वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आइये मस्तिष्करूपी रेडियो से विचारक्रांति को गति दें

अपने कथन के अनुसार आजकल के ज्ञानप्रसाद लेख किसी लेख-श्रृंखला के न होकर छोटे-छोटे एक ही दिन में समापन होने वाली प्रस्तुतियां हैं। यह वोह लेख हैं जिन्हें हमारी लाइब्रेरी में सेव किया हुआ है एवं जिन्होंने हमें बहुत ही प्रभावित किया है। 

आज प्रस्तुत गए लेख का मुख्य आधार तो नवंबर 1940 की अखंड ज्योति ही है लेकिन उसे समझने के लिए, रोचक बनाने के लिए हमसे जो-जो रिसर्च हो पाई, जितना हमारा मस्तिष्क सहायक हो पाया उनका भी योगदान नकारा  नहीं जा सकता। जो भी हो सभी तरफ से ज्ञान बटोर कर एक दिलचस्प, स्वादिष्ट भोजन साथिओं की थाली में इस भावना से परोसा गया है कि इसका पयपान अवश्य ही आत्मिक तृप्ति का आभास देगा, ऐसा हमारा विश्वास है। यदि कहीं पर भी कोई त्रुटि नोटिस हो तो बेझिझक सूचित करके सहयोग की आशा करते है, अनजाने में हुई इस त्रुटि के लिए ह्रदय की गहराईओं से क्षमाप्रार्थी हैं। 

आज के लेख में मानवीय मस्तिष्क को पुरातन अतिचर्चित घरेलू रेडियो से कनेक्ट करके उसकी वर्किंग को समझने का प्रयास किया गया है। लेख का समापन द्वितीय विश्वयुद्ध के विक्टर फ्रेंकले नामक कैदी  मनोचिकत्सक की सकारात्मक विचारधारा से होता है। 

इसी संक्षिप्त सी भूमिका के साथ गुरुकुल की गुरुकक्षा में गुरुज्ञान के लिए गुरुचरणों में समर्पित होना ही उचित होगा।  

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रेडियो यन्त्र हम सबने  जरूर देखा होगा, दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई या लन्दन, बर्लिन आदि स्थानों पर उच्चारण किये हुए शब्द पलक मारते मारते हमारे  पास तक दौड़ आते हैं। रेडियो यन्त्र अपनी बिजली के कारण उन शब्दों को पकड़ लेता और उन्हें अपनी मशीन में ले जाकर ज्यों का त्यों सुना देता है। नाच, गाने, बातचीत, हँसी, रोना सब ध्वनियाँ ज्यों की त्यों सुनाई देती हैं। इतनी दूरी पर होने वाले शब्द क्षण भर में हमारे पास बिना किसी सहायता के दौड़ आते हैं, है न कितने आश्चर्य की बात ?  

रेडियो के इटालियन अविष्कारक  मारकोनी ने मालूम किया कि अखिल ब्रह्माण्ड में “ईथर” नामक एक “महातत्व” व्याप्त है इसमें ठीक उसी तरह शब्दों की लहरें बहती रहती हैं जैसे किसी तालाब में पत्थर फेंकने पर पानी उछलता है और फिर वह लहरों का रूप धारण करके वहाँ तक चलता है जहाँ तक तालाब का किनारा होता है। ठीक इसी तरह समस्त ब्रह्माण्ड में “ईथर” तत्व व्याप्त है जिसमें  शब्दों की लहरें  बड़ी तीव्र गति से, हजारों मील प्रति सेकंड   से बहती चली जाती  हैं।

तालाब में पत्थर फेंके जाने के सिद्धांत ने मारकोनी से रेडियो का जन्म तो करवा लिया लेकिन इस अविष्कारक के शब्द ह्रदय में उतारने वाले हैं। मारकोनी ने कहा कि यह सब कार्य तो  बहुत ही मामूली कल पुर्जों से होता है,आश्चर्यजनक खोज तो “ईथर तत्व और उसकी क्रियाशीलता” को जानने की थी।

हमारा मस्तिष्क एक जीता जागता रेडियो:

मारकोनी ने “जड़ रेडियो” का आविष्कार किया जिसके द्वारा हमारी आयु के लगभग सभी साथिओं ने मनोरंजन किया होगा। आज के युग में तो यह बेचारा एक Antique ही बन कर रह गया है। 

ईश्वर ने हमें मस्तिष्क के रूप में एक जीता जागता रेडियो दिया है जो  जड़ रेडियो की अपेक्षा कई तरह  से उत्तम है। मस्तिष्क “विचारों” का यन्त्र है जिसमें हर समय अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न होते रहते हैं। 

क्या हर समय बन रहे विचार किसी कोठरी में इकट्ठे होते रहते हैं? 

