24 अक्टूबर 2024 का ज्ञानप्रसाद-ब्राह्मण की कामधेनु
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से अधिकतर ऐसे बहुचर्चित विषयों पर चर्चा की जाती है जिन्हें अधिकतर लोगों ने सुन तो रखा होता है लेकिन जब उनके बारे में पूछा जाता है तो कुछ Fragmented सा, ग़लत सा ज्ञान ही प्रतक्ष्य होता दिखता है। इस मंच पर छोटे-छोटे लेख प्रकाशित समय अवधारणा बनाई जाती है कि बड़ी-बड़ी बातें, कठिन कांसेप्ट बाद में समझ लिए जायेंगें, पहले क, ख, ग वाली वर्णमाला/वर्णाक्षर तो समझ लें।
इसी विचार से आज का लेख संकलित किया गया है।
“गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है” वाक्य हम सबने अनेकों बार देखा होगा/पढ़ा होगा, कल वाले लेख में इसका वर्णन हुआ था, लेकिन जिस जिज्ञासा से 1920 में 9 वर्षीय बालक श्रीराम ने अपने प्रथम गुरु महामना मालवीय जी से पूछा था, शायद ही किसी ने पूछा हो। मालवीय जी ने जब कहा “गायत्री ब्राह्मणों की कामधेनु” है तो बालक श्रीराम को जो उत्तर मिला उससे हम सब परिचित हैं, फिर से रिपीट करना अनुचित ही होगा।
कल वाले लेख में जब “गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु” शब्द लिखे तो परम पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और अखंड ज्योति मार्च 1960 का अंक साक्षात् प्रकट हो उठा जो आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख का आधार बना।
कामधेनु (काम अर्थात कामना, धेनु अर्थात गाय) उस दिव्य गाय को कहा जाता है जिसके दुग्धपान से मानव की सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। गायत्री उपासना के सन्दर्भ गया है कि यह उपासना ब्राह्मण की कामधेनु है अर्थात इस उपासना से उसी तरह कामना की पूर्ति जैसे कामधेनु के दुग्धपान से होती है लेकिन शर्त केवल एक ही है उपासक ब्राह्मण होना चाहिए। यहाँ ब्राह्मण का अर्थ ब्राह्मण वंश में जन्म लेने वाला मनुष्य न होकर, ऐसा मनुष्य है जो ईमानदार, नेक, शरीफ है तथा जो समाज के लिए, देश के लिए, लोकहित के लिए जीता है।
आज के लेख में इन्हीं पंक्तियों को विस्तार से लेकिन सरलता से जानने का प्रयास है, यदि इस प्रयास में से हम सारा नहीं तो कुछ अंश ही अंतःकरण में उतार पाएं तो गायत्री उपासना और सार्थक होगी, ऐसा हमारा विश्वास है। ऐसा परिणाम आने पर ही हमारा प्रयास सफल माना जाएगा।
तो चलते हैं गुरुकक्षा की ओर, गुरुचरणों में समर्पित होकर, गुरुज्ञान प्राप्त करने के लिए।
*********************
परम पूज्य गुरुदेव के प्रथम गुरु महामना मालवीय जी ने 9 वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत एवं गायत्री मंत्र दीक्षा देते हुआ कहा था कि गायत्री “ब्राह्मणों की कामधेनु” है। गुरुदेव ने पूछा कि क्या माँ गायत्री अन्य लोगों की कामधेनु नहीं है? उन्होंने कहा कि बेटे हम ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाले मनुष्य की बात नहीं कर रहे अर्थात जाति वाले ब्राह्मण का बात नहीं कर रहे हैं, कर्म वाले ब्राह्मण की बात कर रहे हैं। कोई मनुष्य ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने से नहीं बल्कि कर्म से ब्राह्मण कहलाता है। जो मनुष्य ईमानदार, नेक, शरीफ है तथा जो समाज के लिए, देश के लिए, लोकहित के लिए जीता है, उसे “ब्राह्मण” कहते हैं। जो मनुष्य एक औसत भारतीय की तरह जीता है तथा स्वयं को समाज के लिए समर्पित कर देता है उसे “ब्राह्मण” कहते हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने मालवीय जी के समक्ष संकल्प लिया था कि हम “ब्राह्मण” का जीवन जिएँगें।
सद्भावना युक्त मनुष्य “ब्राह्मण” कहे जाते हैं। ऐसे मनुष्यों में “ब्राह्मण” मौजूद है एवं उनके लिए गायत्री मंत्र एक परम् जप है, परम साधन है। इस साधन का सहारा लेकर वे न केवल लोक बल्कि परलोक भी बड़ी ही सरलतापूर्वक सुख-शान्तिमय बना सकते हैं। उनके लिए गायत्री माता,जन्म देने वाली परम करुणामयी माता से भी अधिक दयालु और दानी सिद्ध होती है।
ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व गायत्री उपासना पर निर्भर रहता है क्योंकि जो सद्गुण सामान्य लौकिक प्रयत्न करने पर बहुत कठिनाई से प्राप्त होते हैं वे इस उपासना के माध्यम से स्वयमेव विकसित होने लगते हैं और उन अन्तः स्फुरणाओं (Intuition) के जागरण से उसका ब्रह्मणत्व दिन-ब-दिन सुदृढ़ होता जाता है। आत्मा में पवित्रता का अंश दिन-ब -दिन बढ़ता जाता है।
“गायत्री और ब्राह्मण के बारे में हमारे पुरातन ग्रंथों में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि आज के तथाकथित मॉडर्न मनुष्य के लिए उस द्विव्य ज्ञान को समझ पाना, अंतःकरण में उतार पाना लगभग असंभव सा ही प्रतीत होता है। आज के मानव को जात पात में बांटने, ऊँच नीच के मतभेद में फंसकर कलह कलेश से समय मिलेगा, तभी तो वह कुछ समझ पायेगा।
परम पूज्य गुरुदेव ने अखंड ज्योति के मार्च 1960 अंक में “ब्राह्मण की कामधेनु गौ-गायत्री” शीर्षक वाले लेख में बहुत ही सरल शब्दों में ब्राह्मण और गायत्री को समझाया है। हमारा विश्वास है कि उसी लेख को आधार बना कर Sanskritized भाषा को और भी सरल बनाकर आज की यह प्रस्तुति लाभकारी रहेगी। ओरिजिनल लेख में संस्कृत के पुरातन श्लोकों एवं हिंदी अनुवाद से बहुत कुछ समझाया गया है लेकिन हम सरलता की दृष्टि से केवल हिंदी का ही निम्नलिखित कंटेंट प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारे स्तर के विद्यार्थिओं को इतना भी समझ आ जाए तो बड़ी बात होगी:
1.गायत्री सर्व वेदमयी परा विद्या (Parapsychology-पैरासाइकोलॉजी ) है। यही ब्राह्मण की माता है। यही नित्य सच्चिदानन्द स्वरूप तथा महा भावमयी भी है। Psychology का वैज्ञानिक दृष्टि से विशेलषण करना Parapsychology के अंतर्गत आता है।
2.गायत्री वेदों की माता है, गायत्री ब्राह्मण की माता है। यह गायन (Singing) करने वाले का त्राण (उद्धार) करती है इसलिए गायत्री कहते हैं।
3.मेरी माता कौन? पिता कौन? कुल कौन है? जो इसे जानता है वही ब्राह्मण है। गायत्री ही माता है, वेद ही पिता है, ब्रह्म ही कुल है, जो इस तत्व को जानता है, वही ब्राह्मण है।
4.“ब्राह्मण” के जीवन का लक्ष्य “आत्मबल एवं ब्रह्मतेज” को प्राप्त करना होता है। वह जानता है कि संसार में जो कुछ उत्तम है वह सभी “आत्मबल और ब्रह्मतेज” उपलब्ध करने पर प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए वह सम्पूर्ण आनन्दों के लिए वेद जननी गायत्री का ही आश्रय लेता है।
5.गायत्री में जो तेज है वही “ब्रह्मवर्चस” है। इसकी उपासना से उपासक तेजस्वी और ब्रह्मवर्चस्वी हो जाता है। जिसने ब्रह्मवर्चस प्राप्त किया उसके लिए गायत्री साक्षात् “कामधेनु गौ” के सामान है। उसे इसी महाशक्ति के द्वारा अपनी अभीष्ट कामना पूर्ण करने वाले वरदान मिल जाते हैं। इसलिए गायत्री को “वरदात्री”, वर देने वाली कहा गया है। उसे “परमदेवी” भी कहते है। यों सभी दैवी शक्तियाँ “देवी” कहलाती हैं लेकिन अन्य दिव्य शक्तियों की सीमा थोड़ी-थोड़ी है। वे उपासना करने पर मनुष्य का सीमित कल्याण करती हैं, माँ गायत्री के लिए ऐसी कोई सीमा नहीं है, इस कामधेनु माँ के गर्भ में समस्त शक्तियाँ सन्निहित होने से “परमदेवी” कही जाती है। सच्चे मन से उपासना करके यदि उसका थोड़ा सा भी अनुग्रह प्राप्त किया जा सके तो साधक उस परमगति को प्राप्त कर लेता है जिसके कारण लोक में सुख और परलोक में अभीष्ट शान्ति प्राप्त होती है।
6.गायत्री मंत्र के जाप से साधक सब यज्ञों के फल को प्राप्त करता है। उस पर देवता प्रसन्न होते हैं और उनकी प्रसन्नता से लोक में सुख तथा परलोक में मुक्ति प्राप्त होती है। आसुरी शक्तियाँ उसे भयभीत नहीं करतीं। अन्य सभी साधना कर्मों में जप यज्ञ अधिक फलदायक एवं श्रेष्ठ है।
