6 नवंबर 2024,बुधवार का ज्ञानप्रसाद
आज का ज्ञानप्रसाद भी शृंखला न होकर आज ही समापन होने वाला लेख है। प्रस्तुत लेख इतना सरल है कि इसके लिए कोई भी भूमिका आदि की आवश्यकता भी नहीं दिख रही, सब कुछ क्लियर/स्पष्ट दिख रहा है, लेकिन फिर भी हमारे अंतःकरण में उठ रही दो बातें शेयर कर लें,उसके बाद गुरुकक्षा की ओर कदम बढ़ाएं तो उचित रहेगा।
1. परम पिता परमात्मा, ईश्वर, भगवान् से मित्रता कराता यह लेख अखंड ज्योति नवंबर 1940 वाले अंक पर आधारित है। लिखते समय हमें आभास हो रहा था कि एक-एक शब्द परम पूज्य गुरुदेव के लिए ही लिखा गया है, वही हमारे मित्र हैं। यदि हमारे साथी भी हमारे जैसी भावना लेकर इस लेख का अमृतपान करते हैं तो अवश्य ही वोह स्वयं को गुरुदेव के निकट उनकी गोदी में, अभिभावक जैसा अनुभव करेंगें, उन्हें अपने इतने निकट पाएंगें कि साक्षात् बातें हो रही हैं। गुरुदेव की शक्ति पर तो पहले ही हम सबको अटूट विश्वास है, लेख को मित्रता की भावना से पढ़कर हमारा विश्वास और भी प्रगाढ़ हो जायेगा।
2. कैसा संयोग है कि आज के लेख में मित्रता की शक्ति की वाहवाही हो रही है और कल एकांतसेवन की भूरी-भूरी प्रशंसा की जाने वाली है। एकांतसेवन को इतना उपयोगी बता दिया गया है कि इस मार्ग द्वारा मनुष्य ईश्वर से जुड़ पाने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है।
तो अब उचित रहेगा गुरुकुल की गुरुकक्षा में समर्पित होकर गुरुज्ञान के लिए गुरुचरणों में समर्पित होना।
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“मुझे देखो,मेरे अंदर देखो; मैं तुम्हें दुनिया से बचा लूँगा” किसी धर्म की पुस्तक में यह शब्द ईश्वर की ओर से कहे गये हैं।
परमात्मा की प्रतिज्ञा है कि जो मुझे अपने अंतःकरण में देखते हैं, मैं उन्हें मृत्यु रूप संसार सागर से बचा लेता हूँ। ऐसा देखने से एवं अपने साथ अनुभव करने से, मुझे अपना सच्चा मित्र बनाया जा सकता है।
भगवान जिस सच्चे मित्र की बात कर रहे हैं वह स्वयं ही हैं और उनकी शक्ति इतनी है कि उससे क्षण भर में ही प्राणान्तक कष्टों से बचा जा सकता है। भगवान को अपना न बनाना स्वयं के साथ एक भयंकर हानि करना है।
सांसारिक दुनिया में मनुष्य को हर समय मित्रों की तलाश रहती है। ऐसा भी देखा गया है कि जिसके जितने अधिक मित्र होते हैं, वह उतना ही अधिक प्रसन्न रहता है क्योंकि साथियों से सहारा मिलता है। साथी मनुष्य की खुशी को बढ़ाते हैं,उन्नति का उपाय बताते हैं,कठिनाइयों में सहायता देते हैं और जो कुछ उनसे बन पड़ता है मित्र के लिए करते है। जिस पुरुष की मित्र उसकी पत्नी है उसका घर स्वर्ग है, जिसके साथी-संगी-पडोसी मित्र हैं उसके लिए समाज स्वर्ग है और जिसकी जनता मित्र है उसके लिए देश स्वर्ग है।
“शत्रु” शब्द की कल्पना करते ही कलह, हानि, कष्ट, क्लेश की दुःखदायी तस्वीर आँखों के सामने आ खड़ी होती है। मनुष्य उससे घृणा करता है और यही कारण है कि वह सदैव सच्चे, निःस्वार्थी मित्रों की तलाश में रहता है। जिस किसी ने योग्य व्यक्ति से मैत्री कर ली वह प्रसन्न होता है और जिसने सच्चा/निःस्वार्थ मित्र पा लिया वह मनुष्य स्वयं को धन्य समझता है।