नहीं, यह विचार “सूक्ष्म ईथर की लहरों” के रूप में चारों ओर फैल जाते हैं। यह जानना बहुत ही सरल है कि किसी निश्चित समय पर मनुष्य के मस्तिष्क में किस प्रकार के विचार उठ रहे हैं। यह उसके हाव-भाव, चेहरे के रंग, ख़ुशी/गमी आदि के रूप में देखे जा सकते हैं। क्रोध  कर रहे मनुष्य की आँखें, चेहरा आदि तीव्र रक्त प्रवाह के कारण भट्ठी की भांति तपा हुआ लाल होता है    

वैज्ञानिकों ने “विचारों की लहरों” के बारे में बहुत रिसर्च की जिनमें से एक निष्कर्ष यह निकला कि विचार भाप की भांति  हवा में इधर-उधर उड़ते रहते हैं, अपने जैसे विचारों को ढूंढते रहते हैं  और अपने जैसों को पाकर उनसे मिल जाते हैं। यह मिलन ठीक भाप के छोटे-छोटे बुलबुलों जैसा होता है जो आपस में मिलकर एक बादल का रूप धारण कर लेते हैं। यह तो हुई विचारों को ब्रह्माण्ड में फेंकने की बात, विचारों के यह मेघ वापिस धरती पर ठीक उसी तरह गिरते हैं जैसे वर्षा गिरती है। मनुष्य जैसा सोचता है, ठीक  कुएं में दी गयी आवाज़ की तरह रिफ्लेक्ट होकर विचारों की बदलियाँ घुमड़-घुमड़ कर मस्तिष्क के पास दौड़ी आती हैं। मस्तिष्क में जो विचार फेंकने की शक्ति है, ऐसी ही शक्ति पर्याप्त मात्रा में मौजूद है जो अपनी इच्छित विचार सामग्री को अपनी ओर  खींच भी सकती है । यही है Law of attraction जो like-minded लोगों को करीब लाता है। 

इस Law के साक्षात् प्रमाण तो हम ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में ही प्रतिदिन दृष्टिगोचर होते देख रहे हैं। दैनिक ज्ञानप्रसाद एवं अन्य सामग्री रोज़ाना  ब्रॉडकास्ट हो रही है,वोह अनजान साथिओं द्वारा न केवल  रिसीव की जा रही है, बल्कि कमैंट्स की शक्ल में रिफ्लेक्ट भी हो रही है। तरह तरह की नवीन जानकारी प्राप्त हो रही है। परम पूज्य गुरुदेव के विचार ब्रह्माण्ड में कहाँ-कहाँ तक पँहुच रहे हैं उसे जानना कठिन ही रहेगा लेकिन विचार प्रसार का हमारा कार्य अनवरत चलता ही रहेगा।    

यह नई बातें कैसे मालूम हुईं? 

जब मनुष्य ने मस्तिष्क को इस्तेमाल करके इसे अधिक से अधिक आकर्षक बनाया तो उसके पास बहुत से उसी की पसंद के  विचार खिंचते चले गए। 

मस्तिष्करूपी रेडियो एक सावधानी से काम में लेने की अमूल्य वस्तु है। कानून के अनुसार हर अमूल्य वस्तु  का “लाइसेंस” लेना पड़ता है और विश्वास दिलाना पड़ता है कि इन वस्तुओं का सदुपयोग करेंगे।  जो कोई भी लाइसेंस के नियमों  का दुरुपयोग करता है उसका लाइसेन्स जब्त कर लिया जाता है और सजा भुगतनी पड़ती है। इसी प्रकार मस्तिष्करूपी बहुमूल्य और अपार शक्ति वाले रेडियो का लाइसेन्स हमें प्राप्त करना चाहिये। उसका ठीक उपयोग करने के लिए पूरी सावधानी रखनी चाहिये अन्यथा अनर्थ हो जाएगा और भारी हानि उठानी पड़ेगी।

अगर मस्तिष्क को एक ब्रॉडकास्ट स्टेशन, सार्वजनिक सम्पत्ति कहा जाये तो शायद गलत न हो। सार्वजनिक सम्पति का  दुरुपयोग करने का कड़ा  जुर्माना देना पड़ता है। आवश्यक होगा कि इस सार्वजनिक सम्पति से  प्रेम, दया, उदारता आदि  के शुभ विचार ही ब्रॉडकास्ट हों,यह शुभ विचार मेघमल्हार की भांति अनेकों के अंतःकरण में शीतलता की रिमझिम वर्षा कर सकते हैं। ब्रह्माण्ड से अवतरित होती यही अमृतवर्षा गुरुदेव के विचार क्रांति अभियान का आधार है। यदि हम अच्छे विचारों का प्रसार करते हैं तो बिना कुछ हाथ-पाँव मारे भी संसार की ऐसी अद्भुत सेवा हो सकती जिसके कारण ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का  ब्रॉडकास्ट हर हृदय के रेडियो पर बड़ी शान्ति एवं रूचि से  सुना जायेगा। इस रेडियो का लाइसेंस प्राप्त करने के लिए गुरुदेव ने हम सबसे परिश्रम की बड़ी पूँजी लगवाई है ताकि हर कोई दिन-रात, फ्री में इसका लाभ उठा सके।   

विचारों के महत्व को समझाते हुए  2000 वर्ष पूर्व जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने अपनी प्रश्नावली में एक प्रश्न रखा था 

विश्व पर कौन विजय प्राप्त करेगा?”