7.जिस प्रकार जड़ को सींचने से पत्र, पल्लव, पुष्प, फल आदि सभी को जल की प्राप्ति हो जाती है, उन सबके लिए अलग-अलग प्रयत्न नहीं करना पड़ता, उसी प्रकार गायत्री साधना में अन्य सभी साधनाओं द्वारा हो सकने वाले लाभ प्राप्त हो जाते हैं।
8.ब्राह्मण चाहे कोई अन्य उपासना करे या न करे, केवल गायत्री मंत्र से ही वह सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
9.प्राचीन काल में अनेक साधकों ने इसी उपासना के द्वारा मानव जीवन की सफलता का सर्वोच्च प्रतीक “ब्रह्मर्षि” पद पाया। इतना ही नहीं देवताओं ने भी इसी महामन्त्र की शक्ति से असुरों को परास्त कर अपना देवत्व स्थिर रखा।
अधिक कहने की क्या आवश्यकता है। भली प्रकार साधना की हुई यह गायत्री विद्या द्विजों के लिए कामधेनु के समान सब सिद्धियों को देने वाली है।
इस कामधेनु का दूध ही इस जगती तल का “परम् रस” कहलाता है। इसी को “ब्रह्मानन्द” कहते हैं। इससे मधुर आनन्द दायक और उल्लास भरी मादक वस्तु और कोई इस संसार में नहीं है। जिसे इस कामधेनु का दूध पीने को मिल गया, उसके सभी अभाव दूर हो जाते हैं, कोई वस्तु ऐसी नहीं रहती जो उसके कर-तल-गत न हो। ऐसा “ब्रह्म सिद्धि प्राप्त गायत्री उपासक” अपने आपको सर्व संतुष्ट, सर्व सुखी अनुभव करता है। उसके आन्तरिक आनन्द एवं उल्लास का ठिकाना नहीं रहता।
ब्रह्मानन्द रूपी परम रस को पीकर योगी जन आनंद मग्न उन्मत्त हो जाते हैं। उनके सामने इन्द्र रंक प्रतीत होता है फिर साधारण राजा अमीर जैसे कीड़े-मकोड़ों की तो बात ही क्या है।
यों तो गायत्री मन्त्र मानव मात्र के लिए उपास्य एवं कल्याण कारक है, उसकी शरण में जाने पर सभी का कल्याण होता है, लेकिन जो लोग “ब्रह्म परायण” हैं, जिन्होंने अपनी सात्विक प्रवृत्तियों को जागृत करके “ब्राह्मणत्व” प्राप्त किया है, उनके लिए गायत्री परम कल्याण कारिणी है।
इस तथ्य को रोज़मर्रा के निम्नलिखित उदाहरण से समझा जा सकता है:
एक उत्तम औषधि सभी के लिए लाभदायक होती है लेकिन जिनका पेट साफ होता है उन पर यह औषधि तत्काल प्रभाव दिखाती है। अपच के कारण जिनका पेट खराब है, उन्हें वही औषधि कम लाभ पहुंचती है , देर में प्रभाव दिखाएगी । जिनका खून ख़राब है उन्हें गुणकारी इंजेक्शन भी इतना लाभ नहीं पहुँचा पाते जितना शुद्ध रक्त वालों को पहुंचा पाते हैं । जिस प्रकार दवा का कोई पक्षपात नहीं है, कोई रोकटोक नहीं है कि जिन्हें अपच हो या खून खराब हो वे दवा या इंजेक्शन न लें, उसी प्रकार किसी पर भी गायत्री उपासना का कोई प्रतिबंध नहीं है लेकिन एक स्पष्ट बात है कि जिन लोगों की आत्मा में दुर्गुण और कुविचार भरे हुए हैं उनकी अपेक्षा जिनकी आत्मा में सतोगुण की मात्रा अधिक है, उनके लिए गायत्री उपासना अधिक प्रभावशाली होती है।
यही है सही मायनों में ब्राह्मण बनने का उद्देश्य, यही है आत्मपरिष्कार। ब्राह्मणतत्व विकसित हुए गायत्री उपासकों के लिए सच में गायत्री कामधेनु है।
ब्राह्मण को द्विज भी कहा जाता है। द्विज (द्वि+ज) का अर्थ होता है दो बार जन्म लेना। यदि कोई मनुष्य ब्राह्मण परिवार में जन्म लेता है तो यह उसका पहला जन्म माना जाता है लेकिन जब वह यज्ञोपवीत धारण करता है, वोह उसका दूसरा जन्म कहलाता है क्योंकि उसके बाद ही वह यज्ञ करने/कराने का अधिकारी होता है। इसलिए कहा जा सकता है कि ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाले सभी मनुष्य द्विज नहीं होते।
*********************
कल वाले लेख को 607 कमैंट्स प्राप्त हुए,18 युगसैनिकों (साधकों) ने 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है, हमारी हार्दिक बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्। आज का कीर्तिमान सच में अति सराहनीय है।
जय गुरुदेव