29 अक्टूबर 2024 का ज्ञानप्रसाद- सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि
कुछ दिन पूर्व जब यूट्यूब ने उड़ते हुए, रंग बिरंगें गुब्बारे भेज कर जीमेल द्वारा 5 मिलियन (50 लाख) व्यूज की उपलब्धि पर हमें बधाई दी तो ह्रदय प्रसन्नता से भर गया। इस उपलब्धि से प्राप्त हुई प्रसन्नता को अपने परिवार के अनेकों साथिओं, सहकर्मियों के साथ शेयर किये बिना हम कैसे रह सकते हैं क्योंकि यह उनकी ही श्रद्धा, समर्पण,नियमितता आदि से संभव हो पाया है, जिसके लिए धन्यवाद् बहुत ही छोटा शब्द है,मेरे गुरु के आशीर्वाद से बढ़कर कोई शक्ति नहीं है जिसने एक साधारण से मनुष्य को फर्श से उठाकर अर्श पर बैठा दिया। समझ पाना कठिन है कि किन शब्दों से गुरुदेव का धन्यवाद् करें, इतना ही कह सकते हैं कि हे गुरुदेव हम सबको गुरुभक्ति, समर्पण,नियमितता, श्रद्धा एवं विश्वास का आशीर्वाद का दान देकर कृतार्थ करें।
लगभग 37000 Subscribers का धन्यवाद् करते हैं जो विश्व के कोने कोने से गुरुज्ञान का अमृतपान कर अपने जीवन को सफल बना रहे हैं।
कल वाले लेख में “सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना” की Introductory जानकारी दी गयी थी, आज इस सुगम उपासना विधि को सम्पन्न करने का समय है। शब्द संख्या का विभाजन हमें विवश कर रहा है कि इसे दो भागों में प्रस्तुत किया जाए। आज इस उपासना विधि का प्रथम भाग प्रस्तुत किया जा रहा है, कल दूसरा एवं अंतिम भाग प्रस्तुत किया जाएगा जिससे ध्यान, साधना उपासना आदि के महत्वपूर्ण विषय का समापन हो जाएगा। ध्यान/उपासना का विषय इतना विस्तृत है कि इसके लिए “समापन” जैसा शब्द प्रयोग करना अनुचित ही है।
कल वाले लेख पर आदरणीय साधना बहिन जी ने अपनी माता जी के शब्द quote किये जिसके अनुसार समय न होने का बहाना बनाया जाता है, गुरुदेव से प्रार्थना करते हैं कि सभी को कुछ और दें न दें, सद्बुद्धि और समय का दान अवश्य दें।
तो चलें गुरुकुल की गुरुकक्षा में,गुरुचरणों में समर्पित हो गुरुज्ञान का अमृतपान करें, अपने जीवन को संवार लें।
***********************
कल वाले लेख में “सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि, Complete and easy method of worship” के लिए आरंभिक तैयारी की बात की गयी थी। तैयारी के बाद अगला स्टैप इस उपासना को करना ही है।
आसन कुशाओं का या चटाई का लेना चाहिए। चौकी या पट्टा बिछाया जा सकता है। सूती या ऊनी आसन इसी शर्त पर बिछाये जा सकते हैं कि उनके धोने या सुखाने का प्रबन्ध होता रहे। पशुओं के चमड़े आजकल वधकर्म द्वारा ही प्राप्त होते हैं इसलिए मृगचर्म आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। सीलन, घुटन या घिच-पिच स्थान जहां खाना, पीना, सोना, आना-जाना बना रहता है चित्त मे विघ्न उत्पन्न करते हैं,इसलिए यथासम्भव एकान्त स्थान ही तलाश करना चाहिए। खुली छत पर या बरामदे में बैठना भी अच्छा है।
भारतीय धर्म में “त्रिकाल संध्या” यानि तीन समय की संध्या का विधान है। प्रातः सूर्योदय के समय, सायं सूर्यास्त के समय, मध्याह्न 12:00 बजे यह मध्यवर्ती समय है। थोड़ा आगे-पीछे होना हो तो वैसा भी हो सकता है। जिन्हें सुविधा हो वे त्रिकाल उपासना करें। अन्यथा प्रातः सायं दो बार से भी काम चल सकता है। अत्यन्त व्यस्त व्यक्तियों को भी प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर एक बार तो उपासना करने के लिए समय निकाल ही लेना चाहिये। प्रयत्न यह करना चाहिये कि आधा घण्टे से लेकर एक घण्टे तक का समय उपासना के लिए मिल सके।