समाज में प्रतिष्ठित लोगों को मित्र बनाने की बड़ी ही प्रचलित प्रथा/रिवाज़ है। इस प्रथा के अंतर्गत ऐसा समझा जाता है कि अगर बड़े लोगों को मित्र बना लिया तो स्वयं कुछ न होते हुए भी अपना सम्मान हो जाएगा, ऐसे सम्बन्ध बनाकर मनुष्य फूला समाता है। हम सब भलीभांति जानते हैं कि ऊंचे हाकिमों के अर्दली/चपरासियों तक के मिज़ाज सातवें आकाश पर रहते हैं। किसी दफ्तर में काम निकलवाने के लिए चपरासी को घूस देकर ही काम बन जाता है।
तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन में सहायकों/मित्रों का स्थान बहुत ऊंचा है। स्वजन, कुटुम्बी, परिवार, सहकारी, सेवक यह सब किसी न किसी रूप में सहायक ही हैं इसीलिए हमारा जीवन प्रसन्नता से भरा हुआ है। यदि यह सब साथी या इनमें से अधिकाँश साथी मनुष्य के शत्रु बन जायं तो समझा जा सकता है कि जीवन कैसा क्लेशमय बन जाता है।
“एक दार्शनिक की दृष्टि में संसार की समस्त संपत्तियों में मित्र का मूल्य सबसे अधिक है।”
हम जानते है कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के समर्पित साथिओं के भी अनेक मित्र होंगे और अनेकों इस तलाश में भी होंगे कि कोई और भी उपयोगी व्यक्ति मिलें तो उनसे मित्रता कर लें । इन पंक्तियों को पढ़ रहे परिवारजन क्या ऐसा नहीं चाहते?, अवश्य ही चाहते होंगें। परम पूज्य गुरुदेव ऐसे व्यक्ति से मित्रता करने की सलाह देते हैं जो चौबीस घंटे का निस्वार्थ साथी है, दिन रात आपके साथ रहता है, जब आप सो भी रहे होते हैं तब भी आपके साथ है। सांसारिक मित्र तो कुछ घंटे साथ रह सकते हैं, वे एक निश्चित समय के लिए हमारे साथ रह सकते हैं। सांसारिक मित्र बहुत सहायक होते हैं लेकिन उनकी सहायता की शक्ति भी बहुत सीमित है। जब तुम दुःख दर्द से छटपटाते हो तो मित्र/पड़ोसी सान्त्वना देते हैं, सहानुभूति प्रकट करते हैं लेकिन ज़ुबान अधिकतर “हे भगवान्” ही पुकारती है क्योंकि सांसारिक साथिओं से कुछ विशेष लाभ नहीं होता, व्याकुलता में कोई अधिक कमी नहीं होती। ऐसा लिखते समय, सच्चे मित्रों के प्रति हमारी कोई दुर्भावना नहीं है बल्कि सच यही है कि उनकी शक्ति बहुत ही थोड़ी एवं सीमित है। दैवी विपत्तियों में मनुष्य की भांति मित्र भी थक-हार कर, हिम्मत छोड़ कर बैठ जाते हैं, ऐसे भी अवश्य होते हैं जो साहस बंधाते हैं। नकली और स्वार्थी मित्रों की बात तो एक तरफ, श्रेष्ठ,निःस्वार्थ एवं निष्ठावान साथी भी विपरीत परिस्थितियों में विपरीत विरोधी या उपेक्षा भाव धारण कर सकते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि अगर कोई मित्र भ्रष्टाचारी है तो उसकी सहायता में कहीं मेरा नाम भी बदनाम न हो जाए, कुष्ठ रोगी की सहायता करते कहीं मुझे ही यह घृणित रोग न लग जाए। ऐसी धारणा के कारण शायद ही कोई कुछ मदद करेगा।
परम पूज्य गुरुदेव जिसको अपना साथी बनाने के लिये उत्साह दे रहे हैं वह ऐसा है जो चौबीस घंटे का साथी हो सकता है। सोते-जागते, खाते-पीते, मल-मूत्र विसर्जन करते, यहाँ और वहाँ सब जगह सर्वत्र साथ रहता है। भीतर अन्तस्थल तक भी पहुँच सकता है। इस मित्र की शक्ति तो साधारण मित्रों की अपेक्षा अनेकों गुनी है और सबसे बड़ी बात यह है कि वह साथी मित्रता के लिए केवल श्रद्धा की ही मांग करता है । ऐसा अच्छा और सस्ता मित्र समस्त पृथ्वी को ढूंढ़ने पर भी और नहीं मिल सकता।
