वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आत्मबोध के लिए बहुत आवश्यक है एकान्त सेवन

आज का ज्ञानप्रसाद लेख अखंड ज्योति जून 1940  के उस लेख पर आधारित है जो न जाने कितनों को आत्मबोध, आत्मज्ञान एवं जाग्रति का पाठ  पढ़ा चुका है और कितने ही पदार्थवाद, भौतिकवाद,मोहमाया के बंधनों से मुक्ति पाकर जीवन की वास्तविकता को स्वीकार कर चुके हैं। गुरुदेव इस लेख में सावधान भी कर रहे हैं कि एकान्त सेवन का अर्थ घर-गृहस्थी छोड़कर, कपडे फाड़कर जंगलों की ओर  भाग दौड़ना नहीं है। अपने कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन करते हुए भी हम पक्के संन्यासी बने रहे सकते हैं। 

यह पंक्तियाँ हमारी आदरणीय बहिन पुष्पा सिंह जी एवं अनेकों साथिओं के लिए एक प्रबल Sign board का काम कर सकती हैं जिन्हें परिवार की ओर से विरोध का सामना करना पड़ता है। गुरुदेव की बताई शिक्षा हमें जीवन में बैलेंस के महत्व को समझा रही है। उस साधना का क्या लाभ जिससे परिवार में कलह का माहौल बने। 

उचित रहेगा कि गुरुकुल की गुरुकक्षा में ही समर्पित होकर इस गुरुज्ञान का अमृतपान किया जाए। 

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अपने साधकों को हमारी शिक्षा है कि वे नित्य “कुछ दिन एकान्त सेवन ” करें। यह जरूरी नहीं है कि वे किसी जंगल, नदी या पर्वत पर ही जावें। अपने आसपास ही कोई शांत स्थान चुन लो। कुछ भी सुविधा न हो तो अपने कमरे के सब किवाड़ बन्द करके अकेले बैठो। यह भी न हो सके तो शोरगुल  से रहित स्थान में बैठकर आँखें बन्द कर लो  या चारपाई पर लेटकर हल्के कपड़े से स्वयं  को ढक लो। शान्तचित्त होकर मन ही मन जप करो:“मैं अकेला हूँ, मैं अकेला हूँ।” अपने मन को यह अच्छी तरह अनुभव करने दो कि मैं एक स्वतंत्र अविनाशी सत्ता हूँ। न कोई मेरा और न में किसी का हूँ। आधे घण्टे तक अपना सारा ध्यान इसी क्रिया पर एकत्रित करो। अभ्यास के कुछ दिनों बाद एकान्त में ऐसी भावना करो कि “मैं मर गया हूँ और  मेरा शरीर और दूसरी संपूर्ण वस्तुएं मुझसे दूर पड़ी हुई हैं।”

उपरोक्त छोटे से साधन को हमारे प्राणप्रिय अनुयायी आज से ही आरम्भ करें। वे यह न पूछें  कि इससे क्या लाभ होगा? मैं आज बता भी नहीं रहा हूँ कि इससे किस प्रकार क्या हो जायगा किन्तु शपथ पूर्वक कहता हूँ कि आप सच्चे “आत्मज्ञान, आत्मबोध,जाग्रति” की ओर बढ़ जाएंगें।  साँसारिक चोर, पाप, दुष्ट दुष्कर्म, बुरी आदतें, नीच वासनायें, और नरक की ओर घसीट ले जाने वाली कुटिलताओं से छुटकारा मिल जायगा। पापमयी पूतनाओं को छोड़ने के लिए भांति-भांति के  प्रयत्न किये जाते रहते हैं  लेकिन वे छाया की भाँति पीछे-पीछे दौड़ती रहती है पीछा नहीं छोड़तीं। 

मैं अकेला हूँ, केवल सोच लेना ही पर्याप्त न होगा बल्कि यह भावना मन के ऊपर गहरी-गहरी एवं और गहरी अंकित हो जानी चाहिये। अभ्यास इतना बढ़ जाना चाहिए कि जब अपने बारे में सोचो, तो सोचो कि “मैं अकेला हूँ।” हर घड़ी अपने को संसार की समस्त वस्तुओं से,सागर में तैर रहे कमल पत्र से ऊपर उठा हुआ समझो।

मैं कहता हूँ कि यह साधन तुम्हें “मनुष्य से देवता ( देवता अर्थात देने वाला)” बना देने में पूरी तरह समर्थ है।

