4 नवंबर 2024, सोमवार का ज्ञानप्रसाद- अखंड ज्योति जनवरी 1976
30 अक्टूबर वाले ज्ञानप्रसाद के सन्दर्भ में हमारी आद सुजाता बहिन जी ने “कारण शरीर के केंद्र” के प्रति जिज्ञासा व्यक्त की थी। उन्होंने दो वीडियोस भी भेजी थीं, एक में कारण शरीर का स्थान “ह्रदय चक्” और दूसरी में “मस्तिष्क चक्र” बताया गया था। हमारे साथी जानते हैं कि जब भी कोई ऐसी जिज्ञासा उत्पन होती है तो हमारी रातों की नींद उड़ जाती है और समाधान ढूंढने के लिए अपना सारा ज़ोर लगा देते हैं। अभी भी ऐसा ही कुछ हो रहा है, पूरी सफलता तो नहीं मिली है, इसीलिए शीर्षक में “आंशिक” शब्द प्रयोग किया गया है। हमारी रिसर्च के दौरान “जीवात्मा के तीन शरीर और उनकी साधना” शीर्षक से जनवरी 1976 की अखंड ज्योति में प्रकाशित हुए लेख में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में वर्णन मिलता है कि कारण शरीर का केंद्र ह्रदय चक्र है। इसके बात कोई भी शंका बाकी तो नहीं रह जाती लेकिन दोनों वीडियो के अंतर् के बार में अभी भी प्रश्नचिन्ह ही है। कभी चिन्मय जी के साथ आमने सामने बात होगी तो शायद समाधान हो सके, जो भी होगा साथिओं के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जायेगा।
इसी संक्षिप्त सी भूमिका के साथ गुरुकुल की गुरुकक्षा में गुरुज्ञान के लिए गुरुचरणों में समर्पित होना ही उचित होगा।
बहिन जी की जिज्ञासा का समाधान करने के लिए जिस लेख का सहारा लिया है, वोह अपनेआप में अति उच्चकोटि का ज्ञान लिये हुए है। नादान मनुष्य जिस स्थूल शरीर पर गर्व करता हुआ, सारा जीवन उसी को संवारने में व्यतीत कर देता है,ईश्वर ने इसी शरीर में उससे कहीं अधिक उच्चस्तरीय अनुदान प्रदान किये हैं।
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मनुष्य के अस्तित्व को तीन हिस्सों में बाँटा गया है : 1.सूक्ष्म,2.स्थूल और 3. कारण।
जिस प्रकार चमड़ी के नीचे माँस और माँस के भीतर रक्तवाही पतले तन्तु रहते हैं उसी प्रकार दृश्य सत्ता के रूप में हाड़-माँस का बना सब को दिखाई पड़ने वाला, चलता−फिरता शरीर “स्थूल शरीर” है, उसके नीचे सूक्ष्म शरीर” है और उसके भी नीचे “कारण शरीर” है। परम पूज्य गुरुदेव के साथ प्रातःकाल ध्यान संध्या में अनेकों साथिओं ने इन तीन परतों की Depiction अवश्य देखी होगी लेकिन यह तीन शरीर मात्र तीन परतें ही न होकर इससे कहीं अधिक विस्तृत हैं।
जिस प्रकार शरीर विज्ञान में एनाटॉमी और फिजियोलॉजी दो विभाजन हैं उसी तरह मन विज्ञान को साइकोलॉजी और पैरा साइकोलॉजी दो भागों में बाँटा गया है। अस्तित्व का तीसरा शरीर “कारण शरीर” है जिसे भावनाओं,मान्यताओं एवं आकाँक्षाओं का केन्द्र कहा गया है । इसे “अन्तःकरण” कहते हैं।
