंतिम भाग है। हमारे अथक प्रयास के बावजूद ओरिजिनल कंटेंट में  Repetition को टालना असंभव ही रहा। हमारे साथी अनायास ही बोल उठेंगें  कि  यह तो हमने कल भी पढ़ा था यां फिर ऐसा भी कह सकते कि यह सब तो हम पहले भी कर रहे हैं /जानते हैं। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि कमैंट्स स्वयं ही बता रहे हैं कि लगभग सभी सहकर्मी न केवल स्वयं मंत्र लेखन साधना कर रहे हैं बल्कि अपने बच्चों से भी करवा रहे हैं। कल वाले लेख पर पोस्ट हुए कमेंटस  कितनों को प्रेरित कर पाए, यह तो कहना कठिन है लेकिन हम दोनों को तो अवश्य ही प्रेरित किये हैं और हमने लेखन पुस्तिका प्राप्त करने के प्रयास का शुभारम्भ भी कर दिया है।

“गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि” एक अद्भुत रचना है, कल इस अमृतकलश में से ही एक और अनमोल रत्न की चकाचौंध  से हमारा जीवन जगमगा रहा है, ऐसा हमारा विश्वास है।         

तो आइये गुरुकुल की गुरुकक्षा में, गुरुचरणों में  समर्पित होकर इस गुरुज्ञान का अमृतपान करें। गुरुकुल की आध्यात्मिक गुरुकक्षा का एक-एक शब्द जन्म घुंटी की अमृतधारा की भांति है। इस अमृतधारा को ग्रहण करते ही कायाकल्प होना निश्चित है, हम सब इस तथ्य के साक्षी हैं।

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मंत्र लेखन साधना में जप की अपेक्षा कुछ सुविधा रहती है। किसी भी स्वच्छ स्थान पर हाथ- मुँह धोकर, धरती पर, तख्त  या मेज- कुर्सी पर बैठ कर भी मंत्र लेखन का क्रम चलाया जा सकता है। स्थूल रूप कुछ भी बने लेकिन पूर्ण श्रद्धा के साथ लेखन कार्य करना चाहिए । उपासनागृह में,आसन पर बैठ कर मंत्र लेखन जप की तरह करना सबसे अच्छा है। मंत्र लेखन की कॉपी की तरह यदि उस कार्य के लिए कलम भी पूजा  उपकरण की तरह अलग रखी जाय तो अच्छा है। सामान्यक्रम भी लाभकारी तो होता ही है।

1. गायत्री मंत्र लेखन करते समय गायत्री मंत्र के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।

2. मंत्र लेखन में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।

3. स्पष्ट व शुद्ध मंत्र लेखन करना चाहिए।

4. मंत्र लेखन पुस्तिका को स्वच्छता में एवं  उपयुक्त स्थान पर ही रखना चाहिए।

5. मंत्र लेखन किसी भी समय किसी भी स्थिति में व्यस्त एवं अस्वस्थ व्यक्ति भी कर सकते हैं।

1. मंत्र् लेखन में हाथ,मन,आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है।

2. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की लगन पैदा होती है जिससे मन की अनुशासनहीनता  समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है।

3. मंत्र लेखन से मन पर चिरस्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है।

4. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है।

5. मानसिक अशान्ति, चिन्तायें मिट जाती हैं एवं स्थाई रूप से शान्ति का द्वार खुलता है।

6. मंत्र योग की अनेकों किस्में हैं, सभी का अपना-अपना लाभ है लेकिन “मंत्र जप”  की तुलना में “मंत्र लेखन” बहुत ही सुगम है। मंत्र लेखन से “मंत्र सिद्धि” में अग्रसर होने में सफलता मिलती है।

7. “ध्यान” लगाने में सबसे बड़ी समस्या मन को केंद्रित करने में आती है। मंत्र लेखन से ध्यान लगाना भी सुगम हो जाता है।

8. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में 10  गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है।

साधारण कापी और साधारण कलम/ स्याही से गायत्री मंत्र लिखने का नियम उसी प्रकार बनाया जा सकता है जैसा कि दैनिक जप एवं अनुष्ठान का व्रत लिया जाता है। सरलता यह है कि नियत समय पर, नियत मात्रा में करने का उसमें बन्धन नहीं है और न ही यह नियम है कि इसे स्नान करने के उपरान्त ही किया जाय। इन सरलताओं के कारण कोई भी व्यक्ति अत्यन्त सरलता पूर्वक इस साधना को करता रह सकता है।

विशिष्टता का समावेश तो जीवन के हर कार्य में किया जाता है। भोजन करना तो दैनिक जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया  है लेकिन यदि उस में उच्चस्तरीय उत्कृष्टता का समावेश कर दिया जाय तो उसे भी एक तप साधना समझा  जा सकता है और आहार साधना करते रहने भर से भी उच्च मन, उच्च अन्तःकरण प्राप्त करते हुए आत्मिक प्रगति की उच्चतम स्थिति तक पहुँचा जा सकता है। 

“ब्रह्मचर्य” का स्तर जब “जननेन्द्रिय संयम (Sexual control)” से ऊँचा उठकर नेत्र और मस्तिष्क क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो जाता है तो ऐसी साधना भी परब्रह्म के मिलन तक पहुँचा देती है। यदि बुरी दृष्टि  और अश्लील चिन्तन मिट सके और अन्तःकरण में बौद्धिक एवं भावनात्मक ब्रह्मचर्य की प्राण प्रतिष्ठा हो सके तो वह तप भी परम सिद्धिदायक हो सकता है। 

