वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

उपासना-साधना-आराधना लेख शृंखला का तीसरा  भाग 

17 अक्टूबर को “उपासना-साधना-आराधना (USA)” विषय पर आरम्भ हुई  ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला परम पूज्य गुरुदेव द्वारा मार्च 1980 में युगतीर्थ शांतिकुंज के प्रांगण में दिए गए उद्बोधन पर आधारित है। लगभग 5000 शब्दों का यह उद्बोधन इसी शीर्षक से 32 पृष्ठों की पुस्तक फॉर्म में भी उपलब्ध है। हमारे अनेकों साथिओं ने इस पुस्तक को देखा भी होगा, पढ़ा भी होगा और उस पुस्तक में दी गयी शिक्षा को अपने अंतर्मन में उतार कर “हंस” जैसा अनुभव भी किया होगा। हंस को पक्षी जगत में सबसे शुद्ध प्रवृत्ति का पक्षी माना जाता है।

उपासना और साधना विषयों को समझने के बाद आज के लेख में  “आराधना” को समझने और प्रैक्टिस करने का प्रयास है, आशा की जाती है कि सभी साथी यथासंभव प्रैक्टिस भी   करेंगें, तभी हमारा प्रयास सफल समझा जायेगा।

“आराधना” के विषय को समझने और बल प्रदान करने के लिए  हमने अपने ही परिवार का, आदरणीय बहिन सुमनलता जी का साक्षात् उदाहरण दिया है  जिससे बहुत सारे साथी पहले से परिचित हैं। गुरुदेव भगवान् के जिस खेत की बात कर रहे हैं उसी खेत में बहिन जी ने बुआई की है, एक बार फिर से परिवार की पूर्वसहमति मानते हुए हम बहिन जी का  धन्यवाद् करते हैं।    

तो चलते हैं गुरुचरणों में समर्पित होकर गुरुकक्षा की ओर।

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उपासना और साधना के बाद अगला कदम आराधना का कदम है। 

आराधना का अर्थ है समाज की सेवा, जन साधारण का कल्याण । सेवा, सहायता, सहकारिता, सहयोग आदि ऐसे  नकद कर्म हैं, जो हाथों हाथ फल देते हैं। माता पिता बच्चों की, परिवार की निस्वार्थ भाव से, बिना कोई आशा रखे सारा जीवन सेवा करते हैं। ऐसा करने में उन्हें जो आंतरिक शांति, ख़ुशी मिलती है उसे शब्दों में बयान करना कठिन है। और ऐसा भी नहीं है कि इस प्रसन्नता का आभास 10-20 वर्ष बाद मिलता है, उसी समय इंस्टेंट,तत्काल मिलता है, तो हुआ न नकद कर्मफल। यह उदाहरण तो अपने ही पेट से जन्में,अपने ही बच्चे की सेवा के लिए है, ऐसी  ही नकद आत्मिक शांति  किसी अनजान की सहायता करके मिलती है।

आदरणीय सुमनलता बहिन जी द्वारा आदरणीय अरुण वर्मा जी की निस्वार्थ आर्थिक सहायता करना हमारे परिवार के लिए एक ऐसा ऐतिहासिक सुखद उदाहरण है जिसे वर्षों तक न केवल स्मरण किया ही जाएगा बल्कि अनेकों को प्रेरित भी करता रहेगा, ऐसा हमारा अटल विश्वास है। 

यह उदाहरण ज्ञानप्रसाद लेख फॉर्म में 14 अक्टूबर 2023 को हमारी वेबसाइट, यूट्यूब एवं अन्य सोशल मीडिया साइट्स पर प्रकाशित हुआ, अनेकों ने इसे पढ़ा, सराहा, कमेंट किया लेकिन बहुत से ऐसे भी होंगें जिन्होंने इसे पढ़ा ही न हो यां इस परिवार में नए-नए आए हों। आज इस लेख का लिंक देकर,इसे नए सन्दर्भ में, आराधना के सन्दर्भ में पढ़ने का आग्रह किया जा रहा है। परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार आराधना की परिभाषा समाज सेवा, जन  साधारण की सेवा है तो ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के लिए इससे बड़ा उदाहरण कोई  हो ही नहीं सकता।        https://aruntrikhadotorg.wordpress.com/wp-admin/post.php?post=9260&action=edit

अगर हम आगे पीछे, ऊपर नीचे दृष्टि दौड़ाएं तो  जो कुछ भी  दिख रहा है यही “भगवान का विशाल खेत” है, हमें इसी खेत में बुआई करनी है, इसी खेत की फसल को हमने काटना है क्योंकि हमारे गुरु की  सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा “बोओ और काटने” की है और उसका पालन करना हमारा परम कर्तव्य है।

आज के लेख में गुरुदेव  भी यही कह रहे हैं: 