निःसन्देह इस प्रयोजन में लगा हुआ समय हर दृष्टि से सार्थक उपासना से होता है। आत्मिक प्रगति, उसके फलस्वरूप व्यक्ति का समग्र विकास, उसके द्वारा सर्वतोमुखी समृद्धि की सम्भावना, यह चक्र ऐसा है, जिससे इस कृत्य में लगाया गया समय सार्थक ही सिद्ध होता है।
उपासना काल में हर घड़ी यही अनुभूति रहनी चाहिए कि हम भगवान के अति निकट बैठे हैं और “साधक तथा साध्य के बीच सघन आदान-प्रदान” हो रहा है। साधक अपने समग्र व्यक्तित्व को भगवान् को अर्पित रहा है और वे उसे अपने जैसा बनाने की अनुकम्पा प्रदान कर रहे हैं।
अस्वस्थता की दशा में, सफर में, विधिवत् उपासना कृत्य करने की स्थिति न हो तो आत्मशुद्धि, देवपूजन तथा जप, ध्यान आदि सारे कृत्य मानसिक उपासना के रूप में ध्यान प्रक्रिया के सहारे, उन कृत्यों को करने की कल्पना करते हुए भी किये जा सकते हैं। उपासना में नागा करने की अपेक्षा इस प्रकार की मानसिक पूजा कर लेना भी उत्तम है। इससे संकल्पित साधना प्रक्रिया को किसी न किसी रूप में अनवरत चलती हुई तो रखा ही जा सकता है।
परम पूज्य गुरुदेव ने दैनिक साधना क्रम के पांच निम्नलिखित स्टेप्स बताए हैं:
1.ब्रह्मसंध्या 2. देवपूजन 3. जप एवं ध्यान 4. प्रार्थना 5. सूर्यार्घ्यदान।
आसन पर बैठकर अपने शरीर और मन को पवित्र बनाने के लिए, मानवीय देह के पांच तत्वों कि शुद्धि की जाती है, इसे “ब्रह्मसंध्या” कहते हैं। ब्रह्मसंध्या के लिए बहुत ही सरल निम्नलिखित 6 कृत्य करने पड़ते हैं।
1.पवित्रीकरण,2.आचमन,3. शिखाबन्धन,4. प्राणायाम,5,न्यास,6.पृथ्वी पूजन। इनका विधान बहुत सरल है।
1. पवित्रीकरण- गायत्री मंत्र पढ़ते हुए जल को सिर तथा सारे शरीर पर छिड़कें।
2. आचमन-जल से भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर तीन बार आचमन करें। प्रत्येक आचमन के पहले 5 गायत्री मंत्र पढ़ें। हाथ का स्पर्श मुख से न हो। हो जाय तो उसे ठीक से धो लें।
3. शिखाबन्धन-आचमन के पश्चात् शिखा को जल से गीला करके उसमें ऐसी गांठ लगानी चाहिए जो सिरा खींचने से खुल जाय, इसे आधी गांठ कहते हैं। गांठ लगाते समय गायत्री मंत्र का उच्चारण करते जाना चाहिए। शिखाबन्धन का प्रयोजन “ब्रह्मरन्ध्र में स्थित 100” पंखड़ियों की सूक्ष्म शक्तियों का जागरण करना है। जिसके शिखा स्थान पर बाल न हों,वे तथा महिलायें जल से उस स्थान को स्पर्श कर लें।
4. प्राणायाम- स्वस्थ चित्त से मेरुदण्ड सीधा करके बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिए, नेत्रों को बन्द या अधखुला रखिये। अब सांस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिए, “ॐ भूर्भुवः स्वः” मन ही मन इस मंत्र का उच्चारण करते चलिये। भावना कीजिए कि विश्वव्यापी, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, ब्रह्म की चैतन्य प्राण-शक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूं, इस भावना और मंत्र के साथ धीरे-धीरे सांस और जितना वायु को भीतर भर सकें, भरिये। अब सांस को भीतर रोकिये और “तत्सवितुर्वरेण्यं” भाग का जप कीजिए। साथ ही भावना कीजिए कि नासिका द्वारा खींचा हुआ प्राण श्रेष्ठ है। सूर्य के समान उसका तेज मेरे अंग-प्रत्यंग में भरा जा रहा है। इस भावना के साथ पहले की अपेक्षा आधे समय तक वायु को रोके रखें। अब नासिका द्वारा वायु को धीरे-धीरे निकालना आरम्भ कीजिए और “भर्गो देवस्य धीमहि” भाग को जपिए और भावना कीजिए कि यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है। वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगाना चाहिए जितना खींचने में लगा था। जब भीतर की वायु बाहर निकल जाए तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था उतनी ही देर बाहर रोके रखें अर्थात् बिना सांस लिए रहें और “धियो योनः प्रचोदयात्” भाग को जपते रहें, साथ ही भावना करें कि वेदमाता माँ गायत्री हमारी सद्बुद्धि को जागृत कर रही है। यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए, जिससे काया के, वाणी के, मन के विविध पापों का संहार हो सके।