जिसका उत्तर था  कि जो अपने मन पर विजय प्राप्त करेगा। उसका मन ऐसी अवस्था में पहुंच जाएगा जिससे वह अन्य जीवों को अपने विचारों से प्रभावित कर पाएगा। यही कारण है कि  शास्त्रों ने भी “मन” का इतना महत्व बताया है वो चाहे संसारी उपलब्धि हो यां  आध्यात्मिक उपलब्धि । विचारों के लिए हमारे अंतःकरण  की अवस्था ही जिम्मेदार है। हमको लगता है कि हमारे विचारों की चाभी बाहर की परिस्थितियां हैं लेकिन  हम उस अंदर और बाहर की स्थिति की बारीकी को समझ नहीं पाते। हमारे मन में जो ग़लत  विचार आते हैं, ये तो हमारे मन का ही दोष है, जो ऐसे सोच रहा है। मन को समझाने के बजाए हम संसार,आसपास के लोगों,यहाँ तक कि  भगवान को  भी दोषी ठहरा देते हैं। बाहर की परिस्थिति कैसी भी हो यह  हमारी अपनी स्वतंत्रता होती है कि हम कैसे विचार रखें । नकारात्मक विचार रखने के लिए हमें कोई मजबूर नहीं कर सकता। परिस्थितियां कैसी  भी हों, विचार सकारात्मक ही होने चाहिए,तभी  जगद्गुरु शंकराचार्य जी की प्रश्नावली सार्थक होगी और हम  उत्कृष्टता की ओर बढ़ेंगे, तभी विचार क्रांति संभव हो पायेगी।अंदर और बाहर की बारीकी का चित्रण, ऑस्ट्रिया के  विक्टर फ्रेंकले नामक मनोचिकत्सक की आत्मकथा से समझा जा सकता है। द्वितीय विश्व युद्ध में जब जर्मनी में हिटलर का प्रकोप प्रारंभ हुआ तब  हिटलर ने सभी यहूदियों को जेलों  में डाल दिया था और पशु से भी बद्तर व्यवहार किया था। इन कैदियों में विक्टर फ्रैंकले  और इनका परिवार भी था, इन्हें उनकी पत्नी और बच्चों से भी अलग कर दिया था। उन यातनाओं के चलते उनकी पत्नी , बच्चों की मृत्यु हो गई थी। उन्हें भी बहुत कठिन हालातों से गुजरना पड़ रहा था। ऐसी कठिन परिस्थिति में उनको अनुभव हुआ कि स्वतंत्रता, जो  मेरी सबसे बड़ी पूँजी है, उसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता। वो स्वतंत्रता थी “विचारों की स्वतंत्रता”  कि ऐसे हालात में मै क्या सोचता हूं और कैसे बर्ताव करता हूं। मैं दुःखी  रहता हूं या परिस्थिति को स्वीकारते हुए  संतुष्ट रहता हूं। उन्होंने अपनी स्वतंत्रता का उपयोग किया। निश्चय किया कि सकारात्मक ही सोचना है। परिणाम था कि वे हंसते, मुस्कुराते रहते थे और खुश रहने लगे। गार्ड व अन्य कैदी आश्चर्यचकित थे। वे सब लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत  बन गए। असहनीय यातनाओं के कारण जहां 60 लाख लोग मारे गए, वे जीवित रहे। जब जर्मनी हारा,वह  वहां से इजराइल चले गए और उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम था  “Search for meaning in life ”, 300 विश्वविद्यालयों में उनके व्याखान हुए और 29 विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। लगभग 21 भाषाओं में उनकी किताब का अनुवाद हुआ। उन्होंने अपना अनुभव निम्नलिखित पंक्तियों में बताया: 

“बाहर की परिस्थिति को हम हमेशा कंट्रोल नहीं कर सकते, वो तो जैसी है वैसी है, लेकिन हम क्या सोचते हैं, इस पर हमारा पूरा नियंत्रण है। सकारात्मक सोच से हम बड़ी से बड़ी कठिनाई से पार हो  सकते हैं। 

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कल वाले लेख  को 564  कमैंट्स मिले एवं  13   युगसैनिकों ने, 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स)  प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है। सभी को बधाई एवं  धन्यवाद्


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