वर्ष 1926 की वसंत पंचमी वाले दिन हमारे हिमालयवासी गुरु सर्वेश्वरानन्द जी ने हमारे घर आकर दीक्षा दी और कहा कि तुम बोने और काटने की बात मत भूलना। उन्होंने कहा कि किसी से भी कोई चीज फ्री में नहीं मिलती है, चाहे वोह  गुरु हों या भगवान् हों। हम मक्के का एक बीज बोते हैं, तो न जाने कितने हज़ार हो जाते हैं, बाजरे के साथ भी ऐसा ही होता है। उन्होंने हमसे कहा कि बेटे,फ्री में खाने एवं भिखारी की तरह माँगने की विद्या छोड़कर बोने और काटने की विद्या सीख, इसी से  ही तुम्हें लाभ होगा। इसके लिए उन्होंने विधान भी बताया  कि तुम्हें 24 वर्ष तक गायत्री के 24 महापुरश्चरण करने होंगे। इस समय जौ की रोटी एवं छाछ पर रह कर निर्वाह करना  होगा। उन्होंने जो भी विधि बतायी,हमने उसे नोट कर लिया था। बोने और काटने की बात समझाते हुए उन्होंने कहा कि तेरे पास जो कुछ भी  है, उसे भगवान् के खेत में बो दे। उन्होंने यह भी कहा कि तीन चीजें (1.शरीर, 2.बुद्धि और 3.भावना) भगवान् की दी हुई हैं और एक चीज तुम्हारी कमाई हुई है। ये तीन चीज़ें भगवान् ने तुम्हें  दी हैं। मानव शरीर की तीन परतें (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) इन्हीं तीन चीज़ों की  प्रतीक हैं। इन्हीं तीन शरीरों में यह तीन चीजें भरी रहती हैं। स्थूल शरीर में श्रम और समय, सूक्ष्म शरीर  में मन और बुद्धि एवं  कारण शरीर  में भावना का वास होता है। 

इन तीन अनुदानों  के अलावा धन-सम्पदा चौथी चीज़ है जो मनुष्य स्वयं कमाता है, इसे भगवान् नहीं देते । भगवान् न किसी को गरीब बनाते हैं,न अमीर। भगवान् न किसी को धनवान बनाते हैं ,न कंगाल बनाते हैं। 

गुरुदेव ने दादा गुरु से पूछा कि कहाँ बोया जाए? उन्होंने कहा कि भगवान् के खेत में। गुरुदेव ने पूछा कि भगवान् कहाँ है और उनका खेत कहाँ है तो  इशारा करके बताया  कि 

आशा की जाती  है कि हमारे सहपाठिओं ने भगवान के विराट स्वरूप की वीडियो अवश्य देखी होगी, यह यूट्यूब पर उपलब्ध है। 

दादा गुरु ने आदेश दिया कि तू इसी विराट् ब्रह्मखेत में बुआई कर, अर्थात् जनसमाज की सेवा कर। जनसमाज का कल्याण करने के लिए, उसे ऊँचा उठाने, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में अपनी समस्त शक्तियाँ एवं सम्पदा लगा दे, फिर आगे देखना कि यह 100  गुनी हो जाएँगी। जो भी 3 चीजें तेरे पास हैं, उसे लगा दे, तुझे ऋद्धि-सिद्धियाँ मिल जाएँगी। यह सब तेरे पीछे घूमेंगी। तू मालदार हो जाएगा। 

हम तैयार हो गये। हमने दृढ़ विचार बना लिया। उन्होंने पूछा कि तेरे पास क्या चीजें हैं तो हमने  कहा कि हमारा शरीर है,  हमने सारा जीवन सूर्योदय से पहले से भगवान् का नाम लिया है अर्थात् भजन किया है, बाकी समय हमने भगवान् का काम किया है। सूर्य निकलने से लेकर सूर्य डूबने तक सारा समय भगवान् के लिए लगाया है , समाज के लिए लगाया है।

हमारे पास  दूसरी चीज़  बुद्धि है। आज के समय में न जाने  लोगों की बुद्धि कैसे-कैसे  गलत कामों  में लग रही है। आज लोग अपनी बुद्धि को मिलावट करने, तस्करी करने, गलत काम करने में खर्च कर रहे हैं। हमने निश्चय किया कि हम अपनी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर ले जाएँगे तथा इससे समाज, देश को ऊँचा उठाने का प्रयास करेंगे। हमने अपनी अक्ल एवं बुद्धि को यानि  अपने सारे-के-सारे मन को भगवान् के कार्य में लगाया।