मनुष्य जीवन की सूत्र संचालक सत्ता कारण शरीर ही है जिसका स्थान “हृदय” माना गया है। यहाँ पर जिस ह्रदय की बात हो रही है वह उस ह्रदय से भिन्न है जो हमारे शरीर के रक्त संचार एवं उससे सम्बंधित क्रियाओं को करता है। यहाँ ह्रदय, Organ की बात नहीं हो रही है बल्कि “ह्रदय चक्र” की बात हो रही है, इसी का नाम “अनाहत चक्र” भी है इसका स्थान आमाशय (Stomach) के ऊपर वाले स्थान को माना गया है। यह चक्र प्रेम, करुणा, संबंधों एवं भावनाओं से संबंधित होता है। जब यह चक्र संतुलित होता है, तो हम जीवन में प्रेम और संबंधों में संतुलन महसूस करते हैं,
तीनों शरीर, सामूहिक होकर एक से बढ़कर अनेकों क्षमताएँ अपने भीतर दबाये बैठे हैं। इनमें अस्त−व्यस्तता एवं विकृति भर जाने से मनुष्य अपनी विलक्षण शक्ति गँवा बैठता है, उनके द्वारा जो लाभ मिलना चाहिए, नहीं मिल पाता और उल्टा प्रभाव दिखना शुरू हो जाता है। ऐसी स्थिति में इन विभूतियों भरे “शक्ति परिवार (Family of energy centres) द्वारा जो हर्षोल्लास युक्त चमत्कारी उपलब्धियाँ मिल सकती थीं और सुर दुर्लभ कहलाने वाला मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता था, उसकी सम्भावना नष्ट हो जाती है और मनुष्य दुर्गति जैसी स्थिति में फँस जाता है जिसमें आज अधिकतर लोग फंसे हुए हैं।
स्थूल शरीर यदि स्वस्थ है तो उसके द्वारा जो लाभ मिलते हैं उनकी थोड़ी बहुत जानकारी हम सभी को है। निरोग शरीर देखने में सुडौल, सुन्दर लगता है,उसका आकर्षण खिले फूल की तरह सभी को मोहित करता है। अधिक श्रम करना, कठिन कामों को सहज निपटा कर स्वयं लाभान्वित होना और दूसरों पर छाप छोड़ना निरोगता की स्थिति में ही संभव होता है।
इन्द्रियों के दुहरे काम हैं उनके माध्यम से “क्रिया शक्ति” कार्यान्वित होती है और बदले में धन, ज्ञान, अनुभव, कौशल आदि उपलब्ध कराती है। ज्ञानेन्द्रियों के अपने अलग उपयोग हैं। जीभ से स्वाद, कामेन्द्रिय से विषय सुख, नेत्रों से सौन्दर्यानुभूति, कान से मधुर श्रवण, त्वचा से कोमल स्पर्श के आनन्द मिलते हैं। आहार की तृप्ति, गहरी निद्रा, स्फूर्ति एवं सक्रियता कितनी उपयोगी और सुखद है, इसे हर कोई जानता है, यह अंतःकरण की अनुभूति है, आत्मा की बात है। तभी तो कहा जाता है, “आत्मा तृप्त हो गयी।”
अखाड़े में शरीर की विशेष साधना कर लेने पर चमत्कारी पहलवान, दुस्साहस भरे कीर्तिमान स्थापित कर सकता है,उसे शरीर साधना का निष्णात (Highly skilled) भी कहा जा सकता है लेकिन क्या अकेला पंचतत्वों का शरीर, बिना “चेतन मन” की सहायता के उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकता है ? कदापि ही नहीं ? मनोयोग (अर्थात मन का शरीर के साथ जोड़) का समन्वय भी उनकी सफलताओं में जुड़ा रहता है। यह मनोयोग जो शरीर संचालन के काम आता है स्थूल शरीर का ही एक भाग माना गया है। इसीलिए मन को “ग्यारहवीं इन्द्रिय” कहते हैं। इस विषय पर भी परम पूज्य गुरुदेव ने बहुत कुछ लिखा है।