हम सब देखते हैं कि मनुष्य इस संसार में अकेला आता है और अकेला ही कूच कर जाता है। जीवन में जो सुख-दुख प्राप्त होते हैं वह अकेले को ही होते हैं कोई दूसरा उसमें भागीदार नहीं होता। जिस समय हम रोगी होते हैं, किसी पीड़ा से व्यथित होते हैं, क्या उस समय का कष्ट कोई बाँट लेता है? कोई प्रेमी बिछुड़ गया है, किसी के द्वारा सताये जा रहे हैं, अपनी वस्तुएं नष्ट हो गई हैं, परिस्थितियों में उलझ गये हैं उस समय जो घोर “मानसिक वेदना” आपको हो रही होती है उसका अनुभव हम स्वयं ही करते हैं । दूसरे लोगों की सहानुभूति/सहायता ( Lip sympathy) कभी-कभी मिल भी जाती है लेकिन  वह मात्र “बाहरी उपचार” होता है। किसी भौतिक अभाव का कष्ट हुआ और बाहर की मदद मिल गई, तब तो दूसरी बात है अन्यथा उन दैवी विपत्तियों में, जिनमें मनुष्य का कोई वश नहीं चलता, सारा कष्ट अकेले में, एकाँत में  ही भोगना पड़ता है। सुख भी एकान्त में ही मिलता है। 

मैं मिठाई खा रहा हूँ, मैं ऐश्वर्य भोग रहा हूँ, मैं सम्पत्तिशाली हूँ, मैं विद्वान हूँ, सब ठीक है। ईश्वर ने जिन्हें भी यह विभूतियाँ प्रदान की हैं वोह सहयोग भी करते हैं, दान, त्याग,भिक्षा आदि भी देते हैं लेकिन सच्चा/वास्तविक सुख तो उसी को मिलता है जिसके पास यह विभूतियाँ हैं। 

मनुष्य का सारा “धर्म-कर्म एकान्तमय” है। उसे अपनी परिस्थितियों पर स्वयं विचार करना पड़ता है, अपनी  लाभ/हानि का निर्णय स्वयं करना पड़ता है।अपने उत्थान/पतन के साधन स्वयं उपलब्ध करने पड़ते हैं। इस संघर्षमय दुनिया में जो अपने पाँवों पर खड़ा होकर,अपने बलबूते पर चलता है वह कुछ दूर चल लेता है, आगे  बढ़ जाता है और अपना स्थान अवश्य ही प्राप्त कर लेता  है लेकिन  जो दूसरों के कन्धे पर निर्भर  रहता है, दूसरों की सहायता पर आश्रित है, वह भिखारी  की तरह कुछ-कुछ  प्राप्त तो कर ही लेता है लेकिन  निर्जीव पुतले, बुद्धि रहित कीड़े-मकोड़े  की भांति जैसे-कैसे जीवन की साँसें ही पूरी करता है। क्या ऐसा मनुष्य सिर उठा कर कह सकता है कि यह मैंने किया है,अपने कृत्यों पर गर्व कर सकता है ?कदापि नहीं, क्योंकि वोह उपलब्धियां उसकी अपनी, स्वयं की तो है ही नहीं।  

मनुष्य के वास्तविक सुख-दुख,लाभ-हानि, उन्नति-पतन, बंधन-मोक्ष का जहाँ तक संबंध है वह सब एकान्त के साथ जुड़े हुए हैं। गुरुदेव ने पदार्थवाद का सदा ही विरोध किया है, उसी सन्दर्भ में डांटते हुए लिखते हैं कि मनुष्य इन खेलने की वस्तुओं के साथ मोह-बन्धन में बंधकर स्वयं चाबी वाला खिलौना सा बन गया है। अक्सर देखा जाता है कि धन की, पद की, मोह की  एवं अन्य किसी भी तरह की चाबी उसमें भर दो और जो चाहे करवा लो, जितनी देर नचवा लो। मनुष्य ने पदार्थों पर मोहित होकर, स्वयं को भी “एक पदार्थ” समझ लिया और उसी तरह अपना प्रयोग कराना शुरू कर दिया जैसे एक पदार्थ का किया जाता है -Human beings are being treated like a commodity, उसमें इतनी बुद्धि और शक्ति ही नहीं रह गयी है कि वोह गर्व से कह सके कि मैं कोई “चीज़” नहीं हूँ। बॉलीवुड ने गीत के लिरिक्स भी ऐसे लिखने शुरू कर  दिए “तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त- – -” क्या यही है मानव का अस्तित्व ? और वोह भी आगे से यही कहती है, “मैं चीज़ बड़ी हूँ मस्त मस्त।”   

गुरुदेव बताते हैं वास्तविकता यह नहीं है। रुपया,पैसा,जायदाद,स्त्री,कुटुम्ब आदि हमें अपने दिखाई देते हैं लेकिन वास्तव में हैं नहीं। यह सब चीजें शरीर की सुख सामग्री हैं, शरीर छूटते ही इनसे सारा संबंध क्षण भर में छूट जाता है, फिर कोई किसी का नहीं रहता, रहता है तो केवल परिवार, बेटे बेटियां जो Will (वसीयत) को ढूंढने की भागदौड़ कर रहे होते हैं कि  पिताजी हमारे नाम का क्या लिख कर छोड़ गए हैं। सच्चाई तो यही है, इससे जितना भी  मुँह मोड़ लें, झुठला नहीं सकते।  