और क्या था हमारे पास? हमारे पास थी “भाव-संवेदना” यह भी हमने अपने कुटुम्बियों के लिए, बेटे-बेटी के लिए नहीं लगाई। हमने हमेशा से अपनी भाव-संवेदना के माध्यम से इस संसार में रहने वाले व्यक्तियों के दुःखों के निवारण के लिए उपयोग किया। हमने हमेशा यह सोचा कि हमारे पास कुछ है, तो उसे किस तरह से बाँट सकते हैं। अगर किसी को कोई  दुःख है, तो उसे किस तरह से दूर कर सकते हैं। यही हमने अपने पूरे जीवनकाल में किया है। इसके अलावा जो भी धन था, उसे भी भगवान् के कार्य में खर्च कर दिया। 

इससे हमें बहुत मिला, इतना अधिक मिला कि हम आपको बता  नहीं सकते। हमें लोग कितना प्यार करते हैं, यह आपको नहीं मालूम। लोग यहाँ आते हैं, तो यह कहते हैं कि हमें गुरुजी का दर्शन मिल जाता, तो कितना अच्छा होता। यह क्या है? यही  है हमारा प्यार, मोहब्बत, जो हमने उन्हें दिया और बदले में हज़ार गुना होकर हमें मिला। मरने के बाद तो लोग अनेकों  व्यक्तियों की पूजा करते हैं। हमारे मरने के बाद कोई आरती उतारेगा कि नहीं, यह तो कहना कठिन है लेकिन आज कितने लोगों ने आरती उतारी है, प्यार किया है, इसे हम बता  नहीं सकते। यही है हमारा “बोया एवं काटा’ का सिद्धान्त।” 

गुरुदेव बता रहे हैं : 

मित्रो, हमने पत्थर की मूर्ति के लिए नहीं बल्कि  समाज के लिए काम किया है। हम पत्थर की मूर्ति को भगवान् नहीं कहते बल्कि समाज को ही भगवान् कहते हैं। 

हमें दो मालियों की कहानी हमेशा याद रहती है। एक राजा ने एक बगीचा एक माली को दिया तथा दूसरा बगीचा दूसरे माली को। एक ने तो बगीचे में राजा का चित्र लगा दिया, वह  नित्य चन्दन लगाता, आरती उतारता तथा उस चित्र की 108 बार  परिक्रमा करता रहा। इसके कारण बगीचे का कार्य उपेक्षित पड़ा रहा और बगीचा सूखने लगा। दूसरा माली तो राजा का नाम भी भूल गया लेकिन  वह निरन्तर बगीचे में खाद-पानी डालने, निराई करने का काम करता रहा। इससे उसका बगीचा हरियाली से भरा-पूरा होता चला गया। राजा एक वर्ष बाद बगीचा देखने आया, तो उसने 108 परिक्रमा करने वाले माली को हटा दिया और  दूसरे माली का अभिनन्दन किया जिसने वास्तव में बगीचे को सुन्दर बनाने का प्रयास किया था।

हमारा भगवान् भी उसी तरह का है। उन्होंने कहा था कि जो कुछ भी करना भगवान् के लिए करना, समाज के लिए करना। हमने सारी जिन्दगी इसी तरह का काम किया है और जितना किया है,उससे कई गुना  पा लिया है। आगे भी  जो हम करेंगे, उसके बदले  में पाते ही रहेंगे।

हमारा  दिमाग, शरीर, साहित्य, सभी हमारी सिद्धियाँ हैं। ज्ञान की बात अगर एक तरफ छोड़ दें तो हमारे धन की जानकारी ही  ले लीजिए, हमारी भावना को देख लीजिए, कितने ही लोग हमारे दर्शन को लालायित रहते हैं। यह सारी हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ हैं। ऋद्धियाँ तो हमारी दिखाई  नहीं पड़ती लेकिन हम कह सकते हैं कि हमें खूब आराम से नींद आ जाती है, पास में नगाड़ा भी बजता रहे, तो भी कोई परवाह नहीं। चिन्ता हमारे पास नहीं है। हम निर्भीक हैं। आत्मसंतोष हमारी ऋद्धि है, हमारा लोकसम्मान तो आप देखते ही हैं । लोकसम्मान उसे कहते हैं जिसमें जनता का सहयोग मिलता है। भगवान् का अनुग्रह भी हमें मिला है। अनुग्रह कैसा होता है, कहते हैं कि देवता ऊपर से फूल बरसाते हैं। हमारे ऊपर हमेशा फूल बरसते रहते हैं, जिसे हम प्रोत्साहन, साहस, हिम्मत, प्रेरणा, उत्साह, उम्मीद कह सकते हैं। देवता इसे हमारे ऊपर बरसाते रहते हैं।

इसके आगे कल वाले लेख में। 

कल  वाले लेख को 490  कमैंट्स प्राप्त हुए, 13  युगसैनिकों (साधकों) ने  24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स)  प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है, हमारी हार्दिक  बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग  के लिए धन्यवाद्। 

जय गुरुदेव


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