स्थूल शरीर की सक्ष्मता के फलस्वरूप ही संसार की अनेकानेक भौतिक उपलब्धियाँ मिलती हैं। साँसारिक सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने, व्यक्तियों को सहयोग देकर बदले में सहयोग पाने का आनन्द, “शरीरगत सक्रियता” से ही संभव होता है। कर्मफल से ही सुख−दुःख मिलते हैं। कर्म का स्थूल परिमाण−”शरीरगत सक्रियता” के साथ ही जुड़ता है। दण्ड, पुरस्कार इसी कर्मशीलता के आधार पर मिलते हैं। शरीर को सही स्थिति में रखना और उसे अमुक स्तर की सफलताएँ प्राप्त करने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण देकर उपयुक्त बनाने को ही “शरीर साधना” कहते हैं।
Health safety के मोटे नियम तो सर्वविदित हैं। Food science में पढ़ाया जाता है कि भोजन में क्या वस्तुएं किस अनुपात से होनी चाहिएं। श्रम, व्यायाम,दिनचर्या, सफाई जैसी अनेक बातें स्वास्थ्य रक्षा के लिए आवश्यक बताई जाती हैं। बीमारी की हालत में, दवादारु की व्यवस्था करने वाला एक पूरा शास्त्र बना हुआ है।
यह तो हुआ “स्थूल आरोग्य रक्षा विधान Physical health care rules” जिसे कुछ हद तक समझ पाना तो सरल है लेकिन “सूक्ष्म आरोग्य विज्ञान Subtle health science” इससे कहीं अधिक काम्प्लेक्स है। उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।
सूक्षम शारीरिक साधनाओं के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं :
आसन, प्राणायाम, नेति धेति, बस्ति, न्योली, वज्रोली, कपाल भाति उड्डियान बंध, जालंधर बंध, मूल बंध, मुद्राएँ, उपवास, तप तितीक्षा, चान्द्रायण, मौन, परिक्रमा आदि।
ऐसी कितनी ही शारीरिक साधनाएँ, स्वास्थ्य संवर्धन के उस Deep अन्तराल तक प्रवेश करती हैं जहाँ आहर विहार के सामान्य नियम नहीं पँहुच पाते। अक्सर देखा गया है कि स्वास्थ्य रक्षा के कड़े नियम पालन करने वाले अनेकों व्यक्ति भी दुर्बलता और रुग्णता से घिरे रहते हैं। इसका कारण नाड़ी देख कर नहीं जाना जा सकता। कोशिकाओं में, तन्तुओं में, पाचक अंगों में, विशिष्ट ग्रन्थियों में कुछ विलक्षण प्रकार की ऐसी उलझनें खड़ी हो जाती हैं जो “शरीर शक्तियों” द्वारा किये गये गम्भीर परीक्षणों की पकड़ में भी नहीं आती और बीमारी की उलझी हुई गुत्थी सुलझ पाने में असमर्थ ही रहती है।
ऐसी स्थिति में “योग विज्ञान” के वे प्रयोग आश्चर्यजनक सत्परिणाम उपस्थित करते देखे गये हैं जिन्हें लेबोरेटरी में तो टेस्ट नहीं किया जा सकता लेकिन उपलब्ध हुए परिणामों से यह जाना जा सकता है कि यह उपचार कितने अधिक सफल होते हैं।
पहलवानों में देखी जाने वाली बलिष्ठता, कलाकारों में पाई जाने वाली फुर्ती और सैनिकों की चुस्ती ही मात्र तंदरुस्ती की ही निशानी नहीं है। इसका सबसे महत्वपूर्ण अंश है “जीवनी शक्ति की प्रचुरता” जिसे जीवट (Spiritedness- स्पीरिटेडनेस भी कह सकते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि अनेकों अभावों के बावजूद That person is always in high spirits जबकि इसके उल्ट ऐसे लोग भी हैं जो सब कुछ होते हुए भी बुझे हुए, मृतक जैसे दिखते हैं। अरे जिंदगी ज़िंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं। यहाँ दिल की बात हो रही है, ह्रदय चक्र की, कारण शरीर साधना की बात हो रही है जिसे गुरुदेव प्रातःकाल जागृत कराते हैं।