हर एक वस्तु का अपना स्थान है और अपने कार्यक्रम के अनुसार व्यावहारित होती रहती है। वह न तो किसी को ग्रहण करती है और न किसी को छोड़ती है। भ्रमवश मनुष्य उसे अपना मान कर उसी में  डूबा रहता है। धातुओं के टुकड़े (सोना,चांदी, हीरे, जवाहरात आदि) किसी मनुष्य  के पेट में नहीं धँस सकते और न शरीर में चिपटे रह  सकते हैं। वे एक के हाथ में से दूसरे के हाथ में घूमते रहते हैं।आज आपके हैं, मृत्यु के बाद आपके बच्चों के हैं और इसी तरह कभी न रुकने वाला जीवन का चक्र, जीवन की गाड़ी चल रही है,चलती रहेगी। विज्ञान भी इसी तथ्य का समर्थन करता है और कहता है : Everything in this universe is in a state of constant motion, अर्थात हमें जो कुछ भी दिख रहा है (चाहे रुका हुआ ही क्यों न हो ) चल रहा है। इसलिए कहा गया है कि संसार परिवर्तनशील है। हर कोई  अपनी निश्चित धुरी पर घूम रहा है,अपने कार्यक्रमों को पूरा कर रहा है। इस परिवर्तन की स्थिति में किसी के जीवन का कुछ भाग हमारे जीवन के साथ Match कर गया तो हम समझ लेते हैं कि वे हमारे और हम उनके हो गये लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। 

हमारे पाठक जो इस समय इन पंक्तियों को बड़े ध्यान से पढ़ रहे हैं Confuse न हो जाएँ,उनके लिए यही उचित रहेगा कि वोह इतना ही संतोष कर लें कि यह फिलॉसोफी और विज्ञान के ऊपरी स्तर की बातें हैं, मनुष्य से देवता बनने के लिए बहुत सहायक तो हैं लेकिन – – – – 

सूर्य की धूप और चन्द्रमा की चाँदनी में बैठकर हम समझ बैठते हैं कि यह हमारे अपने हैं ,उन पर अपना आधिपत्य जमाना शुरू कर देते हैं। चार खेतों को जोत कर किसान उन पर अपना आधिपत्य जमाता है। 

बच्चो तुम भूल रहे हो यह सम्पूर्ण वस्तुएं एक महान लाभ पर अवलंबित हैं और अपना जीवन क्रम पूरा कर रही है, तुमसे उनका केवल उतना ही संबंध है जितना कि तुम उनसे  संबंध रखते हो। असल में वे सब स्वतंत्र हैं। और तुम भी स्वतंत्र। हर चीज अकेली है इसलिये “तुम भी अकेले, बिल्कुल अकेले हो।”

गुरुदेव पाठकों को  विश्वास करने के लिए ही कह रहे हैं। कह रहे हैं कि कुछ भ्र्म हो तो निकाल दें, इन पंक्तियों में मैं उन सब तर्कों का समाधान नहीं कर सकता लेकिन इतना विश्वास अवश्य  दिलाता हूँ कि मैं  सच्ची बात बता रहा हूँ: 

तुम अकेले हो, बिल्कुल अकेले। न तो कोई तुम्हारा है और न तुम किसी के हो । हाँ, “सांसारिक  व्यवस्था  के अनुसार कर्म करना तुम्हारा  कर्तव्य है, धर्म है जिसे किये बिना मनुष्य रह नहीं सकता। अरे मुर्ख, सही मायनों में तू इक्के का घोड़ा ही है। वह सब वस्तुएं जो तेरी नहीं है, जिन्हें तू सारे दिन ढोता है, मात्र सवारियाँ हैं,जिन्हें अपने ऊपर बिठाकर तू सरपट तेजी से दौड़ता रहता है, तेरी कुछ भी नहीं हैं। 

गुरुदेव हमें सावधान भी कर रहे हैं कि हम आपको सन्यास और घर-गृहस्थी छोड़कर वन-वन भटकने का पाठ नहीं पढ़ा रहे हैं जिसके अनुसार लोग कपड़े फाड़कर भिखारी बन जाते हैं और कायरों की भांति डरकर जंगलों में अपनी जान बचाना चाहते हैं। 

कर्मयोग किसी से कम नहीं है। हम अपने कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन करते हुए पक्के संन्यासी बने रहे सकते हैं। यहाँ तो हमारा अभिप्राय यह है कि तुम अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव करते रहो। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का बैलेंस बनाकर जीवनयापन करेंगें तो शीघ्र ही वास्तविकता को  समझ जाओगे जाओगे और अनेकों दुविधाओं से छुटकारा पाने में सफल हो जाओगे। 

समापन 

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704 कमैंट्स,19 अग्रणी  युगसैनिकों ने आज इस ज्ञान की दिव्य यज्ञशाला में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। सभी को हमारी बधाई एवं  धन्यवाद। 


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