5. न्यास- न्यास का अर्थ होता है धारण करना। माँ गायत्री की सतोगुणी शक्ति को अंग प्रत्यंग में धारण करने,भरने,स्थापित करने और ओतप्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है। बांये हाथ में गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए जल लें। पांचों उंगलियों को मिलाकर उन्हें हर बार जल में डुबोते हुए विभिन्न अंगों को इस भावना से स्पर्श करना चाहिए कि मेरे यह अंग माँ गायत्री की शक्ति से पवित्रतम एवं बलवान हो रहे हैं। नीचे लिखे अनुसार मंत्र बोलते हुए, सम्बन्धित अंगों का स्पर्श पहले बांयी और फिर दांयी ओर स्पर्श किया जाना चाहिए।
ॐ भूर्भुवः स्वः (मस्तक को)
तत्सवितुः (नेत्रों को)
वरेण्यं (कानों को)
भर्गो (मुख को)
देवस्य(कण्ठ को)
धीमहि (हृदय को)
धियो यो नः (नाभि को)
प्रचोदयात् (हाथ पैरों को)
शेष जल गायत्री मंत्र को पढ़ते हुए सारे शरीर पर छिड़क लें।
6.पृथ्वी पूजन- माँ गायत्री माता की तरह ही धरती माता, मातृभूमि भी पूजनीय है, उसकी पूजा के लिए भूमि पर जल, अक्षत, पुष्प,चन्दन अर्पित करें। इस कृत्य के साथ मातृभूमि के लिए, विश्व मानवता के लिये बढ़-चढ़ कर त्याग बलिदान करने की भावना रहनी चाहिए।
ब्रह्मसंध्या द्वारा यह आत्मशोधन (Self purification) कृत्य पूर्ण हुआ। अब देवपूजन कर्म आरम्भ करना है।
सबसे पहले “पूजा की चौकी” पर पीला वस्त्र बिछाया जाय और उस पर माँ गायत्री का चित्र स्थापित किया जाय। दाहिनी तरफ “छोटी लुटिया” में ढका हुआ जल कलश और बहिनी तरफ “जलती अगरबत्ती” को रखा जाय। जहां शुद्ध घी उपलब्ध है वहां “घृत दीप” भी जलाया जा सकता है, अन्यथा उसके अभाव में अगरबत्ती से भी काम चल सकता है। बीच में पूजा वस्तुएं अर्पित करने के लिए एक छोटी प्लेट रखी जाय, पूजा उपचार की वस्तुयें उसी में छोड़ी जायं ताकि कपड़ा खराब न हो। जल कलश को शांतिदायक धर्म संस्थापक रचनात्मक देव शक्तियों का संयुक्त प्रतीक माना गया है। दीपक या अगरबत्तियों में जलने वाली अग्नि अधर्म उन्मूलन सुधार संघर्ष की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। कलश नरतत्व और अग्नि नारीतत्व है। अवांछनीयताओं का नाश और सत्प्रवृत्तियों की स्थापना एक ही पूर्ण प्रक्रिया के दो अविच्छिन्न अंग माने गये हैं। भगवान ने अपने अवतरण का उद्देश्य अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना ‘‘यदा या हि धर्मस्य……..’’ श्लोक में बताया है। साधक को व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक क्षेत्र में इन दोनों ही प्रवृत्तियों को कार्यान्वित करना है। इस भावना को जीवन्त रखने के लिए जल देवता और अग्नि देवता को साक्षी रूप में पूजापीठ पर स्थापित किया जाता है।
आरम्भ में देवसत्ता के आह्वान की भावना करते हुए गायत्री मंत्र सहित हाथ जोड़कर मस्तक नवाया जाय। इसके पश्चात् क्रमशः एक चमच जल, थोड़े से अक्षत, नैवेद्य, चंदन, या रोली, पुष्प आदि समर्पित किये जायं। प्रत्येक अर्पण के साथ मन ही मन गायत्री मंत्र बोला जाय।
देवपूजन के बाद “जप एवं ध्यान” का क्रम आता है जिसे अगले लेख के लिए रिज़र्व रखना उचित रहेगा।
*********************
कल वाले ज्ञानप्रसाद को 537 कमैंट्स प्राप्त हुए,14 साधकों ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान करके ज्ञानयज्ञ की शोभा बढ़ाई है जिसके लिए सभी का धन्यवाद् करते हैं।
जय गुरुदेव