“अस्वस्थता के भार से दबे होने पर भी, स्पीरिटेडनेस के सहारे मौत से भी जूझा जा सकता है।”
सूक्ष्म शरीर अर्थात् चिन्तन चेतना की दिव्य ज्योति:
“शारीरिक शक्ति और सक्रियता” से मिलने वाले सुखों और लाभों की तरह “मानसिक सक्ष्मता ” के सुखद रिजल्ट भी कम नहीं हैं। ऊँची श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले लोगों को ही ऊँचे पद मिलते हैं। वकील, डॉक्टर, साहित्यकार, वैज्ञानिक आदि बुद्धिजीवी वर्ग के लोग बुद्धि की ही कमाई ही खाते हैं, लेकिन एक बात सत्य है कि यह सभी लोग केवल “शारीरिक मेहनत” से ही उन्नतिशील नहीं बनते, उनकी चिन्तन प्रक्रिया भी तन्मयतापूर्वक संलग्न रहती है। “शरीर की सक्रियता” और “मन की तन्मयता” का संयोग, जितनी अधिक मात्रा में होगा, उसी अनुपात में सफलताएँ प्रस्तुत होती चली जायेंगीं ।
नए नए शोध कार्यों में,अन्वेषण पर्यवेक्षणों में, analysis करने में, मीन-मेख निकालने में “सूक्ष्म बुद्धि” ही काम करती है। यह उस “बुद्धि” से ऊपर की चीज है जो दैनिक कार्यों को कराती है। यह “स्पेशल बुद्धि” किस प्रकार पाई या बढ़ाई जा सकती है इसका कोई बहिरंग आधार अभी तक बन नहीं पाया है। साधारण बुद्धि की दृष्टि से एक से एक चतुर और उस्ताद लोग हर जगह भरे पड़े हैं लेकिन गहराई में गोता मार कर मोती ढूंढ लाने का सौभाग्य कुछ एक बिरलों को ही मिल पाता है। यह कौशल जिनके भी हाथ लग जाता है वे सामान्य परिस्थितियों में जन्म लेने, पलने के बावजूद अनेकों टेड़ी-मेड़ी पगडंडियाँ पार करते हुए कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। उनके दूसरे साथी आश्चर्य करते रह जाते हैं कि बहुत समय तक एक सी स्थिति में रहने पर भी एक इतना आगे निकल गया और दूसरा जहाँ का तहाँ रह गया।
इस अन्तर का एक ही कारण है:
प्रस्तुत परिस्थितियों से श्रेष्ठतम लाभ उठा लेने की संतुलित सूझबूझ का बाहुल्य। एक को सब कुछ सामान्य ही दिखता है लेकिन दूसरा उसी स्थिति में से बहुत कुछ असामान्य खोज निकालता है। खोजता ही नहीं अवसर का उपयोग भी करता है। सामान्य मनुष्य इसी आधार पर असामान्य बनते हैं और सफलता प्राप्त सम्मानित ऐतिहासिक व्यक्तियों की पंक्ति में जा बैठते हैं। कालिदास जैसे आरम्भ में अति मूर्ख समझे जाने वाले लोगों का महामनीषियों की श्रेणी में गिने जाने वाला उदाहरण बताता है कि हर किसी में “प्रसुप्त पड़ी चिन्तन चेतना की दिव्य ज्योति” को यदि जागृत किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति वर्तमान की तुलना में अपने भविष्य को निश्चित रूप से उज्ज्वल बना सकता है।
समापन
हर लेख की तरह इसे भी हमने टेक्निकल शब्दों से हटाकर सरल बनाने का प्रयास किया है,कितना सफल हो पाए, साथिओं का मूल्यांकन ही बताएगा।
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शनिवार वाले विशेषांक को 571 कमैंट्स मिले एवं 15 युगसैनिकों ने, 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है। सभी का धन्यवाद्