अनार की लकड़ी से बनी कलम का, रक्त चंदन में केसर मिलाकर बनाई गई स्याही का, भोजपत्र अथवा हाथ के बने कागज का विशेष महत्त्व माना गया है। स्याही में गंगाजल का प्रयोग हो तो और भी दिव्य हो सकती है। लिखते समय मौन रहा जाय, पद्मासन या सिद्धासन में ही बैठा जाय, स्नान एवं शुद्ध वस्त्र धारण का ध्यान रखा जाय। दिन में लिखना हो तो सूर्य के सम्मुख, रात्रि में लिखना हो तो गौघृत से जलने वाले दीपक के प्रकाश में लिखा जाय। 

सर्वसाधारण के लिए अति सरल साधना के रूप में गायत्री मंत्र लेखन का यह बहुत संक्षिप्त सा विवरण था,इसीलिए  इसे सर्वसुलभ कहा जा सकता है। इसमें किसी प्रकार का प्रावधान न होना एक बहुत बड़ी बात है। कई व्यक्ति उपासना के इच्छुक होते हुए भी स्नान, स्थान, समय, विधान आदि में कठिनाई अनुभव करते हैं और असमंजस के कारण जो कर सकते थे उतना भी नहीं कर पाते। ऐसे लोगों के लिए मंत्र लेखन साधना ही सबसे सुगम और सर्वथा असमंजस रहित सिद्ध होती है। इसे किसी भी सुविधा के समय में किया जा सकता है। शुद्धता का यथासंभव ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए लेकिन  वैसा न बन पड़े तो इसमें किसी अशुभ की आशंका की आवश्यकता नहीं है। बीमार लोग उसे चारपाई पर बैठे-बैठे भी करते रह सकते हैं। रोग शय्या पर पड़े-पड़े कितने ही लोग मंत्र लेखन अनुष्ठान पूरे कर लेते हैं और उसके आत्मिक तथा सांसारिक सत्परिणाम प्राप्त करते हैं।

जप साधना में मंत्रोच्चार शुद्ध होना आवश्यक है। अनुष्ठानों में मार्गदर्शक एवं संरक्षक की आवश्यकता पड़ती है। साधना में कही हुई त्रुटियों का निराकरण करने के लिए या तो स्वयं तर्पण मार्जन करना पड़ता है या फिर दोष परिमार्जन का उत्तरदायित्व किसी उपयुक्त संरक्षक पर छोड़ना पड़ता है। इन्हीं कारणों से गायत्री की विशिष्ट एवं सफल साधना के लिए

तपस्वी एवं अनुभवी गुरू की तलाश करनी पड़ती है। वह व्यवस्था न बन पड़े तो अभीष्ट सत्परिणाम में भी कमी रह जाती है। 

मंत्र लेखन में वैसी कोई आवश्यकता नहीं है। उसका शुभारम्भ बिना किसी मार्गदर्शक या गुरू की सहायता के स्वेच्छापूर्वक किया जा सकता है। इसमें नर-नारी, बाल-वृद्ध, रोगी- निरोग,जाति,वंश जैसा कोई बन्धन, रूढ़िवादी लोगों की दृष्टि से भी नहीं है जो इस महामंत्र पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाते हैं। 

जप साधना में उच्चारण का  शुद्ध और सही होना, किस अक्षर को किस प्रकार बोला जाय,इसका अभ्यास होना बहुत आवश्यक है। दीक्षा में यही शुद्धि कराई जाती है। उच्चारण की शुद्धि का अभ्यास कराना “साधना गुरू” का उत्तरदायित्व है। उसके लिए उपयुक्त अभ्यासी और अनुभवी गुरू ढूँढ़ना पड़ता है लेकिन  “मंत्र लेखन” में उस प्रकार की आवश्यकता नहीं है। हाँ यह तो ध्यान रखना ही पड़ता है कि लेखन में अक्षर शुद्ध हैं या नहीं, इसके अतिरिक्त मंत्र लेखन में और कोई झंझट नहीं है। अक्षरों की अशुद्धि न होने पावे इसके लिए मंत्र लेखन की प्रिंटेड कापियां उपलब्ध हैं जिनमें पहली पंक्ति प्रिंट की होती है, इस पंक्ति की नकल करते चलने में अक्षरों की अशुद्धि की कोई आशंका नहीं रह जाती।

मंत्र लेखन की  सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि उसमें सब ओर से ध्यान एकाग्र रहने की व्यवस्था रहने से अधिक लाभ होता है। जप में केवल जिह्वा का ही उपयोग होता है और यदि माला जपनी है तो उंगलियों को काम करना होता है। “ध्यान” साथ-साथ न चल रहा हो तो मन  इधर-उधर भटकने लगता है लेकिन मंत्र लेखन से स्वयं एवं सहज ही कई इन्द्रियों का संयम जोड़  बन पड़ता है । हाथों से लिखना पड़ता है,आंखें लेखन पर टिकी रहती हैं, इस क्रिया में मस्तिष्क का उपयोग भी होता है, ध्यान न रहेगा तो पंक्तियाँ टेढ़ी एवं अक्षर सघन विरत एवं नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े होने का डर रहेगा, ध्यान न टिकेगा तो मंत्र अशुद्ध लिखा जाने लगेगा,अक्षर कुछ से कुछ बनने लगेंगे। यही कारण हैं जो लेखन में अपनेआप  ही ध्यान का अधिक समावेश करने लगते हैं । 

समापन जय गुरुदेव 

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कल वाले लेख   को 632   कमैंट्स मिले  एवं 15   युगसैनिकों ने 24 से अधिक कमेंट करके ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की इस अनूठी एवं  दिव्य यज्ञशाला की शोभा को कायम रखा गया  है। सभी को हमारी बधाई एवं  धन्यवाद।


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