वह मित्र परमात्मा है। वह चौबीस घंटे का साथी है। सचाई की तरह सच्चा और प्रेम की तरह पवित्र है। माता की तरह उसकी ममता है। कई बार शिशु अपनी ऐंठ में जब उलटा-उलटा चलता है तो भी माता उसके पीछे-पीछे रक्षा का प्रयत्न करती है किंतु जब वह सीधा होकर माता की ओर देखता है तो वह प्रेम से गद्-गद् हो जाती है और उसे उठा कर छाती से लगा लेती है।
ऐसा है हमारा परमात्मा नामक मित्र जिसे हम तो भूले रहते हैं लेकिन वह हमें कभी नहीं भूलते। हम तो उन्हें केवल दुविधा में ही याद करते हैं, स्वार्थी जो ठहरे। जब हम उनकी ओर प्रेम की दृष्टि से देखते हैं तो उनकी छाया को अपने अंतःकरण में मुसकराता हुआ देखते हैं।
एक बार ईश्वर हमारे मित्र बन गए तो हम हर घड़ी उनकी गोदी में बैठा हुआ अनुभव करेंगें ।
भगवान अदृश्य हैं, शरीरधारी नहीं हैं, उनसे मित्रता कैसे की जा सकती है, ऐसा सोचना ग़लत है। यह सब भावना और मानने की बात है। जितना भी तुम ईश्वर को अपने निकट मानोगे, उतने ही वोह निकट आते जाएंगें। जिस प्रकार अपने सच्चे मित्र के आगे अपनी समस्या रख देते हो और उससे सलाह माँगते हो उसी प्रकार ईश्वर के सामने अपना हृदय खोल कर रख दो, अपनी उलझनें उनके सन्मुख विस्तारपूर्वक उपस्थित करो और पूछो कि अब क्या करना चाहिये। जैसे-जैसे अपनी मित्रता बढ़ाते जाओगे,स्वयं को उनके प्रति समर्पित करते जाओगे वैसे वैसे वह तुम्हें अपने प्रगाढ़ आलिंगन में लेते जाएंगें । ऐसी स्थिति में सारे दुख-दर्द, सुख-शाँति में परिणित होते जाते हैं। तुम्हें उनके स्वर्गीय संदेश अपने अंदर से आते दिखेंगें।
अनेकों परिस्थितियां जिन्हें देख कर साधारण मनुष्य घबरा जाता है, साहस गवां बैठता है, पीड़ा एवं व्याकुलता से छटपटाता है, ईश्वर पर विश्वास रखने वाला मनुष्य अचल/स्थिर रहता है। उसे अनुभव होता है मानो वह किसी के हाथ का खिलौना मात्र है, किसी के हाथ की कठपुतली है,जिसकी डोर किसी और के हाथ में है । ऐसा मनुष्य अंतर्मन में उठ रहे आदेशों का नियमपूर्वक पालन करता है और जो कुछ भी प्रिय/अप्रिय परिणाम मिलता है उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर सहर्ष शिरोधार्य करता है।
परम पूज्य गुरुदेव ईश्वर को 24 घण्टे का साथी बनाने के लिए आग्रह कर रहे हैं, अपने हृदय मन्दिर में ईश्वर-मित्र की मुस्कराती हुई छाया देखने का आग्रह कर रहे हैं। कह रहे हैं:
हर घड़ी स्वयं को उन्हीं की गोदी में बैठा हुआ सुरक्षित अनुभव करो। एक शरीरधारी व्यक्ति की भांति उनसे बातचीत करो, सम्पूर्ण शरीर को शिथिल करके अपने अन्तरात्मा में से आती हुई दैवीवाणी को सुनो वह तुम्हें हर मामले में चूल्हा फूँकने से लेकर योगाभ्यास तक के कार्यों में सच्ची सलाह देंगें और पथप्रदर्शन करेंगें । उनकी इच्छा को अपनी इच्छा बना दो। अपने चौबीस घण्टे के साथी पर अपना बोझ डाल कर निश्चिंत हो जाओ, तुम पार हो जाओगे और वह तुम्हें पार करा देंगें ।
आज के लेख का समापन भगवान कृष्ण के निम्नलिखित दिव्य सन्देश से तो करते ही हैं लेकिन ऐसा भी अवश्य कहना चाहेंगें कि अगर इस लेख का अमृतपान परम पूज्य गुरुदेव को अनुभव करते किया जाए तो अवश्य ही ह्रदय गदगद हो जायेगा :
तू करता वही है, जो तू चाहता है। होता वही है, जो मैं चाहता हूँ। तू वही कर, जो मैं चाहता हूँ। फिर होगा वही जो तू चाहता है।
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कल वाले लेख को 523 कमैंट्स मिले एवं 12 युगसैनिकों ने, 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है। सभी को बधाई एवं धन्यवाद्